तन कंचन मन चंद- वन
मुख से शरमाए दर्पन
थी छोटी सी इक उलझन
घेर लिया है पूरा मन
जब से छोड़ गए साजन
ताना मारे है जोबन
पिंजरे में देखी मुनिया
कैद हुआ खुद हीरामन
ग़म तो दिल में मीठा था
आंख बनी फिर क्यों सावन
कांटो से कैसा शिक्वा
थामा तो मेरा दामन
दिल ही तुझको क्या दूं मैं
तुझपर न्यौछावर जीवन
`श्याम' गोपियों संग गया
ढूंढ रही तू क्या जोगन
12/5/03
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
मित्रो!
कुछ दिन से यहां जेनेवा में हूं २ महीने और रहने का कार्यक्र्म है.मौसम,कुदरत,मनुष्य सभी सुन्दर ,सभ्य हैं/शायद जिसने इसे धरती कास्वर्ग कहा है ठीक ही कहा है-first impression तो यही है सप्ताह भर में
कहीं भीड़ भी है तो भारत ,अमेरिका या यू.के हांगकांग या बैंकाक जैसा उतावला पन लिये नहीं है
डायरी व एक उपन्यास लिख रहा हूं आशा है पूरा होगा तब आपसे साझा करूंगा
बहुत खूब !!
कांटो से कैसा शिक्वा
थामा तो मेरा दामन
बहुत ही बेहतरीन ।
दूर हो तो क्या हुआ ?गजल में तो हो. श्याम सखा जी
बधाई सरल सहज शेली में दिल की बात कही है.
`श्याम' गोपियों संग गया--( जेनेवा....?---)
ढूंढ रही तू क्या जोगन
:)
sunder...!!!!!!!!!
कांटो से कैसा शिक्वा
थामा तो मेरा दामन
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gaharee baat. dairy aur upanyas lekhan ke liye hardik shubhkamnayen.
तन कंचन मन चंद- वन
मुख से शरमाए दर्पन
श्यामजी! सहज भाषा में सुन्दर गज़ल बन पड़ी है
बहुत फिलोस्फिकल है ये शेअर
थी छोटी सी इक उलझन
घेर लिया है पूरा मन
एक अच्छी रचना.
जिनेवा के अनुभवों से पूर्ण आपकी रचनाओं का इंतजार रहेगा
बहुत ही बढिया.....
पिंजरे में देखी मुनिया
कैद हुआ खुद हीरामन
waah bas ...yaad aa gayi teesari kasam ...achhi ghazal hai shayam ji
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