विगत ८ वर्षों से स्पैन में रह रही पूजा अनिल हिन्द-युग्म की नियमित पाठिका हैं। एक बार यूनिपाठिका का सम्मान भी प्राप्त कर चुकी हैं। अक्टूबर २००८ की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी कविता ने तीसरा स्थान बनाया। आइए आज हम उसी कविता का रस लेते हैं।
पुरस्कृत कविता
जब तक मुझे विश्वास था
कि तुम्हारी दो आँखें मुझे देख रही हैं,
मैं कहता रहा तुमसे
अपना ध्यान रखा करो
और खुश रहा करो,
बहुत स्वार्थी था मैं,
कभी शुक्रिया ना कह पाया.
तुम्हें यह जताता रहा
कि मुझे फ़िक्र है तुम्हारी
और तुम मेरा ध्यान रखती रही .
आज जब तुम चली गयी
कभी ना लौटने के लिए
तो सत्तर साल में पहली बार
तन्हा होने का एहसास हुआ
कि आदत हो चली थी मुझको
उन दो आंखों की,
जो प्रतीक्षा किया करती थी,
मेरे घर लौट आने तक.
और मैं करता रहा वादा
तुम्हें ज़िन्दगी भर खुशियाँ देने का
और बटोरता रहा
खुशियाँ
जो तुम मुझे देती रही,
आज फिर,
तुम्हारी यादों के खजाने में से
कुछ खुशियाँ चुराई हैं मैंने,
और निकल पड़ा हूँ
मुस्कान बाँटने,
अपने जैसों के बीच .
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ३॰५, ८, ६॰९
औसत अंक- ६॰२२५
स्थान- दूसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰५, ४, ६॰२२५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰९१
स्थान- तीसरा
पुरस्कार- कवयित्री पूर्णिमा वर्मन की काव्य-पुस्तक 'वक़्त के साथ' की एक प्रति।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
19 कविताप्रेमियों का कहना है :
सत्य कहा........ऐसा ही होता है....जबतक वह अपना ,अपने साथ होता है,उसकी कीमत नही जान पड़ती.पर साथ छोट जाए तो दुनिया बेगानी और वीरान लगने लगती है......लेकिन अच्छा है कि स्नेह के उस जल से बहुतों को आप्लावित किया जाए.........
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है.
रंजना जी की बात से सहमत हूँ!कविता दिल को छू रही है!बहुत-२ बधाई!
पूजा जी सत्य को उजागर करती आपकी कविता मन को छू गई | बहुत- बहुत बधाई
......सीमा सचदेव
पूजा जी, आपकी रचना बेहद पसंद आई। बधाई स्वीकारें।
आज फिर,
तुम्हारी यादों के खजाने में से
कुछ खुशियाँ चुराई हैं मैंने,
और निकल पड़ा हूँ
मुस्कान बाँटने,
अपने जैसों के बीच .
पूजा जी बहुत अच्छा लिखा है.
अच्छी रचना है। भाव दिल को छूते हैं। बधाई तीसरे स्थान के लिए।
अच्छी कविता
पूजा जी,
आपको काफी समय से पढ़ता रहा हूं, पाठिका के तौर पर...आपकी कविता भी अच्छी लगी....
सप्रेम
निखिल
तुम्हारी यादों के खजाने में से
कुछ खुशियाँ चुराई हैं मैंने,
और निकल पड़ा हूँ
मुस्कान बाँटने,
अपने जैसों के बीच
ठीक कहा आप ने तुम अपने पास की चीजों को महसूस नही कर पाते हैं पर यदि इसी तरह खुशियाँ बाटते चले तो शायद कुछ भूलने का अहसास कम कर सकें
सादर
रचना
--बहुत स्वार्थी था मैं,
कभी शुक्रिया न कह पाया।
----------------------------
-इस पंक्ति से पता चलता है कि सत्य हमेशा कड़वा नहीं होता सुख भी देता है।
अच्छी रचना के लिए बधाई।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
बहुत स्वार्थी था मैं,
कभी शुक्रिया न कह पाया।..
और निकल पड़ा हूँ
मुस्कान बाँटने,
अपने जैसों के बीच ....
अच्छी कविता पूजा जी... बधाई..
कि मुझे फ़िक्र है तुम्हारी
और तुम मेरा ध्यान रखती रही .
आज जब तुम चली गयी
कभी ना लौटने के लिए
तो सत्तर साल में पहली बार
तन्हा होने का एहसास हुआ
कि आदत हो चली थी मुझको
उन दो आंखों की,
जो प्रतीक्षा किया करती थी,
मेरे घर लौट आने तक.
और मैं करता रहा वादा
तुम्हें ज़िन्दगी भर खुशियाँ देने का
और बटोरता रहा
खुशियाँ
bhaavuk kiya hai aapki kavita ne ,
दिल को छू लिया कविता ने
ये पंक्तिया बहुत पसंद आयी
आज जब तुम चली गयी
कभी ना लौटने के लिए
तो सत्तर साल में पहली बार
तन्हा होने का एहसास हुआ
सुमित भारद्वाज
बहुत ही सुंदर हैं कुछ पंग्तियाँ ..और निकल पड़ा हूँ मुस्कान बाटने के लिए ..निर्मल मन से उत्प्लादित भावः
धन्यवाद
सभी मित्रों का हार्दिक आभार .
इन सभी बधाइयों पर प्रथम अधिकार शैलेश जी और हिंद युग्म का है, जिन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया .
पुनः सभी का धन्यवाद .
पूजा अनिल
hi pooja great
bahot acha lag raha hai tumari poem yaha padkar next time 1st prize lene ka hai
बहुत सुन्दर!
कई बार रचना इतनी पसंद आती है कि शब्द गायब हो जाते हैं लेखिका यह न सोचे की सिर्फ़ बहुत सुन्दर कहकर निजात पाई...सचमुच बहुत सुन्दर लगी...:)
अच्छी कविता...
कविता का विषय अलग और सुन्दर लगा...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)