जीवन वैतरणी में चलते हुए
एक दिन
संवेदनाएँ मरने लगीं
भावनाएँ आहत होने लगीं
साथ जो कभी अपना था
बेमानी लगने लगा
ख़ुद अपनी लाश
ढोने से अच्छा है
रास्ता बदल लिया जाए
दो छत्ती से अरमान उतार
बिखरे आत्मसम्मान की पोटली लिए
आशा की पगडण्डी
पर चल निकली
हवा के तीर
राहों में पड़े शब्द
पांव छिलते रहे
पर थामे सूरज का हाथ चलती रही
हजारों उँगलियाँ मेरी ओर थीं
कटाक्ष के बवंडर
आँखों में चुभे
रूह तक नंगा करते रहे
गर्द के गुबार में
खुद को छुपाती में चलती रही
कुलछनी, कुलटा, व्यभिचारिणी
ऐसी संज्ञाओं के पत्थर
मुझ पर बरसते रहे
मेरी घायल अस्मिता
दरद से तड़प उठी
पर स्वयं अपने सहारे
मैं चलती रही
इस पीड़ा में
मधुरता का अहसास लिए
शुभ लक्षण का
मुझमें प्रादुर्भाव हुआ
एक औरत
इन उल्काओं का सामना कर भी ले
पर माँ ..............नहीं
बिखरे जिस्म के टुकडों को समेट
रक्तरंजित पैरों से
स्वाभिमान को कुचलती
स्वयं से स्वयं को हारती
ममता को आगोश में लिए
मैं वापस मुड़ गई।
कवयित्री- रचना श्रीवास्तव
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
औरत के सच को दर्शाती बहुत ही मार्मिक और बडिया रचना है रचना जी को इस रचना के लिये बधाई और आपका आभार्
बहुत ही अच्छा लिखा है,नारी की दशा को दर्शाती कविता
औरते के बारे में सच बयाँ करती रचना
बिखरे आत्मसम्मान की पोटली लिए
आशा की पगडण्डी
पर चल निकली
हवा के तीर
राहों में पड़े शब्द
पांव छिलते रहे
बहुत सुन्दर कविता !
औरत और माँ की आकांक्षाओं मे अन्तर्विरोध दर्शाती
हुई!
आपकी कविता का जो अंत है वही पूरी कविता में जान डाल रहा है और जिस concept पर कविता आधारित है वो बहुत ही अच्छा है. समाज कि कुरीतिओं का भी चित्रण मिलता है.
एक औरत
इन उल्काओं का सामना कर भी ले
पर माँ ..............नहीं
बिखरे जिस्म के टुकडों को समेट
रक्तरंजित पैरों से
स्वाभिमान को कुचलती
स्वयं से स्वयं को हारती
ममता को आगोश में लिए
मैं वापस मुड़ गई।
मुझे कविता की सबसे अहम बात यह लगी कि आपने इसे लगातार कवितामय बनाये रखा. कहीं भी कुछ ऐसा नहीं मिलता जो साधारण शब्दों में लिखा गया हो बल्कि हर चीज़ शायेराना है. देखें
बिखरे आत्मसम्मान की पोटली लिए
आशा की पगडण्डी
पर चल निकली
हवा के तीर
राहों में पड़े शब्द
पांव छिलते रहे
पर थामे सूरज का हाथ चलती रही
हजारों उँगलियाँ मेरी ओर थीं
कटाक्ष के बवंडर
आँखों में चुभे
रूह तक नंगा करते रहे
गर्द के गुबार में
खुद को छुपाती में चलती रही
कुलछनी, कुलटा, व्यभिचारिणी
ऐसी संज्ञाओं के पत्थर
मुझ पर बरसते रहे
मेरी घायल अस्मिता
दरद से तड़प उठी
पहली लाइन में "आत्मसम्मान कि पोटली". यहाँ पर सिर्फ आत्मसम्मान कहने से वो बात नहीं आती जो आपने "आत्मसम्मान कि पोटली" कह कर लादी है. "हवा के तीर", "पर थामे सूरज का हाथ चलती रही", "कटाक्ष के बवंडर", "ऐसी संज्ञाओं के पत्थर" यह कुछ ऐसी ही लाइंस है जिहोने आपकी कविता को लगातार कईपढने पर मजबूर किया. मुझे नहीं लगता कि कही कुछ ऐसा है जो POETIC न हो. इसी तरह आखिर में अस्मिता को जो personify किया है वो खुबसूरत लगा. एक सुन्दर कविता के लिए मुबारकबाद.
आशावादी कविता है सकारात्मक सोच ही आगे बड़ने का कदम है
Rachna ji, naari ki manodasha ka itna sajeev chitran karne ke liye bahut bahut badhai.hamesha ki tarah aapki kavita ka aur heera!!
औरत का दर्द हमेशा से खूब उकेरती हैं आप...
ये रचना भी सदा की तरह सुंदर है...
आप सभी के स्नेह शब्दों का धन्यवाद .फ़राज़ जी आप ने मेरा मन भिगो दिया .
पुनः धन्यवाद
सादर
रचना
सच मैं रचना जी एक औरत एक औरत ही हो तो सब उल्कायों का सामना कर भी ले पर वो सिर्फ औरत ही नहीं है वो मां भी है जिस पर भविष्य आधारित है , बेटी भी है जो मां बाप के सम्मान का बोझ उठाये है, एक बहु भी है जो कुल की मर्यादा है एक बहन है जो भाई का गर्व है. वो सिर्फ औरत ही नहीं है इसलिए बापिस लौट परती है.धन्यवाद रचना जी एक औरत की व्यथा को इतने सुंदर शव्दों में उतारने के लिए.
इस रचना में बहुत ही गहरी महसूसियत को शब्दों में बंधा गया है जो पाठकों के मन पर असर छोड़ती है |
बधाई |
सादर,
एक औरत
इन उल्काओं का सामना कर भी ले
पर माँ ..............नहीं
बिखरे जिस्म के टुकडों को समेट
रक्तरंजित पैरों से
स्वाभिमान को कुचलती
स्वयं से स्वयं को हारती
ममता को आगोश में लिए
मैं वापस मुड़ गई।
aap ki rachna me prateek aur upmayen achhe lageen ..kintu is kavita ka ant bahut hi prabhavshali laga mujhe ..
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
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