प्रतियोगिता की अंतिम कविता की बात करते हैं। इस पायदान पर हिन्द-युग्म में पहली बार शिरकत कर रहे कवि दीपक मिश्रा की कविता है। जब इनसे हमने इनका परिचय माँगा तो ये अनिर्णय की स्थिति में आये गये और सोचने लगे कि क्या परिचय दें। यह कि ये एक पिता हैं, जिसकी पुत्री के लिए पिता ही सबसे बड़ा नायक है , या एक पति जिसकी पत्नी हमेशा उसे राम की तरह आदर्श पुरूष के रूप में देखना चाहती है, या फिर लखनऊ से मास्टर ऑफ़ कंप्यूटर की डिग्री लेने के बाद बैंक में इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी क्षेत्र में काम करने वाला एक उप मुख्य प्रबंधक, जोकि पश्चिमी सभ्यता और अंधाधुंध बाजारीकरण की वजह से भारतीय लोगों को अपनी भारतीय विचारधारा से अलग जाता देख कर आहत है और अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए फोटोग्राफी और कविता का सहारा लेता है। जिंदगी की आपाधापी से समय निकाल कर, सीमेंट के इस जंगल जिसे दिल्ली कहते हैं, से दूर कहीं प्रकृति की गोद में भाग जाना चाहता है? इन्होंने इतने सारे सवाल हमसब पर दाग दिये। खैर आइए, हम आपको इनकी कविता पढ़वाते हैं-
कविता- परिणाम .
जिंदगी की दौड़
बस बढ़ते रहने की चाह
आदमी के ऊपर से जाता आदमी
कोई थकना नहीं चाहता
घनी नींम की छाया में
दो पल को
कोई रूकना नहीं चाहता
पीछे रह जाने के भय से
डरा हुआ बेजान आदमी
बस दौड़ता .....और दौड़ता ही चला जाता है
परंतु फिर भी नहीं आता
सर्वप्रथम
और जब घिरने लगती है
जिंदगी की शाम
फिसलने लगती है
कोरी उपलब्धियाँ हाथों से
तब पीछे घूम कर देखता है
कोई नहीं उसके साथ
पीछे छूट गईं, बच्चों की किलकारियाँ
नीम की छाँव, आम का बौर
गुलाब की महक, बसंत की कोयल
सावन की हरियाली, पूस की रात, जेठ की दोपहर
और खुद उसके अंदर का
अबुझा, अनसुलझा, सूक्ष्मतम
आदमी भी
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ३, ६॰५, ७, ६, ७
औसत अंक- ६
स्थान- सातवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ३, ६ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰३३३३
स्थान-तेरहवाँ
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
हां , सच्च है जिंदगी में आगे बढ़ने की चाहत में भूल जाते है हम की बहुत कुछ पीछे छूट चुका है और जब होश आता है तो बेबस लाचार बस यादे संजोए खो जाते है अन्धकार में | अच्छी रचना के लिए बधाई .....सीमा सचदेव
बहुत सुंदर और सटीक बात कही है आपने. सुंदर अभ्व्यक्ति के लिए बधाई.
सही कहा जीवन भर भागने के बाद भी कुछ हाथ नही लगता
सुंदर लिखा है
सादर
रचना
दीपक मिश्रा की कविता में सच्चाई और ईमानदारी दिखी , भावुकता दिखी ,मिटटी की गंध दिखी, भाव दिखे, जीवन का दर्शन और बीत गए क्षदो की व्यर्थता का बोध दिखा. उन्हें बधाई .
मुहम्मद अहसन
पता नही इतना पीछे कैसे रह गए पुरस्कृत रचनाओं की श्रेणी में , रचना तो काफी सटीक, सही और संतुलित लगी |
बहुत बहुत बधाई |
-- अवनीश तिवारी
acchi soch acchi kavita ..badhai...
बधाई दीपक जी,
उम्मीद है कि अगली बार आपकी रचना और ऊपर आयेगी
मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी...
नपे-तुले शब्दों में यथार्थ को बखूबी पिरोया है...
good kavita, bachpan yaad aa gaya,
thanks
बहुत अच्छी रचना, हम-आप के जीवन का यथार्थ जो कविता में झलकता है,अच्छी अभिव्यक्ति के लिए बधाई!
अवनीश तिवारी की बात से बिल्कुल सहमत हूँ.
पता नही इतना पीछे कैसे रह गए पुरस्कृत रचनाओं की श्रेणी में , रचना तो काफी सटीक, सही और संतुलित लगी |
आपकी कविता शीर्ष स्थान की हकदार है. बहुत सुंदर
--
बात बात में बोल दी बहुत बडी एक बात
भागा दौड़ी कर रही, जीवन पर आघात
जीवन पर आघात, रेत की मुट्ठी जीवन
फिसल रहा है धीरे धीरे पल पल छन छन
लाख जतन के बाद कछू ना रहे हाथ में
'राघव' कवि ने बात कही क्या बात बात में.
deepak ji,bahut bahut laajwab kavita,badhai.
mujhe afsos hai ki aap itne pichhe kaise rah gaye.....
ALOK SINGH "SAHIL"
Mishra sir, kavita main to maza aa gaya. Lekin muje lagta hai ki ise hum kisi sthan se nahi naap sakte. Lajwaab..........Narender Gaur.
मैं हिन्दयुग्म पर नया हूँ, नियम पढ़े, सोचता हूँ कि क्या कविता भी कोई एथलेटिक प्रतियोगिता है, प्रतिस्पर्धा है , कि इस को रंकिंग की कसौटी पर परखा जाए , और यदि परखना ही है तो परखने के मापदंड क्या हों गे! क्या कविता की परख के कोई गणितीय पैरामीटर हो सकते हैं. मेरे विचार से यह कविता अन्यों की अपेक्षा मन को अधिक छू रही है किंतु प्रतियोगिता में पीछे है. त्रासदी के अतिरिक्त कुछ नही है .
मुहम्मद अहसन
कविता बहुत अच्छी लगी
मुहम्मद अहसन जी
किसी भी कविता या गज़ल को देखने का हर इंसान का अलग नजरिया होता है ऐसा तो प्रतियोगिता मे चलता रहता है हो सकता है जो कविता मुझे अच्छी लगे वो मेरे दोस्तो को पसंद ना आये या जो मेरे दोस्तो की नज़र मे बेहतरीन हो मुझे पसंद ना आये
कविताऔ को बस मन की कसौटी पर देखा जाता है और कभी मन उदास हो तो सभी गमगीन रचनाएं अच्छी लगती है खुशी की बात मे भी दर्द नज़र आता है
किसी शायर ने खूब कहा है' दिल ही बुझा हुआ हो तो फसले बहार क्या'
ऐसा तो जीवन मे चलता रहता है
सुमित भारद्वाज
और जब घिरने लगती है
जिंदगी की शाम
फिसलने लगती है
कोरी उपलब्धियाँ हाथों से
तब पीछे घूम कर देखता है
कोई नहीं उसके साथ
ये पंक्तिया बहुत अच्छी लगी
सुमित भारद्वाज
आपकी कविता की एक-एक पंक्ति पढ़ती चली गई, ऐसा लगा अक्षरशः मेरे ऊपर खरी उतर रही हैं. लगता है आपकी कविता के नायक-नायिकाओं में से एक मैं भी हूँ. सर्व्पर्थम आने की लालसा तोः नहीं, किंतु दौड़ मुझे पसंद है.
महानगर में मानव की मृगतृष्णा का सटीक चित्रण है.
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