हम यूनिकवि प्रतियोगिता के मार्च २००९ अंक की दूसरी कविता की ओर बढ़ रहे हैं। इस कविता के रचनाकार मुकेश कुमार तिवारी का हमारे मंच से पहला नाता है। कवि का जन्म इंदौर (म॰प्र॰) के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ, जहाँ ज़रुरतें जेब से बड़ी और समझदारी उम्र से ज्यादा बड़ी होती है और उस पर चार भाई-बहनों में सबसे बड़ा होने के नाते कुछ ज्यादा ही समझदारी का बोझ ढोते जवान हो गये। कवि ने करीब से जिन्दगी के लगभग सभी रंगों में देखा, जहाँ अभावों ने सदा हौसला बढाया कि हासिल करने को और भी मुकाम हैं सा सबक हर कदम पर याद रहा। कविता इन्हें लगातार उर्जा देती है और अपनी मुश्किलों से जूझने का हौसला भी। बी.एस.सी., बी.ई.(मेकेनिकल), ए.आई.सी.डब्ल्यू.ए.(इण्टर) इत्यादि की शिक्षा प्राप्त मुकेश फिलहाल काईनेटिक मोटर कम्पनी लिमिटेड में असिस्टेंट जनरल मैनेजर (परचेस) कार्यरत हैं। इनकी रचनाएँ साहित्य-कुंज, स्वर्गविभा इत्यादि अंतरजालीय पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हैं।
पुरस्कृत कविता- चिड़िया, हमारे घर आती थी कभी
बचपन,
मेरे लिये नित नये कौतुहल लाता था
एक दिन हमारे आंगन में
आ बैठी चिड़िया
फुदकती, चहचहाती दाना चुगती
और फुर्र हो जाती
यह मेरे लिये नया कौतुक था
एक दिन
चिड़िया ने मुझे सौगात में सौंपी
एक फुद्दी (पंख की पूर्वावस्था)
जैसे मेरे दिन हवा हो गये
मुझे अच्छा लगने लगा
दिन भर दौड़ लगाना पंख के पीछे
पत्थर के साथ उछालना और
फिर पकड़ने कि लिये दूर तक दौड़ना
गर्दन ऊपर किये हुये
मैंने सीखा घर से निकलना बाहर अकेले
मुझे,
लुभाता था
आसमान में टंगा इन्द्रधनुष
फिर
मैने रंग पैदा किये आस-पास से
सीखा पंख को रंगना
अपने सपनों में रंग भरना
पंख बदलने लगे
मेरे लिये कलम में
या टैग की तरह सजने लगे
मेरी किताबों में
चिड़िया अब मुझे पहचानने लगी थी
चिड़िया,
मेरे आंगन से निकलकर
आने लगी कमरें के भीतर
कभी रोशनदान से या
कभी मुंड़ेर पर चहलकदमी करते
फिर नापती मेरे कमरे का जुगराफ़िया उड़ते हुये
बिखेर जाती कुछ तिनकें/ कुछ पंख
मैंने जमा किये उसके बिखेरे हुये तिनकें
जैसे मैं चाहता था एक कोना
अपने कमरे में उसके लिये
और सीखा एक अदद घर बनाना
अब,
कोई चिड़िया नहीं आती मेरे घर
ना कोई गाता है गीत आंगन में किसी के आने पर
अरसा हो गया उसे देखे
मेरे बच्चों ने शायद ही कभी देखी हो
कोई चिड़िया लाइव
चहचहाती हुई / दाना चुगती हुई /
पंख भिगोकर नहाती हुई
हाँ उनका डेस्कटॉप जरूर सजा रहता है
किसी वर्चुअल अजनबी सी चिड़िया से
जिसे मैं तो नहीं जानता कम से कम
मैं,
अब भी जाता हूँ दूर जंगलों में
जब वक्त मिलता है
जहाँ कोई गाता है गीत दोपहर में
बिखेर आता हूँ दाने
अपने साथ लिये आता हूँ
कुछ तिनकें और कुछ पंख
और सहेज लेता हूँ कि
दिखा सकूँगा अपने पोतों को
कि चिड़िया होती है
कभी हमारे घर भी आती थी
प्रथम चरण मिला स्थान- पाँचवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- दूसरा
पुरस्कार- हिजड़ों पर केंद्रित रुथ लोर मलॉय द्वारा लिखित प्रसिद्ध पुस्तक 'Hijaras:: Who We Are' के अनुवाद 'हिजड़े:: कौन हैं हम?' (लेखिका अनीता रवि द्वारा अनूदित) की एक प्रति।
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
very good
& very good blog...
ITS REALY SENSITIVE.
I HAVE NOT SEEN SPARROW SINCE LONG TIME IN THE LOCALITY WHERE I LIVE IN NAGPUR.
I AM STILL LOOKING FOR EVEN A SINGLE ONE.
---AJIT PAL SINGH DAIA
मुकेश जी... मार्मिक कविता है.. चिड़िया तो बचपन में ही देखी थी..कईं साल बीत गये..
अभी हाल ही में एक अखबार में चिड़िया के लुप्त होने के बारे में पड़ा.. दरअसल शहर को कंक्रीट के जंगलों बदल देने से चिड़ियाओं की संख्या घटने लगी.. और यही कारण है कि वे अब शहरों से लुप्त हो चुकी हैं... कमोबेश यही हाल आपको तितली का भी मिलेगा.. पिछले वर्ष के लेख लिखा था..यदि समय मिले तो पढ़ियेगा..
http://tapansharma.blogspot.com/2008/06/blog-post.html
दिल को छू लेने वाली कविता के लिये धन्यवाद... काश हम चिड़िया को बचा पाते!!!
मर्मस्पर्शी रचना..
बहुत बढिया रचना ..
यह सच है। मैं दिल्ली में रहता हूँ। दो कमरे का घर है। कोई चिड़िया कभी नहीं आई। हाँ, चूँकि गाँव का हूँ इसलिए अतीत में चिड़ियों से दोस्ती रही है, उन्हें डेस्कटॉप पर सजाकर याद करता रहता हूँ।
bachpan aur chidiyaa...ehsaason ka sanyojan
परिवेश के प्रति संवेदनशीलता उकेरती अच्छी कविता
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