इच्छाओं के समंदर से कुछ मोती निकालने की सोची हमने
पर इन सनातन हवाओं, परम्पराओं ने
न जाने कैसा बनाया है हमें जो
करता है
सदैव तर्क
अच्छा बुरा, सही गलत
होती है हमें भी दुविधा से असुविधा
पर जब से सोचने-समझने का काम
शिराओं में दौड़ते खून ने लिया
दिमाग को जैसे जबरदस्ती वी आर एस दे दिया गया हो
अब तो काम करने से डरता है दिमाग
पिछली बार सोचने की कोशिश पर
कितना मारा था शिराओं के ख़ूनों ने उसे
भिगो-भिगो के पीटा था
शरीर के बीचो-बीच चौराहे पर
छुप के बैठा रहता है दिमाग अब तो
खोपड़ी के पिछले कोटर में
गुजरात के अल्पसंख्यकों की तरह
कोटर के चारो ओर अटखेलियाँ करते
शिरों के खून पसीना-पसीना कर जाते है उसे
जब तक आरती और अजानों की दुआ सलाम होती थी
जब तक मंदिर वाली गली के फूलों का
मजार पर चढ़ना मना नहीं था
जब तक ख़ुदा के महल में राम रहते थे
जब तक धुली जाती थी कबीर की चदरिया
सरयू के पानी में
तब तक कहा जाता था
आदमी सोचता है दिमाग से
करता और जीता है दिमाग से
दिल की बेकार बातों को टाल देता है यूँ ही
जैसे अपने देश का किसान
टाल देता है अपने बीवी की
अगले फगुआ पर लुग्गा लाने की बात
पर किसने बढ़ाई
शिराओं के ख़ून की हिम्मत
वही तो कहता था
भुजाओं से कड़कने को
नथुनों से फड़कने को
सोचता है दिमाग
क्यों कहा था शिराओं से
खूब भेजों हृदय को खून
ताकि साँस न फूले
गुम्बदों पर चढ़ने में
इक छोटी सी भूल पर
वनवास मिल गया दिमाग को
गर सोचने की कोशिश करता हुआ पकड़ा गया तो
दे देंगे अज्ञातवास शिराओं के ख़ून
काश ख़त्म हो जाते नज़र बंदी के दिन
पर इक नारे वाला बच कर निकला है
अंधे कानून को न जाने क्या दिखाकर
गर फिर उबाल ला दिया
शिराओं के खून में उसी ने
उम्र कैद न हो जाये मुझको।
यूनिकवि अखिलेश कुमार श्रीवास्तव
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
देश का वर्तमान सामाजिक प्रणाली मे निरंतर ऐसे प्रश्न उठाते रहते है जो सोचनीय बन जाते है.
बेहद संवेदनशील और सोचने योग्य कविता प्रस्तुत किया आपने.
बधाई!!!
अंधे कानून को न जाने क्या दिखाकर
गर फिर उबाल ला दिया
शिराओं के खून में उसी ने
संवेदनशील
है
बधाई!!!
एक ........... दो............ तीन ............. चाआआर...................
"बंद करो ये अत्याचार .............". !! ! ! ! ! ! !! ! ! ! ! ! !
बहुत ही सम्मान के साथ
अरुण मित्तल 'अद्भुत'
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
बहुत सुन्दर युइनिकवि जी.
अंधे कानून को न जाने क्या दिखाकर
गर फिर उबाल ला दिया
शिराओं के खून में उसी ने
उम्र कैद न हो जाये मुझको।
अद्बुत
तुम्हारा कमेन्ट समझ में नहीं आया. किन्ही दो प्रतीकों से हो कविता लिखा मेरे लिए आसान नहीं था. तुमने कविता को आत्याचार लिखा है युग्म पर यह भासा सही नहीं है वैसे मैंने कल आपको भी पढ़ा है खेर कविता तो आपका छेत्र है नहीं और पहली ग़ज़ल जो मैंने तुम्हारी जो पढी थी वो फिराक की ...... थी.
धूमिल ने लिखा है कविता आदमी होने की तमीज है कम तो कवी होने का दावा करने वाले लोग तो आदमी बन कर रहे.
प्रीत मीडिया के कुछ अति वरिस्थ आलोचकों ने कविता में असीम संभावनाए (२००४) बताई थी आप इसे अत्याचार .
सुकर है अन्य पाठको ने अपने द्रिस्थी आपको पढ़ कर नहीं बदली.
चलिए मैं आज के बाद किसी मुक्त छंद कविता पर कमेन्ट नहीं करूंगा क्योंकि ये मेरा क्षेत्र नहीं है ...... और हाँ ....... वो गजल फिराक साहब की नहीं है, मतला बिलकुल मिलता जुलता है. बाकी अशआर बिलकुल अलग हैं ....... ये गलती मैं मान भी चुका हूँ, और फिर मानता हूँ........
दुनिया की सभी गजलें और शेर तो किसी ने भी नहीं पढ़े ना........ इसलिए गलती हो जाती है.... बड़े बड़े शायरों से भी होती है ....... जानबूझकर तो मैंने उसे अपना शेर बनाया नहीं ...........
"आपकी तमीज बहुत अच्छी है कि एक ही गजल पढ़ी..... जिसमे गलती थी, मैंने गलती मानी उसका जिक्र भी नहीं किया और पूरी गजल को फिराक साहब की गजल बता दिया ........ ये तो सचमुच अत्याचार है न ........... "
मैं तो सर झुकाकर अपनी गलती मान लेता हूँ पर आप जैसे तथाकथित बड़े लोगों का क्या करे कविता के नाम पर कुछ भी लिख देते हैं और ........... बस ........... और क्या कहूं आप समझदार हैं.......... !!!
अरुण मित्तल 'अद्भुत'
mera kahana sirf itna hai ki koi kavita sirf isliye sire se kharij
nahi ki ja sakti kyo ki wo chand mein nahi hai.
aap kavita ki aalochana silp/katya/bhaav/patniyta par kerte to behter hota, kavita ke liye bhi aur munch ki garima ke liye bhi.
saader
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