अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, उ॰ प्र॰ (लखनऊ) द्वारा भोजपुरी कविताओं के लिए 'भोजपुरी भास्कर' सम्मान।
संप्रति- केंद्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में साहित्य एवं पत्रकारिता का अध्यापन।
पुरस्कृत कविता- उदास बचपन
उदास बचपन
तारीखें नहीं बनाते
उदास बचपन
रेत पर पड़ी
मृत सीपियों की तरह
बेबसी में ढोते हैं वे
तारीखों को
अपने कंधे पर
ठंडे गोश्त की तरह
जिंदगी
शीत-घाम से बेअसर
झापस में हरी नहीं होती
मुर्दा चेहरों पर
नहीं होती हलचल
बस, होती हैं वहां
हारी हुई लडाई की
अनंत परछाईयाँ
निष्ठुर है काल
मगर
मारे हुओं को नहीं मारता काल
बचपन
यूँ ही नहीं ढलते सांचों में
ढाले जाते हैं
दबाव बचपन गढ़ते हैं
और बचपन
काल की अदृश्य लिपियाँ पढ़ते हैं
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ५, ६॰७
औसत अंक- ५॰७३३३
स्थान- सातवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰५, ५, ५॰७३३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰०७७७
स्थान- दसवाँ
अंतिम चरण के जजमेंट में मिला अंक- ६
स्थान- तीसरा
टिप्पणी- कविता की भाषा बहुत संयत और सधी हुई, पर बचपन की उदासी को आँकने और उस पर पड़ रहे सर्वग्रासी काल की छाया को रेखांकित करने में एक सीमा तक ही कवि सफल हो पाया है।
पुरस्कार और सम्मान- ग़ज़लगो द्विजेन्द्र द्विज का ग़ज़ल-संग्रह 'जन गण मन' की एक स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
बचपन
यूँ ही नहीं ढलते सांचों में
ढाले जाते हैं
दबाव बचपन गढ़ते हैं
और बचपन
काल की अदृश्य लिपियाँ पढ़ते हैं |
सुंदर अभिव्यक्ति है यह |
बधाई |
अवनीश
अच्छी कविता . बधाई.
सर जी,बहुत ही सुंदर बिम्ब उकेरे हैं आपने......सुंदर कविता
आलोक सिंह "साहिल"
पर सर इन्ही शिपियो में कभी कभी आपको मोती भी मिल जाते है.+..
लेकिन इन मोतियों का रंग भी आप सच कहते हैं...उदास ही होता है.....
कविता सर लाजवाब है...
बधाई.... स्वीकार करें
अमृत सागर
मुर्दा चेहरों पर
नहीं होती हलचल
बस, होती हैं वहां
हारी हुई लडाई की
अनंत परछाईयाँ
सुंदर पंक्तियाँ
सादर
रचना
बहुत सही व्यक्त कर पाये हैं आप , उदास बचपन तारीखें नहीं बनाते | उनके खाद पानी की चिंता करने वाले अपने वजूद की जद्दो-जहत से फुर्सत नहीं पाते | जब तक समझ आती है ,बहुत देर हो चुकी होती है |निश्चित ही आपकी कविता असर रखेगी |
वाह क्या सुखद संयोग है। अपने ही गुरु के साथ प्रतियोगिता में स्थान लेने का मौगका मिला और संयोग से प्रथम दो निर्णायकों ने प्रतियोगिता में बिल्कुल उनके समीप बनाये रखा। लेकिन तीसरे निर्णायक की पारखी नजर ने गुरु और शिष्य के बीच के अन्तर को पाटने की उददण्डता से बचा लिया। लेकिन अच्छा लगा सर आपकी कविता को यहां देखकर। बहुत बहुत बधाइयां।
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