सूरज की तपन से
गर्म हुई मिट्टी पर
पड़ती जब फुहार
आती है सोंधी-सी महक
बीज के भीतर का पेड़
सुगबुगाकर...
निकल पड़ता है आकाश छूने को
पत्तियों पर बनते मानचित्र
देने लगते हैं खजाने का पता
जब इन पत्तियों के ऊपर
‘टप’ से टपकता ‘पसीना’
ऊर्जा के इस विस्फोट से
खेतों में बिखर जाती चांदनी
ऊगने लगता सूरज
फिर भी...
आखिर तक
जान नहीं पाता किसान
कहाँ अस्त हो जाते हैं ये सूरज
न ही जान पाता है कि...
महाजन की बही में लगा
अंगूठा का निशान बड़ा है
या
उसके लहलहाते
फसलों से भरे
खेत का रकबा।
कविताकार- डॉ॰ सुरेश तिवारी
*रक़बा- क्षेत्रफल, अहाता
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
महाजन की बही में लगा
अंगूठा का निशान बड़ा है
या
उसके लहलहाते
फसलों से भरे
खेत का रकबा।
Saskt rachna hai aur pratiko ka prayogh kiya hai.Kisan ki lachari aur mehanat ke fal ka sandesh milta hai.Badhayi.........
Manju Gupta.
यह कविता शुरू तो बहुत अच्छे तरीके से हुई थी और सलीके से आगे बढ़ रही थी, लेकिन लगता है आधी कविता पार कर के कवि उलझ गया कि अब क्या करे और फिर उस ने कविता को समाजियत के पुराने घिसे पिटे ढर्रे पर मोड़ दिया .
उसके लहलहाते
फसलों से भरे
खेत का रकबा।
इस की व्याकरण पूरी तरह गलत है. यह हो गा ,
उस की लहलहाती
फसलों से भरा
खेत का रकबा
कवि ने कविता को गर्मी के बाद की बारिश के साथ शुरू किया ! फिर जब किसान अपने खेतों में फसल की शुरुआत करता है! मुझे शुरू में व्याकरण की ओर ध्यान नहीं गया क्योकि पढने में कुछ अलग नहीं लगा !
kavita nisandeh badiya hain.... par aaj ke parivehs mein fit nahi baithti.....prarabh sakaratmak soch ke saath hota hain aur ant nirashajank.....aaj ka kisaan mahajan jaise nahi balki anya tarah ki samayaon se joojh raha hain
मुझे ये कवित अच्छी लगी किसान के सच को बाखुबी नये अंदाज़ मे ब्यान किया है सुन्दर आभार्
i agree with priya.
महाजन की बही में लगा
अंगूठा का निशान बड़ा है
या
उसके लहलहाते
फसलों से भरे
खेत का रकबा।
गज़ब की कविता. बधाई.
मुझे इस कविता में वे सारी बातें दिखीं जो एक सफ़ल कविता में होनी चाहिए। और रही बात "महाजन" की तो गाँवों में स्थिति कुछ खास नहीं बदली है, जो हाल आजादी से पहले था,अमूमन वही है अभी भी। जिनकी यह शिकायत है कि कविता "सकारात्मक" सोच से शुरू होती है और अंत होते-होते "नकारात्मक" हो जाती है,तो यह कविता को देखने का उनका एक नज़रिया मात्र है। क्या यह कहीं लिखा है कि "दुखांत" कविता की हरेक पंक्ति दु:ख में हीं लिपटी होनी चाहिए। इस कविता को जहाँ तक मैं मैं समझ पाया हूँ, उसके अनुसार "किसान जब अपने फ़सलों को लहलहाता देखता है तो एक माँ की तरह उसमें भी ममत्व के भाव जाग उठते हैं और उसके अंदर खुशी की लहर दौड़ जाती है, लेकिन जब महाजन का कर्ज चुकाने के कारण उसको अपने उन्हीं फ़सलों की बलि देनी होती है तो उसी माँ की तरह वो टूट जाता है,जो मजबूरीवश अपने बच्चे को बेच आई हो।" चूँकि ऐसा समाज में होता है इसलिए हम इस स्थिति को नकार नहीं सकते।
अंत में फिर से सुरेश जी को एक अच्छी और सच्ची कविता लिखने के लिए ढेरों बधाईयाँ।
-विश्व दीपक
अच्छी रचना !
किसान के प्रति एक सच्चा कवि ही कोमल भावनाएं रख सकता है |
कविता का व्याकरण तो सुधर सकता है पर किसान के साथ हो रहे अन्याय को कैसे रोकेंगे ?
(उस की लहलहाती,,)
ही सही शब्द हैं,,,
वैसे कविता अच्छी लगी,,
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