वो जो एक कमरा था बित्ते भर का,
और हम-तुम भी थे इत्ते भर के..
बंद कमरे में हंसी देर तलक,
चुप-सी दीवारें भी सुनती ही रहीं.....
एक मैं था कि तेरे कहने पर,
शाम तक गाता रहा खुश होकर,
तुम किसी बुत की तरह सुनती रहीं,
लफ्ज़ों के बीच सांसों के मानी....
वक्त ने पढ़ लिए थे छुप-छुप कर,
एक ख़त था जो तुम्हारी खातिर,
फिर हवाओं ने भी चुगली की थी,
मेरा सब लुट गया था, तुम चुप थे...
याद है एक सुबह बस का सफ़र,
फिर हवाओं ने साज़िश की थी,
पूरी कायनात मेरे बस में थी,
तुमने कांधे पे सर रखा था जब...
वो सहेली कि जिसकी खातिर,
मेरे जज़्बात रोज़ क़त्ल हुए,
मुझसे हंस-हंस के अब भी कहती है,
सबकी किस्मत में नहीं होते ख़ुदा,
एक वो दिन की मछलियों का शहर,
मुझपे कहर जैसा टूट कर बरसा,
इस क़दर तुम नज़र से गिरते रहे,
बह गया आंसुओं में सारा शहर....
आज हाथों में आईना लेकर,
ख़ुद को पहचानने की कोशिश है,
नया चेहरा है, नये मंज़र हैं,
तुम नहीं हो कहीं भी, दूर तलक...
पुरानी यादों के कैनवास से,
एक-एक कर मिटा दिए सब रंग,
23 जून..
बस यही तारीख़ है कि मिटती नहीं,
मेरी जां लेगी देखना इक दिन............
निखिल आनंद गिरि
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
23 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज हाथों में आईना लेकर,
ख़ुद को पहचानने की कोशिश है,
अच्छा भाव संप्रेषण। सुन्दर रचना।
निहारता हूँ मैं खुद को जब भी, तेरा ही चेहरा उभर के आता।
ये आईने की खुली बगावत, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आज बहुत दिन बाद यहां आना हुआ और निखिल की बढिया कविता पढने को मिली.
बधाई!!
sahi baat hai sabki kisammta me khudaa nahi hote
bahut hi badhiya...........bhawo ki abhiwyakti
इस रचना में बहुत हीं गहरा दर्द जान पड़ता है। कुछ ऐसी अनहोनी हुई है, जिसने कवि को अपने दिल के घाव दिखाने पर विवश कर दिया है। काश आगे से ऐसा न हो! आमीन!
वैसे रचना अच्छी है। एक नया प्रयोग है... तुकांत और अतुकांत कविताओं के बीच की एक कविता।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
पर्सनल महत्व की लगती है ये रचना। बहुत दिल से लिखा गया हर एक शब्द
nikhil bhaai,
kisi premika ka dil lagwa liya hai kya ????????
dil se nikli dil me utarti hai ye kavita .bahut kuch likhna chaah rahe the par roman me to hargij nahi ,isliye jaldi hi doosra comment bhi likhne aayenge ,
वो सहेली कि जिसकी खातिर,
मेरे जज़्बात रोज़ क़त्ल हुए,
मुझसे हंस-हंस के अब भी कहती है,
सबकी किस्मत में नहीं होते ख़ुदा,
peeda ko prakhar abhivyakti dee hai aapne....
Bahut hi bhavpoorn sundar rachna hai...
padhne mein kaafi achchhi , maadhurya puurn lagi kintu kaafi abstract bhi hai.
baherhaal bahut badhaai
उम्दा सृजन
क्या कहूं....
ओह god,,,,,!!!!!!!!
आज तो कहर ही dha दिए हो भाई....बड़ा ही ग़मगीन सा लुत्फ़ उठाया है....दोबारा भी पढने आयेंगे.... एक बार से मन नहीं भरा....
निखिल जी
इस कविता में जितना कहा गया है उस से ज्यादा छिपा हुआ है एसा लगता है मुझे
दर्द कितना गहरा है पता चलता है ये दर्द ख़त्म जो जाये यही प्रार्थना है
आप ने बहुत सुंदर लिखा है
बधाई
रचना
आज हाथों में आईना लेकर,
ख़ुद को पहचानने की कोशिश है,
नया चेहरा है, नये मंज़र हैं,
तुम नहीं हो कहीं भी, दूर तलक...
वास्तविक रचना |
अपने जख्म सर्वजनिक करना बड़े कलेजे का काम है |
बहुत-बहुत बधाई |
सादर अम्बरीष श्रीवास्तव
निखिल भाई...
बहुत दिनों बाद आपकी कलम को पढ़ने को मिला...
याद है एक सुबह बस का सफ़र,
फिर हवाओं ने साज़िश की थी,
पूरी कायनात मेरे बस में थी,
तुमने कांधे पे सर रखा था जब...
ये पंक्तियाँ...बस..क्या बात है!!! वाह!!.. और कुछ कहते नहीं बन रहा है....
एक मैं था कि तेरे कहने पर,
शाम तक गाता रहा खुश होकर,
तुम किसी बुत की तरह सुनती रहीं,
लफ्ज़ों के बीच सांसों के मानी....
वो सहेली कि जिसकी खातिर,
मेरे जज़्बात रोज़ क़त्ल हुए,
मुझसे हंस-हंस के अब भी कहती है,
सबकी किस्मत में नहीं होते ख़ुदा
आज हाथों में आईना लेकर,
ख़ुद को पहचानने की कोशिश है,
नया चेहरा है, नये मंज़र हैं,
तुम नहीं हो कहीं भी, दूर तलक...
बस यही तारीख़ है कि मिटती नहीं,
मेरी जां लेगी देखना इक दिन............
{तू नहीं मै हूँ ,मै नहीं तू है अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे अपनी अपनी जुबान है प्यारे }
बहोत खूब ,बहोत उम्दा जितनी तारीफ़ करें कम ही होगी
सच ज़बा पे आ ही जाती है... वो बस का सफर और कांधे जिस पर किसी ने सर रखा था ... सच सब के किस्मत में न ही खोदा ही है और न वो सर...
23 जून और वो मिट्ठाई मुझे याद रहे गी...
इत्ते और बित्ते भर के लिए धन्यवाद
याद है एक सुबह बस का सफ़र,
फिर हवाओं ने साज़िश की थी,
पूरी कायनात मेरे बस में थी,
तुमने कांधे पे सर रखा था जब...
गहरे भावों के साथ बेहतरीन प्रस्तुति, जिसके लिये बधाई ।
याद तो ३ दिन पहले भी थी ,,पर हिम्मत ना हुयी लिखने की,,,,
आज लिख रहा हूँ,,दो लाईने जो २२-२४ साल पहले लिखी thi ठीक से याद नहीं कब,,,,,पर एकदम पहले बार,,, लिखी थीं....
तारीख याद है,,, १८ अप्रैल थी,,
क्यूं अलविदा तू ऐसे मुझे कह गया ऐ दोस्त,
जैसे के गुजरे साल न आते हैं लौटकर
ये साल भी भुला न सकेगा तेरा ख्याल
आती रहेगी याद तेरी, लौट-लौट कर,,,
और उसके बाद सन २००२ तक कुछ नहीं लिखा गया,,,,,,जब तक किसी और का ये अंजाम नहीं देखने को मिला,,,,
खैर,,,
क्या कहूं मनु जी...
पुरानी यादों के कैनवास से,
एक-एक कर मिटा दिए सब रंग,
23 जून..
बस यही तारीख़ है कि मिटती नहीं,
मेरी जां लेगी देखना इक दिन............
बहुत ही उम्दा लिखा है.
Sashakat kavita hai.
Badhayi.
आज हाथों में आईना लेकर,
ख़ुद को पहचानने की कोशिश है,
नया चेहरा है, नये मंज़र हैं,
तुम नहीं हो कहीं भी, दूर तलक...
अच्छा भाव...सुन्दर रचना।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)