वो जो उलझे हैं सुलझ भी जाऍँगे
बीते पल लेकिन न फिर आ पाएँगे
सर उठाकर गर नहीं चल पाएँगे
फिर तो सब सिक्कों मे ही ढल जाएँगे
वे हमें ,हम भी उन्हें समझाएँगे
गर न समझे वो समझ हम जाएँगे
वक्त जाएगा निकल तब ,देखना
हाथ मलते लोग सब रह जायेंगे
अपना दामन साफ रखने के लिये
दाग़ दिल पर लोग कितने खाएँगे
वक्त को गर है बदलना `श्याम जी
आयें आगे वो जो सर कटवाएँगे
फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलुन
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
श्याम जी,
अच्छी गज़ल पर पहले जैसी बात नहीं दिखी...
माफ़ी चाहता हूँ ....बहर....वज़न ...रुकन जैसे शब्दों का नाम भी बामुश्किल एक महीने से ही सुना है......कभी कभी सोचता भी हूँ के कोई उस्ताद ढूंढ लूँ ....क्योंके हर शख्श का यही कहना है के गुरु बिन ज्ञान नहीं ...मगर
ये मकता मुझ से पढा नहीं जा रहा है.....
और मुझे लग रहा है के मुझे अच्छा हुआ मैंने कोई तालीम नहीं ली
manuji aap thhahre betkhllus ?
ग़ज़ल अच्छी, ग़ज़ल के भावः सुंदर
विचार खूबसूरत, बधाई
manu ji ya jo bhi hain yahaan bat upnaam ki naheen kar rahe shayd,makte ki aakhri laain ya misara bahar se baahar hai aur aapne bahar ka naam bhi de rakha hai.shayd yoon kah rahe hain
मनुजी व् अनाम दोस्त शुक्रिया डायरी से देखकर टाइप करते हुए गलत टाइप हुआ व् एकशे`र भी टाइप करना रह गया था अब देखें
श्याम जी
काफिया रदीफ ढूढने मे कठिनाई हो रही है
काफिया=आ
रदीफ=ऍँगे
क्या मै सही हूँ?
या फिर ये बिना रदीफ की गज़ल है,मै कुछ दुविधा मे पड गया हूँ
क्योकि गुरू जी ने एक बार शैलेश जी की गजल पढकर बताया था कि इसमे 'कर' भी एक तरह से रदीफ बन गया है और 'आ' काफिया रह गया
सुमित भारद्वाज
वो जो उलझे हैं सुलझ भी जाऍँगे
बीते पल लेकिन न फिर आ पाएँगे
Bahut achcha She'r!
RC
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