लिंग भेद
हमारे एक मित्र हैं यादव जी
बड़े दुःखी थे
पूछा तो बोले-
सुबह-सुबह मन हो गया कड़वा
बहू को लड़की हुई भैंस को 'पड़वा'।
मैने कहा-
अरे, यह तो पूरा मामला ही उलट गया
लगता है 'शनीचर' आपसे लिपट गया।
फिर बात बनाई
कोई बात नहीं
लड़का-लड़की एक समान होते हैं
समझो 'लक्ष्मी' आई।
सुनते ही यादव जी तड़पकर बोले-
अंधेर है अंधेर !
लड़की को लक्ष्मी कहें
तो पड़वा को क्या कहेंगे
कुबेर !
पंडि जी-
झूठ कब तक समझाइयेगा
हकीकत कब बताइयेगा ?
आज जब कन्या का पिता
अपनी पुत्री के लिए वर ढूंढने निकलता है
तो
वर का घर-दुकान
वर का पिता-दुकानदार
वर-मंहगे सामान होते हैं
कैसे कह दूँ कि लड़का-लड़की एक समान होते हैं।
आपने जीवन भर
लड़की को लक्ष्मी
लड़के को खर्चीला बताया
मगर जब भी
अपने घर का आर्थिक-चिट्ठा बनाया
पुत्री को दायित्व व पुत्र को
संपत्ति पक्ष में ही दिखाया।
मैने कहा-
ठीक कहते हैं यादव जी
पाने की हवश और खोने के भय ने
ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है
जहाँ-
बेटे
'पपलू' बन आते हैं जीवन में
बेटियाँ
बेड़ियाँ बन जती हैं पाँव में
भैंस को मिल जाती है जाड़े की धूप
पड़वा ठिठुरता है दिन भर छाँव में।
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
बहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
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पड़वा- भैंस का नर बच्चा ।
पपलू- ताश के एक खेल का सबसे कीमती पत्ता.
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
रचना सुंदर है। कविता में संवाद शैली उसे मंचीय बना देती है।
बिलकुल सही कहा है इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी गूँगा बहरा है तभी तो
आज जब कन्या का पिता
अपनी पुत्री के लिए वर ढूंढने निकलता है
तो
वर का घर-दुकान
वर का पिता-दुकानदार
वर-मंहगे सामान होते हैं
कैसे कह दूँ कि लड़का-लड़की एक समान होते हैं।
कवि इस कविता के लिये बधाई के पात्र हैं
वर्तमान परिवेश में बहुत ही सुंदर रचना , बहुत बहुत बधाई, धन्याद
विमल कुमार हेडा
decendraji.
bahut hi badhiya rachana.
shabd sahaj pravaahi man bhavan,
sadar.
vinay k joshi
acchi lagi rachna, kabhi aap se sunne ko mile to aur accha ho.
कविता की शुरुआत ही बहुत सुन्दर की है.
हमारे एक मित्र हैं यादव जी
बड़े दुःखी थे
पूछा तो बोले-
सुबह-सुबह मन हो गया कड़वा
बहू को लड़की हुई भैंस को 'पड़वा'।
समाज का अच्छा चित्रण किया है.
बेटे
'पपलू' बन आते हैं जीवन में
बेटियाँ
बेड़ियाँ बन जती हैं पाँव में
भैंस को मिल जाती है जाड़े की धूप
पड़वा ठिठुरता है दिन भर छाँव में।
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
बहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
आज के भारत में लिंग भेद के कारण लडकियाँ कम होती जा रही हैं.जिसके कारण असंतुलन हो गया है .आज की ज्वलंत सामाजिक समस्या है . बधाई .
अपने समाज की कड़वी सचाई, आपने बहुत ही ढंग से बताई. घरों में अधिकतर 'पपलू' की ही जय- जयकार की जाती है.
लिंग भेद शहर में भी मौजूद है ...हो सकता है गाँव से कुछ कम मात्रा में हो..
शहर में लिंग परिक्षण की सुविधा [?]..न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी को चरितार्थ करती हुई समस्या {बेशक पढ़े लिखे अनपढो के लिए} पैदा ही नहीं होने देती है ..!!
सुनते ही यादव जी तड़पकर बोले-
अंधेर है अंधेर !
लड़की को लक्ष्मी कहें
तो पड़वा को क्या कहेंगे
कुबेर !
कमाल का व्यंग ....
मगर उम्मीद है के जल्दी ही सब कुछ बदल जाएगा...
अब तो नवरात्र में भी नौ कन्याये नहीं मिल पाती..
कब तक न बदलेगा समाज...?
वर का घर-दुकान
वर का पिता-दुकानदार
वर-मंहगे सामान होते हैं
कैसे कह दूँ कि लड़का-लड़की एक समान होते हैं।
achchaa vyang haasya ke pu-t ke saath
कविता पढ़ने और उस पर अपना कमेंट देने के लिए सभी पाठकों का तहे दिल से आभारी हूँ।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
एक एक शब्द सांचे में ढलकर निकला है
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