शत्रु सीमा पर खड़ा ललकारता
तू हाथ बाँध ईश को पुकारता ।
वीरता की यह नही पहचान है
हटना युद्ध धर्म से अपमान है ।
त्याग, तप, जप का यहाँ क्या काम है
संहार - शत्रु वीरों की शान है ।
लावा जो हृदय में है दहक रहा
बहने दो ज्वालामुखी भभक रहा ।
बिगुल नही तुमने बजाया, सच है
समर कब तुमने था चाहा, सच है ।
तू हाथ जोड़ अब दिखा न दीनता
इस समर को जीतना ही वीरता ।
अर्थ, स्वार्थ, काम जहां अविराम है,
संघर्ष कुलिष ही वहां परिणाम है ।
उठती हैं जब रण में चिनगारियाँ
याद करो अपनी तुम सरदारियाँ ।
निरीह बन गीत विनय के गा नही
सरल, सरस, अनुनय अब अपना नही ।
हाथ ले अंगार चल अब उस दिशा
प्राण मोह त्याग, मिटा काली निशा ।
अग्नि सी धधक, उबाल रख रक्त में
शत्रु दमन कर उसे गिरा गर्त में ।
वीर बन शक्ति रख, हो सदा विजयी
आग बन राख कर, हो सदा विजयी ।
कवि कुलवंत सिंह
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
Nice, Kulwant ji.
Kisi buzurg ko kehte suna ... "is desh ne azadi ke liye utna khoon nahi bahaya jitna aazadi maangti hai. Abhi aur khoon bahega. Tab tak is desh ke logon ko sone do."
RC
bahut badiaa rachnaahai badhaai
बड़ी ओजपूर्ण रचना है |
बधाई |
अवनीश तिवारी
jo bole so nihaal ,sat eri akaal
tussi to chaa gaye kulwant ji ,
kinna badhiya likhte ho tussi
mubaarkan ji mubaarkan
बहुत बढ़िया कुलवंत जी
dam hai ji...
bahut achhI PRASTUTI..
ALOK SINGH "SAHIL"
वाह ! कर्तब्य का स्मरण कराती अतिसुन्दर ओजपूर्ण इस कविता हेतु आभार और नमन..
बेहतरीन कविता
देश प्रेम से ओत-प्रेत, बाजू में तूफ़ान भरती
देशप्रेम के गीत गा, होता है कवि धन्य.
'सलिल' तभी होती कलम, उसकी सफल प्रणम्य.
कविकुल की कुलवंत जी, रखें मान औ' शान.
दिग्दिगंत में गुंजायें, माँ का गौरव गान.
बिगुल नही तुमने बजाया, सच है
समर कब तुमने था चाहा, सच है ।
तू हाथ जोड़ अब दिखा न दीनता
इस समर को जीतना ही वीरता ।
बहुत ओज से भरी कविता सुंदर कविता
सादर
रचना
aap sabhi ne itna pyaar diya...
natmastak hun..!!
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