दिल ने तन्हाई के लम्हात चुगे थे दिन भर
और आँखों में मेरी अश्क छुपे थे दिन भर
मौलवी थे वो तपस्या में रहे थे दिन भर
उन की चौखट पे कई लोग रुके थे दिन भर
प्यार इस शह्र में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
शब की आगोश में बेसुध से पड़े जिस लम्हा
सिर्फ इस बात पे खुश थे कि चले थे दिन भर
कोई सीने से लगा और कोई बेगानावार
थी तसल्ली कि कुछ अफरात मिले थे दिन भर
जश्न तो आया मगर दिल को दरीदः कर के
सब इसी बात पे अफ़सोस किये थे दिन भर
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
हम सुखनवर तो नहीं थे कोई ग़ालिब जैसे
बस खयालात ही कागज़ पे लिखे थे दिन भर
(अफरात = लोग, दरीदः कर के = चीर कर)
(बह्र = फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
2122 1122 1122 22)
कवि- प्रेमचंद सहजवाला
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिल ने तन्हाई के लम्हात चुगे थे दिन भर
और आँखों में मेरी अश्क छुपे थे दिन भर
जश्न तो आया मगर दिल को दरीदः कर के
सब इसी बात पे अफ़सोस किये थे दिन भर
उम्दा शेर ..
बहुत खूब लिखा !!
खूबसूरत गज़ल है
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
लाजवाब शेअर है
खुबसूरत शेर से भरी ग़ज़ल है .बधाई .
प्यार इस शह्र में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
सारी गजलही बहुत बहुत खूबसूरत है ...
पर इस शे'र को पढ़ते ही राखी सावंत की याद आ गयी,,,
:)
वैसे तो पूरी गज़ल है खूबसूरत है लेकिन ये शे'र कुछ ज्यादा ही पसंद आये.
प्यार इस शह्र में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
हम सुखनवर तो नहीं थे कोई ग़ालिब जैसे
बस खयालात ही कागज़ पे लिखे थे दिन भर
जश्न तो आया मगर दिल को दरीदः कर के
सब इसी बात पे अफ़सोस किये थे दिन भर
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
हम सुखनवर तो नहीं थे कोई ग़ालिब जैसे
बस खयालात ही कागज़ पे लिखे थे दिन भर
Yeh ashaar pasand aaye.
Pranaam
RC
दिल ने तन्हाई के लम्हात चुगे थे दिन भर
और आँखों में मेरी अश्क छुपे थे दिन भर
बहुत ही बेहतरीन रचना बधाई ।
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
हम सुखनवर तो नहीं थे कोई ग़ालिब जैसे
बस खयालात ही कागज़ पे लिखे थे दिन भर
Prem Ji, Bahut sunder maza aagaya ...
Surinder
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
बहुत ही बढिया शेर, सुन्दर रचना
नया तर्ज़, नयी बात , नयी तश्बीहात ,
कुल मिला कर बहुत अच्छी ग़ज़ल लेकिन कुछ अशुद्धियाँ जिन्हें इंगित करना ज़रूरी
'शब की आगोश ' = शब के आगोश
'कुछ अफरात मिले थे' = मेरे विचार से लफ्ज़ अफराद ( फर्द का बहुबचन) हो गा. फर्द माँ'आने आदमी
'सब इसी बात पे अफ़सोस किये थे दिन भर ' = खड़ी बोली के हिसाब से यह गलत है. ऐसा न लिखा जाता है, न बोला जाता है, पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह आम बोल चाल में अक्सर मिल जाए गा लेकिन लिखने में यह व्याकरण प्रयोग नहीं होती है
-मुहम्मद अहसन
बड़े दिनों बाद आपको पढ़ा...अच्छा लगा...
सुंदर ग़ज़ल ये शेर पसंद आये
प्यार इस शह्र में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
सादर
रचना
खूबसूरत गज़ल है.बधाई
दिल ने तन्हाई के लम्हात चुगे थे दिन भर
और आँखों में मेरी अश्क छुपे थे दिन भर
प्यार इस शह्र में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
mamta kiran
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)