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Wednesday, December 24, 2008

काल रात्रि



कब हटेगी कालिमा इस रात की ।
कब दिखेगी लालिमा अब प्रात की ॥

आज सूरज क्यों उदित होता नही ।
अरुण प्राची आज मुसकाता नही ॥

रात्रि से भयभीत है मानव धरा ।
काल के आगोश से कितना डरा ॥

इस निशा का अंत कब होगा भला ।
क्रूर निशि ने यूँ लगे पकड़ा गला ॥

बन भुजंग है डस रही विभावरी ।
लील लेगी जग को बन निशाचरी ॥

यूँ लगे संहार जग का पास है ।
सृष्टि के अवसान का आभास है ॥

सुरसा सा मुँह बाये है यामिनी ।
अब न कर दे राख बन कर दामिनी ॥

ध्वंस है अनिवार्य लगता इस क्षपा ।
अंतहीन रजनी से डरती प्रभा ॥


रात = रात्रि = निशा = निशि = विभावरी = यामिनी = क्षपा = रजनी

कवि कुलवंत सिंह



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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

गगन शर्मा, कुछ अलग सा का कहना है कि -

गम की अंधेरी रात में दिल को ना बेकरार कर,
सुबह जरूर आयेगी सुबह का इंतजार कर।
हमें हौसला नहीं छोड़ना है, ऐसी कोई भी रात नहीं जिसका सबेरा ना हो।

Anonymous का कहना है कि -

रात के परियावाची का प्रयोग सुंदर तरीके से किया है
बन भुजंग है डस रही विभावरी ।
लील लेगी जग को बन निशाचरी ॥
सुंदर कविता
सादर
रचना

Anonymous का कहना है कि -

bahut achchhi rachna badhai!

Riya Sharma का कहना है कि -

कुलवंत जी सुंदर भाव व सुंदर शब्दावली
पढ़ना बहुत भाया

धन्यवाद

Kavi Kulwant का कहना है कि -

Aap pyaar karne wale mitron ka hardik aabhaar!

gazalkbahane का कहना है कि -

sundar abhivyakti,badhaayee
shyam skha

nitin का कहना है कि -

smanarthee aur hindi ke umda shabdon ke bahut hee achcha upyog...

badhaayan!
nitin jain

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