सीधी-सादी एक कहानी, मोड़ के मैं आ जाऊँ
जी करता है भीड़ में ख़ुदको छोड़ के मैं आ जाऊँ
इस दुनिया को काट के कितनी दुनियाएँ बनती हैं
एक सवाल यही है बाक़ी, जोड़ के मैं आ जाऊँ
मुझसे मेरी दूरी यारो अच्छी तो है लेकिन
बस इतना हो, जब जी चाहे, दौड़ के मैं आ जाऊँ
दिल की बातें कह देने से बोझ उतर जाता है
वरना ये भी मुमकिन है, सर फोड़ के मैं आ जाऊं
ठहरो नाज़िम, कूच से पहले, इस दुनिया के सारे
रस्में-वस्में, बंधन-वंधन तोड़ के मैं आ जाऊँ
--नाज़िम नक़वी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 कविताप्रेमियों का कहना है :
ग़ज़ल है या बच्चे की बात ,किस मुर्ख ने छापा है इसे, हिन्दी युग्न्म ऐसी गन्दगी क्यों फैला रहा है, साहित्य के बल पर
साईट पर हित काउंट बढा कर पैसा कमा इसका बिजिनेश है....,,,,
पहले l लोगो से इसे हित बनाया अब पैसा कमाया जा रहा है ,,,...
सादर
सुमित दिल्ली
आप भी काहे नाहीं बना लेते एक ठो
ई-मैगजीन......?????
और बना रखी है तो काहे चूहे की तरह कमेन्ट दे रहे हैं....
खुल के बोलिए..एकदम बिंदास...
आप भी काहे नाही बना लेते पैसा.... ?
सवेरे एक ट्रक के पीछे लिखा देखा था ......
''सड मत--रीस कर ''
इससे बेहतर कुछ लिखे हो तो छाप दो यहीं पे..
अनाम ही छाप दो....
फादर....
मनु
बहुत खूब लिखा है खासकर ये पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगी.
दिल की बातें कह देने से बोझ उतर जाता है
वरना ये भी मुमकिन है, सर फोड़ के मैं आ जाऊं
मनु भाई आपने भी बहुत खूब लिखा है
अमिता
अच्छी गजल के लिए बधाई .
अच्छा लिखा है बुरा इससे महतवपूर्ण है की कुछ रचा जा रहा है.
अनाम जैसे लोगो के बीच संवेदनाये बिना कविता के जी ही नहीं सकती.
आप कहते हो की हिंद युग्म से पैसा बनाया जा रहा है यदि हा तो इसमें बुरा क्या है.
हिंदी मैं बिज़नस हो इससे बेहतर कुछनही है. मैं तो इस व्यापर को आगे बढ़ने की बात सोचता हूँ.साहित्य ख़ास कर कविता हासिये पैर आती जा रही है हासिये से बाज़ार तक का सफ़र आसान नहीं होता कभी दूरी तै कर के देखिय्गा
सुमित भाई ने तो तहलका मचा रखा है....जिस गली में देखिए, मिल जाते हैं...अच्छा है, हिंदयुग्म क रीडरशिप बढ़ रही है....अब थोड़ा-बहुत नाराज़गी तो चलती है भाई...नियंत्रक साहब मूर्ख ही सही..ये ग़ज़ल गंदी ही सही...हिंदयुग्म पैसे बनाने की मशीन ही सही....क्या पता, सुमित कोई बच्चा-बुतरु हो जिसकी उंगलियां की-बोर्ड पर यूं ही मचल जाती हों...जाने दीजिए, बचपने में की गई हरकतों का बुरा नहीं मानते.....
दिल की बातें कह देने से बोझ उतर जाता है, बहुत ही सुन्दर पंक्तियों से सजी यह रचना बधाई ।
नियंत्रक से विनम्र अनुरोध अनाम द्वारा की गई ऐसी ही अन्य टिपण्णियां आएं तो ह्टा दें इससे युग्म पर लिखने वालों को ही नहीं पढ़्ने वालों को भी बदमजगी होती है,कोई रचना पसन्द न आए तो भी शालीनता से और उस रचना में क्या कमी है ऐसी रचनात्मक टिपण्णी करें चाहे अनाम ही करे
श्याम सखा श्याम
ग़जल पर तो बात ही नहीं हो सकी...ये बड़ी फकीरी की ग़ज़ल लगती है....मस्ती लिए..
इस दुनिया को काट के कितनी दुनियाएँ बनती हैं
एक सवाल यही है बाक़ी, जोड़ के मैं आ जाऊँ
ये तो पूरा दर्शन है...दुनियाएं का प्रयोग पहली बार होता देखा...दुनियाएं शायद कोई शब्द है नहीं..'इस दुनिया को काट, कई दुनियाएं बनती हैं' ज़्यादा बेहतर नहीं रहता क्या..
दिल की बातें कह देने से बोझ उतर जाता है
वरना ये भी मुमकिन है, सर फोड़ के मैं आ जाऊं
हा हा हा...ये मस्त है...मुझसे भी आप दिल की बातें ही कह दिया कीजिए....
ठहरो नाज़िम, कूच से पहले, इस दुनिया के सारे
रस्में-वस्में, बंधन-वंधन तोड़ के मैं आ जाऊँ
काहे भाई..इतने उतावले क्यों हो रहे हैं...ये तो तब की लाइन्स हैं जब आप 80-90 साल रोटियां तोड़ चुके हों...अभी बचा के रखिए बहुत कुछ....ये सब मत लिखिए...
जो भी हो , एक बात सही है की "अनाम" जो भी आरोप लगा रहे हैं उसका सही जवाब हिंद युग्म नहीं दे पा रहा है | अगर मिल जाए तो अनाम याने सुमित दिली चुप हो जाए |
अनाम
सीधी-सादी एक कहानी, मोड़ के मैं आ जाऊँ
जी करता है भीड़ में ख़ुदको छोड़ के मैं आ जाऊँ
ये पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगी.
सुमित ने आखिर ऐसा पूछा ही क्या है जो ज्यादा टेंशन ली जाए...हाँ ये है के इन्हें ये सब लिख के तसल्ली मिल गए,,,
और हाँ श्याम जी...
कमेन्ट डिलीट करने की सलाह मैं नहीं दूंगा...{बड़ा टुच्चा काम है... है न सुमित भाई......}
:)
इन्हें अपना दिल हल्का करने दीजिये...
दिल की बातें कह देने से बोझ उतर जाता है
वरना ये भी मुमकिन है, सर फोड़ के मैं आ जाऊं
क्या पता इन का भी क्या हाल हो जाए..
:)
गजल बहुत पसंद आई...निखिल भाई ने विश्लेषण कर ही दिया है...
अनाम सुमित भाई ने बताया ही नहीं के अच्छी गजल कैसी होती है....?
अगर बहुत ज्यादा जबरदस्ती करके कोई नुस्ख निकलेगा तो बस ये के एक जगह काफिये में
दौड़ है.....जबकि कैफ्या शायद ....ओड करके है...पर मेरी नजर में ये सही है...ये बेहद नुक्ताचीनी करके ही गलत बताया जा सकता है..
सुमित भाई अपनी गजल छापते तो शायद फिर से विचार करते हम भी...
शानदार गजल..नए प्रयोग के लिए बधाई स्वीकारें नाजिम साहिब...
युग्म पे चूहे बहुत हुए अब ऐसा जी करता है..
बिल्ली की तरह से अब तो दौड़ के मैं आ जाऊं....
:::)
चेक कर लिया जी...ठीक है ये काफिया भी...
:::))
::))
ग़ज़ल बहुत अच्छी है .ये शेर मुझे अच्छा लगा
मुझसे मेरी दूरी यारो अच्छी तो है लेकिन
बस इतना हो, जब जी चाहे, दौड़ के मैं आ जाऊँ
बधाई
सादर
रचना
मनु भाई मेरे कहने का अर्थ केवल इतना था की हम इसे इग्नोर करें क्योंकि ये तो हमें अपनी गलत बयानी में उलझाना व् रचना को गौण बनाना चाहते हैं और हम इनके जवाब देकर इनकी आत्मा को संतुष्टि दे रहे हैं और हमने हिन्दयुग्म पर पागलों की भडास निकालने का अस्पताल तो खोला नहीं हुआ बाकी नियंत्रक जो ठीक समझे करें .लेकिन इन जैसे लोगों को टूल देने से युग्म का ही नुकसान है ,लेखक व् सुधि पाठकों का वक्त जाया जाता है श्याम सखा श्याम
आपसे सहमत हूँ श्याम जी,,
पर जब कोई इस बात को अपनी आई . डी . से नहीं कह रहा है तो इसका सीधा सा मतलब ये है के
उसका कविता/गजल/लेख/कहानी से कभी कोई वास्ता रहा ही नहीं है...
ये सब उसके लिए नया है..और उस पे पैसे कमाने की बात से उस पे क्या बीत रही है....
समय सच में कीमती है मगर क्या करें...
कुछ वक्त चूहों पे ही सही....
:)
kuch bhi ho annam ne acchi bahas kara di.
is bahas ke liye anaam ko bahdayee.
शा'एर, सच बोलूँ तेरी बात नयी है , अंदाज़ नया है
लिख दूँ गा सब दीवारों पर, बस वक़्त की जंजीरें तोड़ के मैं आ जाऊं
बहुत ही अच्छा मतला
सीधी-सादी एक कहानी, मोड़ के मैं आ जाऊँ
जी करता है भीड़ में ख़ुदको छोड़ के मैं आ जाऊँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)