ब्रज की होरी का आनंद, उसमें छुपी ब्रज की संस्कृति, जो आज भी युगों से राधा-कृष्ण के निश्छल प्रेम की अनुपम सौगात है। उसी होली को समर्पित छंदात्मक शैली में गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' की यह मौलिक रचना आप सभी के लिए प्रस्तुत है। सभी लोगों ने इस शैली की कविताएँ अपने पाठ्यक्रम में पढ़ी होंगी, फिर भी यदि किसी शब्द, किसी छंद का भावार्थ न समझ में आये तो टिप्पणी में पूछ लें, आकुल समाधान लेकर हाज़िर रहेंगे।
भोर भई खग नीड़ सूं छूटे
भयो कलरव कहीं टेर सुनायो.
होरि है आज भई सिहरन
अंग-अंग पुलकित मन-मन लहरायो. (1)
मन सौं न हटै, दृगअन में बसै
मनमोहिनी सूरत श्याम दुलारे.
कब कौन घड़ी पट थाप पड़ै
नहीं सूझ पड़ै, नहीं काज संवारे. (2)
बरजोरी करेंगी सखिअन सब
कहनो ही पड़ैगो बात बनाहि्.
पहलो रंग श्याम पड़ै अंग-अंग
यही श्याम सौं, होरि पे सौंह है खाहि.(3)
सब काज धरे, कल नाहीं पड़ै
कछु आहट पे दृग द्वारहि जाहि.
ओट सूं देखि, न श्याम हते
नहीं सखिअन टोली, सबै भरमाहि. (4)
देर भई कहीं बात न जाय
नाहिं सखिअन गईं, नाहि सखिअन आहि.
कहीं कोइ सखि आय तो, भेजूं संदेश मैं
श्याम कूं, कि कैसेहि, लाय बुलाहि. (5)
पहलो पग आंगन भी न पड्यो
रंग-रंग सौं भर्यो, जाहिं देखो सब ताहिं.
मातु, जनक हरसे मोहि देख के
का न खेलुं, सखिअन संग जाहि. (6)
कोई है पत्यो, ये अंग है रच्यो
रंग मन में बस्यो, बस तन है बच्यो.
बस एक बेर नैनन से रंगूं
नैनन से कहूं, हिय जाय खिंच्यो.(7)
सैं भोर कहि, आवन रसिया
रंग रसिक शिरोमणि, अजहूं न आये.
अब धूप चुभे, कल नाहिं छुपे
थके नैन बिकल, कहूं आये न आये.(8)
आई टोलि सखिन, बरजोरि करी
मैं नायं करी, सौंह याद कराहि.
जाओ सखि कहो, ब्रजसुंदर सौं
कैसेहि पिंड, छुड़ावन आहि.(9)
चल बृषभानुजा, खेलहि होरि
चढ्यो दिन कब तक, बाट निहारहि.
नाहि पड़ी निर्मोहि श्यामहि
ज्यों तू टक-टक, नैन निहारहि.(10)
ज्यों ‘आकुल’ मैं, श्यामहि ‘आकुल’
होंगे सखि कछु और निहारहि.
जाओ तुमहि, भजि कै दैखो
सखि श्याम तो नाहिं फंसे, कित माहि.(11)
ललिता सखिअन, सब कूं सौं है जो
एक भी बूंद, कै रंग लगाहि.
सौं लीनी मैं, रंग रसिया सूं
पहल करूं फिर, गाम समाहि.(12)
होरि है, होरि है तान पड़ी
कानन सखिअन सब, चीस के नाहि.
देख गवाख मुंडेरन द्वारहि
शयाम को टोला तो, आवहि नाहि.(13)
झांई पड़ी, जो अबीर छटी
घनश्याम घिरे, ब्रजबासिन माहि.
राह बने नहिं, घिरि-घिरि सब जन
पोतहि रंग-बिरंगे श्यामहि.(14)
टीस पड़ी सखि कौनहु अंग
बच्यो बे रंग कैं, रंग समाहि.
जा सखि बोल, बचा मैं राख्यो
हिय ‘आकुल’ पर, अब कब ताहिं.(15)
देख बिकल, नैनन अंसुअन, सखि
दौड़ि सबै पट, खोल किवारहि.
भागि ज्यूं पवन चले, बरखा ऋतु
टीस सूं भर हिय, कौन दिशा रहि.(16)
बेग सूं टोला, भर्यो सखिअन
सब ब्रजबासिन के बीच में जाहि.
कैसो सिंगार रच्यो है निसर्ग कि
ग्वाल बाल सब, सखिअन माहि.(17)
सखिअन पोति, ग्वाल लिपटाहि सब
ग्वाल के होश है, राखि बिगाड़हि.
श्यामहि राह करी, करि सैन सूं
बात कहि, कोउ बाट निहारहि.(18)
रंगरेली रंग देखि के कामत
आन पड़े सब, बीचन माहि.
श्याम चले ढक पीताम्बर
इक ग्वाल के माथे पे, डार के नाहि.(19)
कह ‘आकुल’ सब द्वार खुले
दस दिशा खुली, जो दृश्य दिख्यो.
भरि-भरि अंग-अंग रंग-रंग में रच्यो
संग-संग सब ब्रज, हरसाय खिल्यो.(20)
छिपे कहां घनश्याम घनन
वृषभानुजा ओट छिपे सकुचाहि.
ढूंढ सकौ तो ढूंढ लो आवन
बैठि पलक पल नैन बिछाहि.(21)
ओट सूं देखहि श्याम बिकल
हिय हाथ में आय पड्यो अब नाहि.
’श्याम’ कहि, निक ध्यान बटायो
दौड़ पड़ि, घनश्याम सराहि.(22)
ठिठक निअर खड़ि, श्याम निहारन
लागि तबहि, नैनन भर आहि.
हाथ उठैं, जैसे हि रंग ले वहिं
श्याम ने करि, बरजोरि उठाहिं.(23)
बाहु मैं लै कसि, लाल कपोल
गुलाबी करे, तब भींच के नाहिं.
तन स्वेद भर्यो, मन भेद भर्यो
रंग सेज कर्यो, रंगरेज की नाहिं.(24)
‘होरि’ है टोला घुस्यो, घर गूंज्यो
मृदंग, ढप, झांझ की ताल सुनाहि.
हर ग्वाल बन्यो, एक श्याम सुंदर
हर सखी खड़ी, राधा बन आहि.(25)
गोकुल, बिंदावन, बरसाने वा
नंद के गाम की होरी मनाहि.
आज भी रेणु अबीर बने
जमुना जल की रंगरोरी बनाहि.(26)
कह ‘आकुल’ महारास रच्यो
ब्रजबासिन संग जो होरि मनाहि.
आज भी प्रेम के पथिक कहें
ब्रज की हर नारि में राधा समाहि.(27)
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
शानदार और जानदार प्रस्तुति के लिए रंग पर्व की शुभ कामनाओं सहित बधाई.
भर रंग-गुलाल, उठा लियो थाल, चले बृज ग्वाल, सुनावत फागें.
आकुल व्याकुल श्याम 'सलिल' संग, दाऊ-कन्हैया को कर आगे.
गुपियन लै पिचकारी चलावें, रोके रुकें नहीं, धूम मचावैं.
युग्म लखें विधि-हरि-हर औचक, नारद नाचें, वीणा सुनावें.
मन अभिभूत और मुग्ध हो निःशब्द हो गया.....रचना की प्रशंशा को शब्द नहीं मेरे पास...
बहुत सुन्दर रचना।
आप सभी को सारी टीम को होली की बहुत-बहुत बधाई...
सभी पाठकों, हिंद युग्म परिवार को मेरा होली नमन और रंग पर्व की बहुत बहुत शुभकामनायें. रंग तिलक स्वीकार करें.
जल जीवन है, इसे संरक्षित करें. तिलक होली खेलें. 'आकुल'
सभी को होली मुबारक,,,,आकुल जी के टिपण्णी में कहे सुंदर सन्देश के साथ,,,,,,,,,
ब्रज भाषा की मधुर स्वर-माधुरी से परिचय कराती इस रचना के लिये आकुल जी को आभार ।
होली की शुभकामनायें ।
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