मैं,
जब सीख रहा था
अपने कदमों को जमाना
धरती के सीने पर
तब मेरे पास
अपने पैर थे धरती से जुड़े हुये /
अपना अनुभव था /
अपने विचार थे
कोई,
ठोकर सिखाती थी
एक सबक टीस के साथ
कोई कांटा जब चुभता था
तो छोड़ जाता था अनुभव
अपने पीछे
ज्ञान को,
पैरों के तलुओं में जमा कर लेते थे
छाले
वक्त,
के साथ मैनें सीख लिया
अपने पैरों को जमाना
और चढना बुलंदियों की ओर
अनुभव की उंगलियाँ थाम कर
तब भी मेरा नाता
ज़मीन से जुड़ा हुआ था
मैं,
महसूस करता था
हवा को मेरे चेहरे पर स्पर्श करते
एक इंसान की तरह
ऊँचाईयों ,
ने धीरे-धीरे मेरे पैरों को
बदल दिया पंखों में
अब मुझे अच्छा लगने लगा
हवा में तैरना /
हवा में ही गोते लगाना
और फिर लौट आना अपनी जगह पर
बिना थके हुये
मैं,
कटने लगा ज़मीन से
अब मुझे ज़मीन से जुड़े आदमी
अच्छे नही लगते थे
पसीने की बू आती है
उनके पास से
मुझे,
कुछ दिन तो अच्छा लगा
एकदम विशिष्ट हो जाना
ज़मीन पर रेंगते आम इंसानों से अलहदा
फिर कोफ्त होने लगी
आसमान में टंगे हुये
जहां दिन में सूरज
नाप लेता था मेरी औकात को
और रात में तारे बंधाते थे हौंसला
कुछ देर को ही सही
आसमान तुम्हारी मुट्ठी में आयेगा जरूर
मैंने पाया
मेरे हाथ हवा में विलीन हो रहे थे
आसमान रच रहा था
मेरे खिलाफ कोई साजिश
मुझे,
घुटन होने लगी है
इन ऊँचाईयों पर
पंखों की बैशाखियों से
अनुभव पराया सा लगने लगा है
ऐसा लगता है कि
जैसे कि
मुझे फिर से
शुरूआत करनी है
वही सब सीखने की
ज़मीन से जुड़ने की
हे, प्रभु
मेरे पंखों को फिर से बदल दो
पैरों में
मेरे अपने पैरों में
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-मई-२००९ / समय : ११:३४ रात्रि / घर
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुझे,
घुटन होने लगी है
इन ऊँचाईयों पर
पंखों की बैशाखियों से
अनुभव पराया सा लगने लगा है
ऐसा लगता है कि
जैसे कि
मुझे फिर से
शुरूआत करनी है
वही सब सीखने की
ज़मीन से जुड़ने की
हे, प्रभु
मेरे पंखों को फिर से बदल दो
.......
इसे कहते हैं गहन अनुभव और उससे उत्पन्न विचार......
बहुत ही सशक्त और प्रभावशाली
ऊंचाई पर उड़ते हुए भी बहुत गहराई से भावों को समेट...बहुत अच्छी रचना अच्छे विचार के साथ,बहुत-बहुत बधाई!!
मुझे,
घुटन होने लगी है
इन ऊँचाईयों पर
पंखों की बैशाखियों से
अनुभव पराया सा लगने लगा है
ऐसा लगता है कि
जैसे कि
मुझे फिर से
शुरूआत करनी है
वही सब सीखने की
ज़मीन से जुड़ने की
हे, प्रभु
मेरे पंखों को फिर से बदल दो
पैरों में
मेरे अपने पैरों में
मुकेश जी आपकी कविता यथार्थ चित्रण कर रही है. वास्तविकता यही है, हम आकाश की चाह मे जमीन को खोते जा रहे है. इण्टरनेट व ब्लोगिन्ग पुस्तको पर हावी हो रही है, वैयक्तिक स्वतन्त्रता की लडाई परिवार,समाज व संस्कृति को कमजोर कर रही है. आपने सही नब्ज पकडी है. धन्यवाद.
Uchaieya prapt kerne ke bad bhi jamiin se judane ko berkrar rakne ki kosis safalta kodarshati hai.Jis mei dard,karuna ke anubhav hai.
saral, sahaj bhasha mai kavita marmik ban gayie.
Manju Gupta.
मुकेश जी
कविता के शब्द ,भाव और काव्य सौन्दय सभी कुछ बहुत उच्च कोटि का है .सच में जमीं से जुड़े लोग सुख से रहते हैं असमान एक समय बाद अच्छा नही लगता .कभी कभी सोचती हूँ की ये जो लोग सितारे होते है यदि घमंड न करें जमीं से जुड़े रहें तो ज्यादा सम्मान पाएंगे
बहुत सुंदर कविता
सादर
रचना
बहुत ही सुंदर कविता...
नहीं, महज तारीफ़ करने की रस्म-अदायेगी के लिये नहीं कह रहा।
शब्द, भाव और लिखने का अंदाज़ सब कुछ एक लय होकर जब पाठक तक कवि अपनी कविता के मार्फत पहुँच जाता है, तो सही मायने में कविता हो जाती है...फिर वो बेशक छंद में हो या छंद से परे।
पूरी कविता में सारे उतार-चढ़ाव को जिस खूबसूरती से मुकेश जी ने शब्दों में बाँधा है वो देखते ही बनता है।
कविता का अंतिम स्टेंजा नहीं भी लिखते तो काम चल जाता शायद। कविता को परिणामोन्नमुख करने से बचना चाहिए। मुझे इस कविता में क्राफ्ट और कंटेंट दोनों बहुत बार पढ़ा लगा। अपने अनुभवों के कुछ नये सिरे खोलें जिससे हम पाठकों को भी नया तजुर्बा मिले।
मैं,
जब सीख रहा था
अपने कदमों को जमाना
धरती के सीने पर
तब मेरे पास
अपने पैर थे धरती से जुड़े हुये /
अपना अनुभव था /
अपने विचार थे
कोई,
ठोकर सिखाती थी
एक सबक टीस के साथ
कोई कांटा जब चुभता था
तो छोड़ जाता था अनुभव
अपने पीछे
ज्ञान को,
पैरों के तलुओं में जमा कर लेते थे
छाले
अध्बुत और अनुपम कविता.
ऐसा लगता है कि
जैसे कि
मुझे फिर से
शुरूआत करनी है
वही सब सीखने की
ज़मीन से जुड़ने की
हे, प्रभु
मेरे पंखों को फिर से बदल दो
पैरों में
मेरे अपने पैरों में
शाबाश यूनिकवि !
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