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Thursday, March 05, 2009

विहग विचार


दसियों कबूतर
एक दूसरे को
ठेलते
रेत में
ना जाने क्या
चुगते रहते !
मै उदास,
आंगन में
दाने बिखेर
कबु आओ....कबु आओ
करता घंटों मनुहार
पर नही आते
कपोत आगार

जीवन सहरा में
बचपन किसी
नख़लिस्तान सा
छूट गया
पर नही बदली
नियति
तर्जनी के
प्रथम पोर पर
अंगुष्ठ दबाये
वाम करतल पर ठुड्डी
क्षितिज पर दृग
उर में बैचेनी
कोहनी तले कागज़
प्रतिक्षारत
तृण कातर
आमंत्रण लाचार
कबहु आओ....कबहु आओ
पर नही उतरते
मन आंगन में
विहग विचार

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5 कविताप्रेमियों का कहना है :

manu का कहना है कि -

जोशी जी,
मजा आया पढ़ कर,,,,कवी ह्रदय में उतरने वाले विचारों को क्या आपने कबूतरों से जोड़ा है,,,
मूड इनका भी,,,,और उनका भी,,,,,,
आये तो दसियों एक साथ चले आयें,,,ना तो दसियों साल तक एक भी न,,,,
shaandaar ,,,,,,,

Divya Narmada का कहना है कि -

सटीक प्रतीक ने अभिव्यक्ति को ग्रहणीय बनाया है. सहज-सरल-सार्थक अभिव्यक्ति हेतु बधाई.

Harihar का कहना है कि -

आंगन में
दाने बिखेर
कबु आओ....कबु आओ
करता घंटों मनुहार
पर नही आते
कपोत आगार

उम्दा कविता !

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

सच में यह एक सुन्दरतम रचना है |

बहुत बधाई |
अवनीश तिवारी

विश्व दीपक का कहना है कि -

विचार और विहग में ऎसा साम्य मैने पहले कभी पढा नहीं था। पढ कर एक सुखद अनुभूति हुई , लगा कि मैने कभी ऎसा क्यों नहीं सोचा!!

बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक

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