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थी वो हकीक़त या खाब था वो, जो शब खुदा ने लिखा जबीं* पे
मिले जो कितने हंसीं हो रहबर, ये दिल के आए फकत तुम्हीं पे
है राज़ उसकी मुहब्बतों में, है प्यार हमसे, गिला हमीं से
सिला ज़माने की नफरतों का फिराक़ बनकर गिरा हमीं पे
ना हो यकीं या हो रश्क* सबको, है पाया ऐसा नसीबा हमने
के हमने देखा है हुस्न उसका, पिघल के बादल गिरे ज़मीं पे
जुनूं-ओ-हालात इश्क़ के न हैं बदले बरसों हुए बिछड़ के
हो जश्ने-उल्फत या दर्दे-ग़म हो, कहीं पे चुनरी है हम कहीं पे
सिखा अदब, बारिशों के बादल, बरसने का ग़म के बादलों को
ये क्या के यादों के सुर्ख बादल उठे जहाँ से गिरे वहीं पे
१२१२.२ X 4
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जबीं= माथा, रश्क=जलन
_RC_
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
this is really great shaaeri.
-ahsan
smells 'jigar' moradabadi.
That's a huuuge compliment for me, 'Jigar' is one of my most admired Poets!
"Ye gumaan hai ke haqeeqatan koi aur tere siva nahin", this is one of my most favorite misraas of Jigar.
I dont know how to thank you!
RC
आर सी जी,
शायद आज मांग लो तो चाँद जमीं पर उतर आये
अहसन किसी पीठ ठोंक दे ऐसा होते नही देखा
अब कुछ और लिखे जाने की जरूरत मैं नही समझता और लिख भी नही रहा हूँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
bahut khub likha hai kahane ko alfaz nahi hai.....
मुकेश तिवारी जी ,
इतना बड़ा इल्ज़ाम तो न लगाइए. बात सिर्फ इतनी है कि
साकी यक़ीन कर , अजीज़ है तेर मैखाने कि हर शराब मुझे
बात सिर्फ़ इतनी कि यारों का ज़ोक़ ही जुदागाना है ज़रा
-अहसन
trying to correct a spelling mistake (typo )
मुकेश तिवारी जी ,
इतना बड़ा इल्ज़ाम तो न लगाइए. बात सिर्फ इतनी है कि
साकी यक़ीन कर , अजीज़ है तेर मैखाने की हर शराब मुझे
बात सिर्फ़ इतनी कि यारों का ज़ोक़ ही जुदागाना है ज़रा
-अहसन
अहसन जी,
मैं तो आर सी जी की किस्मत को सराह रहा था, इल्जाम और आप पर? तौबा, तौबा...
Ek se ek badkar sher hai.Vaha!!!!!!
gazal!!!!.
Manju Gupta
ना हो यकीं या हो रश्क* सबको, है पाया ऐसा नसीबा हमने
के हमने देखा है हुस्न उसका, पिघल के बादल गिरे ज़मीं पे
क्या बात है पिघल के बादल गिरे जमीं पे रूप का एसा चित्रण हम ने नहीं पढ़ा .
पूरी ग़ज़ल ही सुंदर है
रचना
ना हो यकीं या हो रश्क* सबको, है पाया ऐसा नसीबा हमने
के हमने देखा है हुस्न उसका, पिघल के बादल गिरे ज़मीं पे
ग़ज़ल की जितनी तारीफ की जाए कम है. बहुत ही खुबसूरत अल्फाज़ हैं.
गर आप रूपं चौपडा है. तो मैंने पहले आपको पढ़ रखा है.
क्या बात है आर. सी. जी,
ये जो भी बहर हो ,,पर है बड़ी ही प्यारी,,,,
पढने के सही उतार-चाढाव का पूरा लुत्फ़ उठाया है हमने तो,,,,,
सभी शे'र खूबसूरत हैं,,, कहा जाए तो
एक से बढ़ कर एक,,, नेट प्रॉब्लम के कारण लेट हो गया इसका लुत्फ़ उठा ने से,,,
ahsan ji ,,
mukesh ji,,
kyaa maje ki baat hai
hamein aap dono hi apni jagah sahi lag rahe hain,,,
विगत पाँच-छः दिनों से मन की हालत कुछ ठीक नहीं थी...तो अब आया पाया हूँ इस अद्भुत ग़ज़ल को पढ़ने। आह...! मुक्कमल ग़ज़ल। अमीर खुसरो की वो विख्यात ग़ज़ल "जिहाले मिश्किन..." के धुन की याद दिलाती हुई बहर और उस नज़ाकत के दौर की याद दिलाते हुये तमाम अशआर, जो अब की ग़ज़लों में दिखते नहीं।
सुभानल्लाह...!!!
"कि हमने देखा है हुस्न उसका, पिघल के बादल गिरे ज़मीं पे"--इस मिस्रे को तो जी चाह रहा है चुरा लूँ। इक शायरा कहे ये बात और वो भी इतनी अदा से, कैसे गँवारा करे मन मेरा।..और यही खूबसूरती आपकी इस ग़ज़ल को ऊँचाइयों पर ले जाती है रूपम जी।
और फिर पाँचवां शेर का मिस्रा उला जब सानी से आकर मिलता है तो उफ़्फ़्फ़..!"ये क्या के यादों के सुर्ख बादल उठे जहाँ से गिरे वहीं पे"-ये तो उस्तादों वाले अंदाज़ हैं, मैम!
just superb!!!!!!!!
Aap sab ne waqt nikal kar keemati tippani di, aap sab ka bahut bahut shukriya, ..!
RC
हकीकत या ख्वाब ?
है राज़ उसकी मुहब्बतों में, है प्यार हमसे, गिला हमीं से
सिला ज़माने की नफरतों का फिराक़ बनकर गिरा हमीं पे
अच्छी रचना !
बधाई |
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