एक सुबह उठा
तो मेरा कद खो गया
मैं हतप्रभ
अब कैसे काम चलेगा
मैं बौना या सामने वाला
कैसे पता लगेगा
अपने कद की तुलना में
औरों के कद
आंक रखे थे
स्वार्थ के पैमाने पर
सबको नाप रखे थे
कौन मेरे पीछे और
किसके पीछे मैं
पूँछ हिलाऊँगा
इसका बोध खो गया
हे भगवान
एक ही रात में
क्या से क्या हो गया
कद का यह भ्रमजाल
मेरा उसका आपका नहीं
सबका है पेश है एक शब्दचित्र
जिसमें नाम फकत मेरा है
शहर से दूर था वह कॉलेज
जिसमें मैं पढ़ता था
कुछ पैदल कुछ
साइकिलों पर आते
मैं पैदल..........
हसरत से देखता साइकिल को
परीक्षा के दिन
एक सेठ पुत्र ने
साइकिल पर बिठा दिया
परीक्षा से महत्वपूर्ण
साइकिल की सवारी होगई
जीवन में पहली बार लगा
मेरा भी कुछ कद है
फिर नौकरी की साइकिल खरीदी
अच्छा लगा
स्कूटर बगल से गुजरता तो
मायूस हो जाता
कद कुछ कम हो जाता
बुढापे मे मोपेड खरीदी
तीस की गति पर
हवाई जहाज का आनंद लिया
पैदल और साइकिल सवारों को देख
नाक-भौं सिकोड़ता
चलने का शउर नहीं
बार-बार ब्रेक लगाना पड़ता है
कद बढ़ने का भ्रम जारी रहा
फिर एक दिन पौत्री ने कहा
दादाजी मम्मी को बैंक से लोन मिला है
घर में कार लायेंगे और
आपको भी खूब घुमायेंगे
पुत्र की भक्ति
पुत्रवधू की श्रद्धा
या दादाजी पर दया
कुछ भी हो
कार की कल्पना ने
कुल मिलाकर मेरा कद
कुछ और बढ़ा ही दिया
और अब चतुर्थ आश्रम
चला चली की तैयारी
कन्धों की सवारी की प्रतिक्षा
लोग कह रहे हैं
पांव विमान से बाहर है
इन्हें ढँकों.......
मेरा कद ......?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
इतनी बड़ी बात आपने इतने कम शब्दों में कितनी आसानी से कह दी
एक प्रभावशाली रचना के लिए बधाई
सुंदर प्रस्तुति। गागर में सागर। धन्यवाद।
vinay ji,behad sadhi hui rachna,badhai swikar karein..
ALOK SINGH "SAHIL"
कुल मिलाकर मेरा कद
कुछ और बढ़ा ही दिया
और अब चतुर्थ आश्रम
चला चली की तैयारी
कन्धों की सवारी की प्रतिक्षा
लोग कह रहे हैं
पांव विमान से बाहर है
इन्हें ढँकों.......
मेरा कद ......?
वाह इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए पीठ ठोकने का मन है। बधाई स्वीकारें।
अच्छी रचना है |
बधाई| अपने अपने कद की बात है |
समय के हिसाब से कद भी बदलता है |
अवनीश tiwaree
बहुत ही सुंदर रचना! बहुत-बहुत बधाई!
अनंत इच्छावों में से कुछ पूरे कुछ अधूरे होने से
इंसान का कद कैसे बढता व कम होता है
अद्भुत विनय जी
सादर !!
अच्छी रचना है |
बधाई|
आपकी शानदार कविता पढ़कर बच्चन की पंक्तियाँ याद आ गयीं....
"और और की रतन लगाता जाता हर पीने वाला ,
कितनी इच्छाएं हर जाने वाला छोड़ यहाँ जाता है ,
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला
बहुत असरदार कविता .......
रौंगटे खड़े हो गये...
bahut hi sunder abhivyakti hai bdhaai
इच्छाओं का सागर विशाल
कभी भर पता नही
जानते है जबकि
सब कुछ रह जाएगा यहीं
जाना है एक दिन मालूम है फ़िर भी
ख्वाहिश ये के चलो आशियाँ बनायें
और अब चतुर्थ आश्रम
चला चली की तैयारी
कन्धों की सवारी की प्रतिक्षा
लोग कह रहे हैं
पांव विमान से बाहर है
इन्हें ढँकों.......
मेरा कद ......?
आप की कविता पढ़ के ये मन द्रवित होगया .बहुत सुंदर है और यही तो जीवन की सच्चाई है .
सादर
रचना
कद कई तरह से बढ़ता है। जैसे ऐसी कविता लिखने वाले कवि के कद को ही ले लीजिए............पाठक के मन में इनका कद कितना बढ़ गया---!क्या यह कभी कम होगा......? कंधो की सवारी के बाद भी नहीं। हॉ, सिर्फ भौतिक तरक्की को ही जिसने कद बढ़ना मान लिया उनका कद तो उनके साथ ही गुम हो जाना है।
बेहतरीन कविता ---जो चिंतन के लिए विवश कर देती है।
बधाई स्वीकारें--
--देवेन्द्र पाण्डेय।
स्वार्थ के पैमाने पर
सबको नाप रखे थे
कौन मेरे पीछे और
किसके पीछे मैं
पूँछ हिलाऊँगा
इसका बोध खो गया
जब भौतिकता का कद बढ़ता है ,मनुष्य की मनुष्यता का कद छोटा होता जाता है ,
सब जानते हैं कि
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा ,
जब लाद चलेगा बंजारा
फिर हम और अधिक कि तलाश में ख़ुद को ही खो चुके हैं ,
सोचने को ,गहन चिंतन को मजबूर करती है ,यह कविता
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)