यूनिकवि प्रतियोगिता में ८वें पायदान पर सम्मिलित कविता पुणे की कवयित्री आशिका प्रदीप कुमार पांडेय की है। नागपुर में पढ़ीं-लिखीं आशिका अपने नाम में 'तन्हा' तखल्लुस लगाती हैं। इस तरह से ये हिन्द-युग्म की दूसरी 'तन्हा' रचनाकार हुईं। आशिका 'तन्हा' की रचनाएँ ग्लोरीयस टाइम्स नामक राइटर्स फोरम मे प्रकाशित होती हैं। पूणे में काफेरत्ती नामक राइटर्स ग्रूप में भी इनकी रचनाएँ पढ़ी और सराही जाती हैं। लेखन इन्हें अपनी माता से विरासत में मिला है।
पुरस्कृत रचना- कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं
ये बेचैन सा चेहरा
ये सूनी सी मुस्कान
ये डरा सा लह्जा
ये आह के निशान
ये पथराई आंखें कब से रोई नहीं
गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं
वो अनसुलझे सवाल
वो कराहते जवाब
वो अपनों का बवाल
वो परायों का अज़ाब
वो पेशानी की सिमटी सिलवटें खोयी नहीं
गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं
ये दर - ओ - घर के मसायल
ये नफरत का कोहरा
ये जिस्म-ओ-जिगर घायल
ये जेहाद का मोहरा
ये फ़रज़न्दों में अपना उसका कोई नहीं
गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं
वो मन्दिर-ओ-दरगाह पर शिरकत
वो सिसकती दुआ का काफीला
वो दिल ओ दिमाग की मशक्कत
वो न कुबूल होने का सिलसिला
वो दीवारे जो सरहदों का बोझ ढोई नहीं
गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं
ये जिस्म पर पड़े खून के कतरे
ये सांसो पर पड़े ज़ख्मो के दाग
ये फटे से ज़हन के चिथड़े
ये बदले की जलन और रंजिश की आग
ये खुला हुआ सीना- किसी ने उसकी आबरू बचायी नहीं
गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं
कोई उसके बच्चो को मिलाता नहीं
कोई खुदा को भी उसकी आवाज़ सुनाता नहीं
उसके बच्चे करवट लिए सोते रहे
कोई उन्हें नीद से जगाता नहीं
कोई रहनुमा बनकर उसको बचाता नहीं
कोई उसकी दीद को आता जाता नहीं
उसके बच्चे आपस में ही लड़-लड़ मरे
कोई उसके दिल को सुकून पहुँचता नहीं
कोई उसे आब-ऐ-हयात से नहलाता नहीं
कोई रिसते ज़ख्मो को उसके सिलता नहीं
उसके बच्चो को फुर्सत नहीं यलगार से
कोई उसके सीने पर दुपट्टा ओढ़ाता नहीं
वो जन्नत की चाह में अपनों के ही लहू से खेल रहे है होली
दोज़ख की आग में जलने- लूट रहे है अपनी बहेनो की डोली
रूह काँपती है उसकी दहशत-ओ-वहशत से
जार जार बहते हैं अश्क उसके हर शहादत पे
मेरी प्यारी माँ चीख-चीख कर हार गई है
रो-रो कर अब उसकी आँखे भी पथरा गई हैं
चलो मिटाएँ उसकी परेशां पेशानी के कुछ बल
चलो दे दे उसे भी रहत-ओ-सुकून के कुछ पल
जो अब भी ग़म दिया तो ना खोयेगी वो
जा अब न सुकून दिया तो न रोएगी वो
मेरी माँ को बस चैन-ओ-अमन चाहिए
जो अब भी न दे सके तो ना सोयेगी वो
उसे बस चैन और अमन चाहिए - जो न दे सके तो ना सोयेगी वो..........
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- २, ५॰५, ७॰१
औसत अंक- ४॰८६६६७
स्थान- सत्रहवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ५, ४॰८६६६७ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ४॰६२२
स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' द्वारा संपादित हाडौती के जनवादी कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह 'जन जन नाद' की एक प्रति।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
आठवें स्थान के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई!कविता में भाव अच्छे है,किंतु यदि आप कुछ कम शब्दों में अपने भावों को पिरोती तो आपकी कविता शायद और आगे स्थान बना पाती!अच्छी रचना बधाई!
mujhe bahut achchhi lagi aapki kavita .hamari badhayi swikar karen
सुंदर रचना है |
बधाई|
यह विषय ही ऐसा है कि बहुत कुछ कहा जा सकता है |
पहले छंद के स्वरुप को यदि कायम रखा जाता तो पुरी रचना और अच्छी लगती , याने -
कोई उसके बच्चो को मिलाता नहीं
कोई खुदा को भी उसकी आवाज़ सुनाता नहीं
उसके बच्चे करवट लिए सोते रहे
......
को उसपर की ६ पंक्तियों वाले छंद विन्यास में रखती तो अच्छा लगती ऐसी मुझे लग रहा है |
फ़िर भी रचना अच्छी है |
जबरदस्ती में निकाली गयी एक खोट :) -
ये बेचैन सा चेहरा
ये सूनी सी मुस्कान
ये डरा सा लह्जा
ये आह के निशान
इसमें - चेहरा और लह्जा तुकांत नही मेल खा पा रहा है जैसा और में सही से हो रहा है |
इस रचना के लिए बधाई|
अवनीश तिवारी
hmmmmmmm aacha post hai ji aapka
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बढिया भाव....बढिया शीर्षक...
आपका हिंदुयुग्म में स्वागत है....
निखिल आनंद गिरि
सुंदर अल्फाज़ !!
अर्थपूर्ण
बधाई !!!
अच्छी कविता है.. बधाई स्वीकरें..
पर बाद अकी लाइन मुझे थोड़ी लम्बी लगी...
आगे भी आपकी कविता पढ़ने को मिले यही कामना..
तपन जी,
सही कह रहे हैं आप....ज्यादा ही बड़ी कविता है......और फ़िर बीच में ट्रैक बदल जाने से पूरी पढने में भी दिक्कत पेश आयी............
हाँ जितनी भी पढ़ी ...अच्छी लगी ..पर जाने इसे बीच में से अलग तरह से क्यूं शुरू कर दिया....
par bhaav bahut sunder aur sashkt hain....ismein koi shak nahin..
badhaai...
AVINAASH JI,
SHAAYAD IS BHALI SI KAVTAA KO ..MEIN ..BEECH SE YOON HI TOOT JAANA LIKHAA THA..
AB ISMEIN CHHAND KAA ROOP AUR SWAROOP KYAA KARENGE.....
AAP KYAA KARENGE....HAM KYAA KARENGE......
HAAN TIPPANI SE SHAAYAD AGLI BAAR KUCHH AUR ZYADA ACHHA HO.....
MANU
आशिका जी
बधाई.
भावावेग में दर्द बिखर बिखर जाता है. क़लम से आप उस दर्द को उकेर सकीं, इसी ने आपकी रचना को पुरस्कृत किया है. बधाई. मैंने इसे हर स्थान पर रख कर पाया कि यदि 'सोयी नहीं' के स्थान पर 'सो न सकी'लिखा जाता तो रचना सशक्त बन पड़ती और कदाचित् आरंभिक दूसरे अथवा तीसरे स्थान पर होती.
'आकुल'
janaab, agar soyee naheen ki jagah " so na saki " aataaa to aur bhi kaafi kuchh badalnaaa padtaa ,jara dobaraa gaur karin, filhal to
anonymous
प्रिय आशिकाजी 'तनहा' ,
स्नेहिल हार्दिक बधाई,
आपकी कविता "कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नही" ने पाठकों के अंतर्मन को झकझोर के रख दिया .आप ने जो कहना चाहा है उससे अधिक आपकी पंक्तियों ने कह दिया है . यही लेखक या कवि की पहचान बनती है .आपके लेखन के उज्जवल भविष्य के लिए मेरी बहुत सी शुभकामनायें .
श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल
लेखिका + साहित्यकार
प्रिय आशिकाजी 'तनहा' ,
स्नेहिल हार्दिक बधाई,
आपकी कविता "कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नही" ने पाठकों के अंतर्मन को झकझोर के रख दिया .आप ने जो कहना चाहा है उससे अधिक आपकी पंक्तियों ने कह दिया है . यही लेखक या कवि की पहचान बनती है .आपके लेखन के उज्जवल भविष्य के लिए मेरी बहुत सी शुभकामनायें .
श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल
लेखिका + साहित्यकार
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