भादों था ना सावन था
भीगा फिर क्यों दामन था
याद तुझे क्योंकर बैठा
खुद से मिलने को मन था
उलझे-सुलझे रिश्तों का
तब हर घर में आंगन था
सात-जनम तक साथ रहा
कैसा नाजुक बन्धन था
चेहरा है उतरा-उतरा सा
देखलिया क्या दरपन था
लड़ भिड़कर भी मीत रहे
मौसम कब था बचपन था
जाकर फिर जो ना लौटा
‘श्याम’ सखा जी जोबन था
नं -124
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
याद तुझे क्योंकर बैठा
खुद से मिलने को मन था
बहुत सुन्दर गज़ल !
उलझे-सुलझे रिश्तों का
तब हर घर में आंगन था
हर पंक्ति बहुत ही सुन्दर बन पड़ी, गहरे भाव लिये बेहतरीन रचना, बधाई ।
शब्द शब्द असर करते है..
अत्यन्त भाव पूर्ण ग़ज़ल...
बधाई!!!
फिर से बच्चों वाली बातें ...अपनी हैसियत बढाओ,,,,
सादर
सुमित दिल्ली
मित्रो !
मुझे युग्म पर बुधवार का दिन अलॉट हुआ है,आज के दिन मैं अपने ब्लॉग्स.http://gazalkbahane.blogsot.com/ v http://kathakavita.blogspot.com/ पर नई रचना पोस्ट करता हूं आज गलती से यहां कर गया हूं ,आप चाहें तो मेरी रचनाएं वहां भी देख सकते हैं
सारगर्भित ,छोटी रचना के लिए बधाई .
बहुत ही सुन्दर कविता, बहुत बहुत बधाई
विमल कुमार हेडा
भादों था ना सावन था
भीगा फिर क्यों दामन था
बेहतरीन भाव --- भीगी गज़ल
stale, hackneyed thoughts; oft repeated things.
आपके लेखन का सम्मान करता हूँ लेकिन आपसे कुछ नए अशआर कि उम्मीद हैं जिनके ख़याल में नयापन हो.. आप छंद (बहर) अच्छे से निभाते हैं परन्तु इन दिनों कोई ऐसा शेर नहीं पढ़ा जो दिल में बहुत भीतर तक उतरा हो या जो कई बार पढने का मन किया हो और याद हो गया है..... आशा है आप अपने प्रशंसकों को निराश नहीं करेंगे
सादर
अरुण 'अद्भुत'
श्याम जी,
अच्छे भाव, अच्छी रचना.
प्रिय अरूण,सैंकड़ो हज़ारों रचनाकारों के बीच कोई एक आध भाग्यशाली रचनाकार होता है जो कोई बिल्कुल नई बात जैसी बात रचना में कह पाता है अकसर हम आम आदमी जिसे नया खयाल समझलेते हैं ,वह केवल इसलिये कि हमने वैसी ,उस खयाल की पुरानी रचना नहीं पढी होती,हां अनेक बार रचनाकार किसी नये ढंग या तोअलग अल्ग शब्दावली या अन्दाज में बात कह जाता है जो लोकप्रिय हो जाती है,और मात्र वही उसकी उपलब्धि होती है,लेकिन यह स्वयंमेव होता है। मैं इसका दावा तो नहीं कर रहा लेकिन मुझेअपने इन दो शे‘रों का अन्दाज कुछ अलग ही लगा है
समन्दर मिला आसमां से उफ़नकर
नदी आज फिर खिलखिलाने लगी है
समन्दर का आसमां से उफनकर मिलना मैने तो नहीं पढा हो सकता है ,आपने या किसी और प्रबुद्ध पाठक ने पढा हो,मगर मै इसे अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं मान रहा हूं शायद आगे चल कुछ लिखा जाए
और इसी गज़ल का यह शे‘र भी एक बार फिर ध्यान दे लें
याद तुझे क्योंकर बैठा
खुद से मिलने को मन था
सस्नेह
श्याम सखा
समन्दर मिला आसमां से उफ़नकर
this is new but isn't absurd?!
there is difference between new and novelty.
आम तौर पर मैं चूहों का शिकार नहीं करता और यही सलाह औरों को भी देता हूं लेकिन आज इन्हे जवाब दे रहा हूं क्योंकि इस चूहे को अपनी खोपड़ी में कूड़ा भरा होने का अहसास करवाना है
this is new but isn't absurd?!
absurdity इन की खोपड़ी में घुसी है तभी इन्हे यह समझ नहीं आया
समन्दर मिला आसमां से उफ़नकर
अगर यह पूछते कि इसमे नया तो है पर इसका अर्थ क्या है तब मैं शायरी से अनभिज्ञ समझकर इन्हे शालीनता से कहता जनाब जब समन्दर उफ़नेगा तभी बादल बनेगा और आसमां से मिलेगा और बादल बरसेगा तभी तो नदी खिलखिलाएगी,वरना आजकल जैसे उदास सूखी बह रही है बहेगी बेचारी,पर इनकी मूढ़मति के क्या
कहने..
हिन्दयुग्म के सुधि-पाठकों से कड़वे शब्दों में इन जनाब को जवाब देने के लिये खेद है क्योंकि इस के साथ-साथ आपको भी यह सहना पड़ा
श्याम सखा श्याम
आदरणीय श्याम जी,
आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, बिलकुल ही सही .... लेकिन ये बात आज के उन गजलकारों (जिनमे शायद मैं भी शामिल हूँ) को कौन समझाएं. ... जो थोक के भाव में गजलें लिख रहे हैं ........
चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं से जमीं
गजल के शेर कहाँ रोज रोज होते हैं
मुझे बहुत ही अच्छा लगा की आप इस विचार के साथ आये सच ही है की हमें वो नया लगता है जो हमने आज तक नहीं पढ़ा ....... दीक्षित दनकौरी जी से अक्सर बातचीत होती है, वो कहते हैं की "गजल की लगभग १२०० पुस्तकें पढने के बाद मुझे लगता है की नया लिखना बहुत मुश्किल काम है'
खैर हिंद युग्म पर कुछ ऐसी चर्चा होती रहे तो अच्छा लगता है ............आपने जिन दो अशआर का उल्लेख किया है दोनों अच्छे हैं...... वैसे आपका एक शेर और मुझे बहुत अच्छा लगता है
"उसका कोई बिगाड़ क्या लेगा
खुद को खानाख़राब रखता है
सादर
अरुण मित्तल अद्भुत
चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं से जमीं
गजल के शेर कहाँ रोज रोज होते हैं
ये शेर बशीर बद्र जी का है नाम डालना भूल गया
श्याम जी,
इन चूहों को छोडिये न ... जो आदमी मानसिक और बौद्धिक स्तर में बराबर न हो उस से सर खपाने से कोई लाभ नहीं
अरुण अद्भुत
it is easiest to lose temper, abuse, self praise.
समन्दर मिला आसमां से उफ़नकर
अगर यह पूछते कि इसमे नया तो है पर इसका अर्थ क्या है तब मैं शायरी से अनभिज्ञ समझकर इन्हे शालीनता से कहता जनाब जब समन्दर उफ़नेगा तभी बादल बनेगा और आसमां से मिलेगा और बादल बरसेगा तभी तो नदी खिलखिलाएगी,वरना आजकल जैसे उदास सूखी बह रही है बहेगी बेचारी
so you propose to write a footnote beneath every sher to explain scientifically how the things happen and how you have written some thing novel.
GREAT, that is.
श्याम जी,
इन चूहों को छोडिये न ... जो आदमी मानसिक और बौद्धिक स्तर में बराबर न हो उस से सर खपाने से कोई लाभ नहीं
अरुण अद्भुत
congratulations.
you are equal to him बौद्धिक स्तर में
याद तुझे क्योंकर बैठा
खुद से मिलने को मन था
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yeh sher mujhe behad pasand aaya. choti behr me achhi gazal likhi hai aapne. Aur shyan sakha ji se guzarish hai ki agar jo baatein unhe buri laga karein to unke jawaab na diya karein. Is prakar gusse me kuch bhi likhne se unki chavi bigadegi.
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Doosra maine dekha hai ki yahan kaafi paathak aise hain jo baat baat mein apni badhaayi karna nahi bhoolte. Hume isse bhi bachna chahiye.
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Behtreen ghazal ke liye badhai.
.
--Gaurav
प्रिय गौरव ,अरुण व अन्य गज़लप्रेमी गण क्भी-कभी बुराई से भी अच्छाई निकल आती है जैसे कीचड़ से कमल.मेरी टिप्पणी में संदर्भित शे‘र
समन्दर मिला आसमां से उफ़नकर
नदी आज फिर खिलखिलाने लगी है
एक बात मैं पहले बतला दूं कि मैं कोई गज़ल क्या एक शे‘र भी कम से कम ४-५ अच्छे गुणी गज़लकारों को दिखलाए बिना कहीं प्रकाशित होने या ब्लॉग पर नहीं डालता ,इस शे‘र के बारे में और लोगों के अलावा ब्लॉग पर बहुत सुन्दर गज़ल लिखने वाली सुश्री श्रृद्धा जैन सहित अनेक लोगो से मशविरा हुआ इस शे‘र के दो version बने थे,
देखें
समन्दर मिला आसमां से उफ़नकर
नदी आज फिर खिलखिलाने लगी है
दूसरा
मिला आसमां से घुमड़कर जो बादल
नदी आज फिर खिलखिलाने लगी है
इस रूप में यह शे‘र आमजन को जल्द समझ आ जाएगा ऐसा सभी का मानना थ ,पर चूंकि गज़ल में इशारों में बात की जाती है और यही गज़ल की खसूसियत भी है अत: सब गुणी लोगों ने इसके पहले version को अधिक सशक्त माना ,और इसके अलावा भी मेरे अनुसार
बादल तो उत्पन्न ही आसमां में होता है उसका आसमां से मिलना कहना गलत होगा बादल आकर धरती से मिलता है,आसमां तो उसका घर है जबकि समन्दर का जल उफ़नक्र,भाप बनकर आसमां से जा मिलता है
और गौरव भाई मैं तो अपनी पहली टिप्पणी में ही आप सरीखे सदभावेन पाठकों से ऐसी कड़वी टिप्पणी पर खेद प्रगट कर चुका हूं ,और इससे पहले और कवियों की कविता पर अनाम टिप्पणी पर उसे ignore करने की सलाह दे चुका हूं ,पर देखिये जैसा मैने पहले कहा कि कई बार..तो मुझे लगता है कि इस गज़ल सत्संग से कई अच्छी बातें निकलकर आईं जिससे ्नवगज़लकारों को दिशा मिलेगी
श्याम सखा श्याम
mujhe to patrikaon hetu ek gzl बारीकियों पर बात लिखने का मसाला मिल गया अगर नियंत्र्क चाहेंगे तो युग्म पर भी भेज दूंगा
याद तुझे क्योंकर बैठा
खुद से मिलने को मन था
श्याम जी आपकी हर ग़ज़ल में एक न एक अनोखे अंदाज़ का शे'र होता है.
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