पीड़ा की गठरी
तारों की नोक पर टंगी थी
बेवफा बादल ने
उस को गला के
मुझपे ही बरसा दिया
आत्मा में
चुभे तुम्हारे शब्द मुस्कुरा दिए
मेरे आस-पास
दर्द की अमर बेलें उगने लगीं
मुझको मुझसे ही नोच
अलग करने लगी
फफोलों से रिसता मेरा वजूद
चीखता रहा
रात देहरी पर
रोती रही
माँ की दुआएं
खटखटाती रहीं
सारी रात दर मेरा
पर एक झिर्री भी न मिली
अंदर आने को
मेरा सच
मेरे पांव में चुभता रहा
दर्द की धारा
जमीं रंगती रही
मैं खुद अपनी लाश
गोदी में लिए सिसकती रही
सुबह धरती ओस से भर गई
कवयित्री- रचना श्रीवास्तव
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरा सच
मेरे पांव में चुभता रहा
दर्द की धारा
जमीं रंगती रही
मैं खुद अपनी लाश
गोदी में लिए सिसकती रही
सुबह धरती ओस से भर गई
रचना जी सुन्दर कविता के लिए बधाई. आपने बहुत ही फिलोस्फिकल अंदाज़ में कही कविता.
मेरा सच
मेरे पांव में चुभता रहा
दर्द की धारा
जमीं रंगती रही
मैं खुद अपनी लाश
गोदी में लिए सिसकती रही
सुबह धरती ओस से भर गई
रचना जी इतनी दर्दीली, भावुक व दार्शनिक अभिव्यक्ति के लिये बधाई.
रचनाजी, इस दर्द भरी भावुक अभिव्यक्ति के पीछे शायद यही राज होगा |
"आत्मा में
चुभे तुम्हारे शब्द मुस्कुरा दिए"
अच्छी दार्शनिक अंदाज भरी रचना |
बधाई !
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
पीडा की सुन्दर अभिव्यक्ति , खुद अपनी लाश , क्या वो अरमानों की लाश है ?
ऐसे ही सवालों को जन्म देती , दुःख के किनारों को छूती ......
बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में दर्द का इज़हार . मुबारक हो
मुहम्मद अहसन
एक भी शब्द तो ऐसा नहीं लिखा की जिसे इग्नोर किया जा सके,,,,
या एक भी शब्द ज्यादा हो,,,kamaal की kavitaa taraashee है rachnaa जी आपने,,,
दर्द की अमर बेलें उगने लगीं
इन amar belon का मतलब तो आप जानती ही होंगी,,,
बहुत सुंदर बयान किया है आपने,,,
आप वाकई उस्ताद हैं...
आत्मा में
चुभे तुम्हारे शब्द मुस्कुरा दिए
मेरे आस-पास
दर्द की अमर बेलें उगने लगीं
मुझको मुझसे ही नोच
अलग करने लगी
फफोलों से रिसता मेरा वजूद
चीखता रहा
रात देहरी पर
रोती रही
माँ की दुआएं
खटखटाती रहीं
kya dard hai ????????
behtareen
niyaahati khoobsurat man ko bechain kar dene wali nazm kahi hai aapne..
ek lambe arse ke baad Amrita preetam ji ki yaad dila di kisi rachna ne, bahut bahut badhai
माँ की दुआएं
खटखटाती रहीं
सारी रात दर मेरा
पर एक झिर्री भी न मिली
अंदर आने को
मेरा सच
मेरे पांव में चुभता रहा
दर्द की धारा
जमीं रंगती रही
मैं खुद अपनी लाश
गोदी में लिए सिसकती रही
सुबह धरती ओस से भर गई
बेहतरीन प्रस्तुति ।
कविता की शुरूआत में
"पीड़ा की गठरी
तारों की नोक पर टंगी थी" के बहाने "तारों" का जिक्र
और अंत में
"सुबह धरती ओस से भर गई" के सहारे "ओस" की बातें..कविता को एक अलग हीं दुनिया में ले जा रही हैं।
बीच की हरेक पंक्ति से दर्द छलक रहा है और यही कविता की सार्थकता भी है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
आप सभी के इन्ही स्नेह शब्दों ने मुझे कुछ लिखने के लायक बनाया है ये स्नेह ही मेरी पूंजी है आशा है मेरा ये खजाना सदा बढेगा कभी कम न होगा .
आप सभी का धन्यवाद
रचना
फफोलों से रिसता मेरा वजूद
चीखता रहा
रात देहरी पर
रोती रही
माँ की दुआएं
खटखटाती रहीं
सारी रात दर मेरा
पर एक झिर्री भी न मिली
अंदर आने को
Amazing !!!
आत्मा में
चुभे तुम्हारे शब्द मुस्कुरा दिए
मेरे आस-पास
दर्द की अमर बेलें उगने लगीं
*
बहुत ही प्रभावशाली रचना,
सहज प्रवाही | मन तक पहुंची |
सादर,
मेरा सच
मेरे पांव में चुभता रहा
दर्द की धारा
जमीं रंगती रही
मैं खुद अपनी लाश
गोदी में लिए सिसकती रही
सुबह धरती ओस से भर गई
......प्रभावशाली रचना
Shishak sarthak rachana ke liye
badhayii.
रचना जी सुन्दर कविता..भावुक व दार्शनिक अभिव्यक्ति के लिए बधाई
"दर्द की अमर बेलें उगने लगीं"
"सुबह धरती ओस से भर गई"
जैसे साकार हो उठे.
अफसोस कि मैंने "पीड़ा की गठरी" बहुत देर से पढ़ी इतनी जीवंत प्रस्तुति के लिए धन्यवाद्. भावनानाएं यूँ ही छलकती रहें - शुभकामनाएं
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राकेश कौशिक
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