नीरज के बाद गीत-रचना के फ़लक पर बहुत कम सितारे चमकते नज़र आते हैं। उन्हीं कम सितारों में से एक हैं आचार्य संजीव 'सलिल' जो टिप्पणियों में को भी गीत विधा में लिखते रहे हैं। एक अच्छी ख़बर यह है कि जल्द ही हिन्द-युग्म पर 'दोहा और इसका छंद-व्यवहार' की कक्षाएँ लेकर उपस्थित होने वाले हैं। आज हम इनका एक गीत अपने पाठकों के लिए लेकर उपस्थित हैं, जिसने नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में सातवाँ स्थान बनाया। संजीव के बारे में अधिक जानने के लिए क्लिक करें-
पुरस्कृत कविता- गीत
भाग्य निज पल-पल सराहूं,
जीत तुमसे, मीत हारूं.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूं...
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूं...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अंजुरी अनूठी विहंस वारूँ...
बांह में ले बांह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छांह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कंगना,
कहे छूटा आज अंगना.
देहरी तज देह री! रंग जा,
पिया को आज रंग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कंह? पुकारूं...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चांदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूं...
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ६॰३५
औसत अंक- ६॰४२५
स्थान- नौवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ५॰५, ६॰४२५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ६॰६४१६६७
स्थान- तीसरा
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही प्यारा गीत।
मुझे एक शब्द पर संदेह है---सरगमाथा।
मैने--- सगरमाथा-सुना था। एवरेष्ट की चोटी का पर्यायवाची है।
संभवतः यह टंकण त्रुटी है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
संजीव सलिल जी,
मुझे आपसे दोहे तो सीखने हैं ही पर आपकी कविताओं को पढ़ कर हिन्दी के शब्दों का ज्ञान भी बढ़ाना है...
बहुत शुद्ध हिन्दी व्यवहार में ना लाने के कारण समझने के लिए थोड़ा और दो चार बार पढ़ना पडेगा.......
फिलहाल ये के रवानी में मज़ा आ गया......
हिन्दी ज्ञान के लिए आपका अनुसरण करना चाहूंगा''.....
बधाई! सुंदर भाव, सुंदर शब्द, और मधुर गीत. बहुत ही सुंदर!
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चांदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूं.
manmohak geet hai ,saadhuvaad aapko
बजे नूपुर, खनक कंगना,
कहे छूटा आज अंगना.
देहरी तज देह री! रंग जा,
पिया को आज रंग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कंह? पुकारूं...
सुंदर रचना, शब्दों का सुंदर संसार
तरन्नुम में गाने को जी चाहता है
सुंदर रचना, शब्दों का सुंदर संसार
तरन्नुम में गाने को जी चाहता है
बहुत दिनों बाद मनचाहा , मधुमास को आमंत्रित करता गीत मिला है |
यद्यपि कठिन शब्दों ने इसे सरलता से दूर किया है , फ़िर भी शैली इसे स्वीकारने को बाध्य करती है |
अनेक बधाई |
-- अवनीश तिवारी
भाग्य निज पल-पल सराहूं,
जीत तुमसे, मीत हारूं.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूं...
गीत अच्छा लगा, पर ज्यादा समझ नही आया
सुमित भारद्वाज
महादेवी के ज़माने की याद आ गई....अच्छा गीत है...आप आवाज़ पर क्यूं नहीं गाते...
बहुत समृद्ध शब्दकोष सलिलजी
सादर !!
कुछ भी कहने को नहीं छोड़ा सर जी,कमाल कि मधुरता है कविता में.पूरी कि पूरी शहद कि बाटली गटक ली हो जैसे.
आलोक सिंह "साहिल"
वाह बहुत ही सुन्दर लिखा है। भाव, भाषा और उनका समायोजन अद्भुत लगा। बहुत-बहुत बधाई।
आत्मीय जनों!
वंदे मातरम.
गीत को पुरस्कृत करने हेतु निर्णायक मंडल तथा सराहने हेतु पाठकों का अंतर्मन से आभार.
देवेन्द्र जी! टंकन में कोई त्रुटि नहीं हुई, मैंने सरगमाथा ही लिखा है जिसे एवरेस्ट भी कहते हैं. भाव यह की तप्त अधर का स्पर्श पाकर मन ने सरगमाथा जैसी पवित्रता, शीतलता और ऊंचाई की अनुभूति की.
अवनीश जी! गीत में प्रयोग किए गए शब्द कठिन नहीं शुद्ध, सटीक, सार्थक तथा भावानुकूल होने चाहिए. इस गीत में ऐसा हो सका या नहीं? यह पताकागण ही बता सकते हैं. कोई शब्द पहले से जाननेवाले को सरल तथा न जाननेवाले को कठिन लगता है. आगे किसी रचना में यही शब्द पढेंगे तो आपको भी कठिन नहीं लगेगा.
निखल आनंद जी! न गा पाने के दो कारण कोकिलकंठी न होना तथा अवसर न मिल पाना है. जब भी संयोग होगा आपके आदेश का पालन कर प्रसन्नता होगी. शेष सभी पाठकों का पुनः धन्यवाद.
-संजीव सलिल
आत्मीय जनों!
वंदे मातरम.
गीत को पुरस्कृत करने हेतु निर्णायक मंडल तथा सराहने हेतु पाठकों का अंतर्मन से आभार.
देवेन्द्र जी! टंकन में कोई त्रुटि नहीं हुई, मैंने सरगमाथा ही लिखा है जिसे एवरेस्ट भी कहते हैं. भाव यह की तप्त अधर का स्पर्श पाकर मन ने सरगमाथा जैसी पवित्रता, शीतलता और ऊंचाई की अनुभूति की.
अवनीश जी! गीत में प्रयोग किए गए शब्द कठिन नहीं शुद्ध, सटीक, सार्थक तथा भावानुकूल होने चाहिए. इस गीत में ऐसा हो सका या नहीं? यह पताकागण ही बता सकते हैं. कोई शब्द पहले से जाननेवाले को सरल तथा न जाननेवाले को कठिन लगता है. आगे किसी रचना में यही शब्द पढेंगे तो आपको भी कठिन नहीं लगेगा.
निखल आनंद जी! न गा पाने के दो कारण कोकिलकंठी न होना तथा अवसर न मिल पाना है. जब भी संयोग होगा आपके आदेश का पालन कर प्रसन्नता होगी. शेष सभी पाठकों का पुनः धन्यवाद.
-संजीव सलिल
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)