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काल रात्रि



कब हटेगी कालिमा इस रात की ।
कब दिखेगी लालिमा अब प्रात की ॥

आज सूरज क्यों उदित होता नही ।
अरुण प्राची आज मुसकाता नही ॥

रात्रि से भयभीत है मानव धरा ।
काल के आगोश से कितना डरा ॥

इस निशा का अंत कब होगा भला ।
क्रूर निशि ने यूँ लगे पकड़ा गला ॥

बन भुजंग है डस रही विभावरी ।
लील लेगी जग को बन निशाचरी ॥

यूँ लगे संहार जग का पास है ।
सृष्टि के अवसान का आभास है ॥

सुरसा सा मुँह बाये है यामिनी ।
अब न कर दे राख बन कर दामिनी ॥

ध्वंस है अनिवार्य लगता इस क्षपा ।
अंतहीन रजनी से डरती प्रभा ॥


रात = रात्रि = निशा = निशि = विभावरी = यामिनी = क्षपा = रजनी

कवि कुलवंत सिंह