जून माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की अंतिम कविता के तौर पर आज हम प्रकाशित कर रहे हैं कुलदीप जैन की कविता। हालाँकि यह कविता 16वें स्थान पर ही थी, इसे हमें बहुत पहले प्रकाशित करना चाहिए था, लेकिन कवि कओ ओर से परिचय न प्राप्त होने के कारण हम नहीं प्रकाशित कर सके। इनका परिचय अब तक नहीं आया, फिर भी हम केवल नाम से प्रकाशित कर रहे हैं।
रचना- है बहुत
अरसों से चल रहा हूँ, दूर तलक चला हूँ
मगर सफ़र-अ-हयात अभी लम्बा है बहुत!
मुश्किले है सफ़र में, कांटे है राह भर में
तूफानों से कह दो, दिल में हौसले है बहुत!
भूखे को रोटी दो, बेसहारों को सहारा
मंदिर-मस्जिद न जाया करो, वहा झगड़े है बहुत!
वो फूटपाथों पे जागते है, तुम बंद बंगलों में सोते हो
अरे अब तो खिड़कियाँ खोलो, घर में तुम्हारे घुटन है बहुत!
किस पे भरोसा करें? मेहनत और बाजुओं के सिवा
यहाँ यारों के दरम्याँ दुश्मन भी है बहुत!
तुम्हें सुकून की तलाश है, तुम्हें अमन की दरकार है
चलो हमारे गाँव में, वहा परिंदे है बहुत!
हमने ठोकरे भी खाई और गिरे भी बहुत
चले आये हम वहा से, क्योंकि घर में तुम्हारे आराम है बहुत!
किसे बुलाऊँ किसे समझाऊँ? ये कलम, शेर और गजले
कौन समझेगा? लोग तुम्हारे शहर के बौने है बहुत.....
प्रथम चरण मिला स्थान-तीसवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- सोलहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
उत्तम रचना..
सुन्दर रचना है.बधाई
मुश्किले है सफ़र में, कांटे है राह भर में
तूफानों से कह दो, दिल में हौसले है बहुत
सकारात्मक सोच लिये सुन्दर रचना बधाई
koshish karte rahiye...
ho jaayegaa dheere-dheere...
अच्छी सोच है....गज़ल मे बहर की दिक्कत लगती है...ध्यान रखिए...
इसे तो सबसे पहले गज़ल कहना हीं नहीं चाहिए। बहर क्या, इसमें तो काफ़िया की भी दिक्कत है।
वैसे प्रयास करने से कविता के आस-पास आ जाएगी यह रचना।
-विश्व दीपक
अति सुन्दर रचना!!!
मुश्किले है सफ़र में, कांटे है राह भर में
तूफानों से कह दो, दिल में हौसले है बहुत!
बहुत ही गहरे भावों के साथ बेहतरीन प्रस्तुति, आभार्
vichaar mahatvpurna hai.
beher, kafiya ye sab to abyas ki cheej hai.
aakhir sab kuch pahle se hi aayega to seekhge kya.
hind yugm per shikhane walo ki kami nahi bus bane rahiye.
sader
काफी गुंजाईश है, अभी सबसे पहले ग़ज़ल की तकनीकी जरुरी है, आपकी ग़ज़ल में मतला ही नहीं है, और बगैर मतले के ग़ज़ल नहीं होती.
यह शे'र अच्छा लगा.
किसे बुलाऊँ किसे समझाऊँ? ये कलम, शेर और गजले
कौन समझेगा? लोग तुम्हारे शहर के बौने है बहुत.....
jaisa ka deep ji likha bilku sahi hai. bina matle k gazal nahi hoti. agar aik bar ko maqta na ho to koi bat nahi.
“तुम्हें सुकून की तलाश है, तुम्हें अमन की दरकार है
चलो हमारे गाँव में, वहा परिंदे है बहुत!” बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है. सरल शब्दों में इतनी संवेदनशील प्रस्तुति के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें. अश्विनी कुमार रॉय
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)