मैं ही तांडव मैं प्रलयंकर, मैं वीणा वादिनी का गायन,
मैं रचना हूँ रचने वाले; करते हैं मेरा पारायण।
मैं ही पर्वत मैं सरिता हूँ, मैं कविता हूँ।
मैं ही कोमलता फूलों की, मैं ही दधीचि का अस्थि वज्र,
मैं सागर की गहराई हूँ, मैं ही विस्तॄत यह नभ निरभ्र |
मैं ही माणिक मैं मुक्ता हूँ ,मैं कविता हूँ।
मैं नियति नटी का नर्तन हूँ , मैं ही प्रतिपल का परिवर्तन,
मेरे अंतस में दावानल, मुझसे ही सारा आलोड़न।
मैं विरत नहीं अनुरक्ता हूँ, मैं कविता हूँ।
मैं ही अबला के हूँ आंसू, मैं ही कृषकों का स्वेद बिन्दु ,
मैं ही शिशु का वह चपल हास्य , मैं ही यौवन की अगम सिन्धु ।
मैं पूर्ण चन्द्र, मैं सविता हूँ , मैं कविता हूँ।
मैं मजदूरिन की कुटिया हूँ , मैं मेहनतकश़ की हूँ रोटी ,
मैं प्रेमगीत प्रेमीजन का, मैं ही सुहाग यामिनी छोटी।
मैं मौन नहीं मैं वक्ता हूँ , मैं कविता हूँ।
मैं क्षमा क्षेम मैं ही क्षमता , मैं महाशक्ति मैं ही ममता ,
मैं सदा व्याप्त हूँ दिग-दिगंत, मुझमें ही जड़ चेतन रमता।
मैं लघुता में ही गुरुता हूँ , मैं कविता हूँ।
मैं ही मंदिर की शंख ध्वनि, मैं ही मस्जि़द की हूँ अजा़न ,
मैं ही ईसा मैं ही नानक, मुझमें ही अंतर्निहित ज्ञान।
मैं वेद मंत्र की शुचिता हूँ , मैं कविता हूँ।
मैं स्वयं परिधि , मैं स्वयं केंद्र, मैं स्वतः सिद्ध मैं ही असाध्य ,
मैं ही पूजा, मैं ही अर्चन, मैं ही आराधन, मैं अराध्य।
मैं कर्म नहीं, मैं कर्ता हूँ ,मैं कविता हूँ।
मैं नव वसंत की मादकता, मैं पावस की रिमझिम फुहार,
मैं शिशिर , शरद की अल्हड़ता, मैं प्राण दायिनी हूँ बयार।
मैं क्रांतिधात्रि हूँ , गीता हूँ, मैं कविता हूँ।
सत्यप्रसन्न
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही अच्छी कविता है । पढ़कर रोमांच आ गया ।
बहुत सुन्दर रचना है | लय में भी है |
बधाई |
अवनीश तिवारी
सत्यप्रसन्न जी!
आपकी इस रचना को पढकर मुझे बड़े हीं गर्व की अनुभूति हो रही है। आपका परिचय पढकर पता चला कि आप मूलत: तेलगुभाषी है, इस तरह "हिंदी" आपकी मातृभाषा नहीं हुई। फिर भी आपने जो लगन दिखाई है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है। आपने मेरे शब्द्कोष में लगभग ४-५ शब्दों की बढोतरी कर दी है। और भाव के क्या कहने! एकदम सटीक!
मैं अपने बाकी कवि-मित्रों से यही कहूँगा कि सत्यप्रसन्न जी ने यह साबित कर दिया है कि हिंदी के विशुद्ध शब्द प्राचीन मानकर त्यागेजाने योग्य नहीं है,इसलिए हमें भी इन शब्दों से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।
आपसे आगे भी ऐसी हीं रचनाओं की उम्मीद रहेगी। इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
bahut hi sundar aur bhav poorn kavita hai.achchha kavya dene ke liye dhanayvaad
बहुत अच्छी रचना,,हिंदी शब्दों का बहुत सुन्दर उपयोग किया आपने..बहुत-बहुत बधाई!!
अत्यंत सुन्दर , लयबद्ध कविता. सुन्दर मधुर शब्दों का प्रयोग
बहुत बधाई
निश्चय ही शब्दों का बेहतरीन संयोजन, और प्रवाह तो अदभुत है ।
ऐसी कवितायें भी लिखी जा रहीं हैं, पढ़ कर संतोष हुआ । आभार ।
Vakayi kavita mein yah sab hota hai.Sundar rachana ke liye badhayi.
Manju Gupta.
Ati Sundar ...
Har verse ki aakhri pankti bahut sundar aur sateek. Bahut achchi rachana.
God bless
RC
सत्यप्रसन्न जी,
आपकी कविता पढ़ कर बहुत प्रसन्नता हुई, बहुत अच्छी कविता लिखी है आपने, और तन्हा जी से सहमत हूँ कि तेलुगु भाषी होकर भी आपने हिंदी में लिखने में जो लगन दिखाई है वो प्रशंसनीय है . बधाई.
प्रिय श्री तन्हा जी,
नमस्कार ।
आपको कविता अच्छी लगी,मेरा सौभाग्य है । धन्यवाद । जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है, मेरा मानना है कि,
" हिन्दी की ही पूजा होवे, हिन्दी का ही हो अर्चन,
हिन्दी का ही स्तवन आचमन, हिन्दी का ही अभिनंदन ।
यही एकता की परिभाषा, यही एक पहचान बने,
हम हिन्दी के,हिन्दी अपनी,एक राष्ट्र,एक प्राण बने ।"
समस्त सुधी पाठकों को रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये पुनः धन्यवाद ।
मैं मजदूरिन की कुटिया हूँ , मैं मेहनतकश़ की हूँ रोटी ,
मैं प्रेमगीत प्रेमीजन का, मैं ही सुहाग यामिनी छोटी।
मैं मौन नहीं मैं वक्ता हूँ , मैं कविता हूँ।
बहुत ही सुन्दर कविता.
कविता की अच्छी व्याख्या है |
मैं मजदूरिन की कुटिया हूँ , मैं मेहनतकश़ की हूँ रोटी ,
मैं प्रेमगीत प्रेमीजन का, मैं ही सुहाग यामिनी छोटी।
मैं मौन नहीं मैं वक्ता हूँ , मैं कविता हूँ।
कविता का कथन !
चाहे किसी भी कोण से मुझे क्यों न देखो ! मुझको दिल के अन्दर ही पाओगे |
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