फटाफट (25 नई पोस्ट):

Monday, September 08, 2008

उजड़ रहे हैं पहाड़


अगस्त माह की प्रतियोगिता में चौथे स्थान की कविता की रचनाकारा कनुप्रिया ने ओ॰ हेनरी की कुछ कहानियों का अनुवाद भी किया है। बी॰ए॰ (अंग्रेज़ी साहित्य आनर्स), एम॰ए॰(अंग्रेजी), बी॰एड॰, एम॰एड॰, एम॰ फिल॰ कनुप्रिया वर्तमान में चंडीगढ़ में रहती हैं।

पुरस्कृत कविता- उजड़ रहे हैं पहाड़

सदियों से
कटते रहे हैं पेड़
पर पहाड़
कभी नंगे नहीं हुए थे
क्योंकि
तब पेड़ कटते थे
जंगल नहीं
अब तो
गुम हो रहे हैं जंगल
और विलुप्त
हो रहे हैं
सियार, लोमड़ी
और शेर,
बादल भी
भूलने लगे हैं
पहाड़ी पगडंडियों के रास्ते
प्यास से
व्याकुल हैं निर्झर
सूख चली हैं झीलें
बुढ़ा रहे हैं
पहाड़ी गाँव भी
पहले भी जाते थे
पहाड़ी मनुख
मैदानों में
रोटी-रोजी की तलाश में
पर लौट आते थे
साल दर साल
और फिर
चैन से बैठकर
हुक्का गुड़गुड़ाते थे
उतर जाते थे
उनके बच्चे मैदानों में,
पर अब
जो जाता है
बस
वहीं का होकर
रह जाता है
लौटकर नहीं आता है
गाँव में
अब न बेटे हैं
न बहुएं
तो
नाती-नातिन
कहां से आयेंगे
पहाड़ी गाँव
अब तो
खांसते हैं बुढ़ाते हुए
निहारते हैं
मोतियाबिंदी आँखों से
धौलाधार को
कंचनजंगा को
और सोचते हैं
कौन देगा
उनकी चिता को आग
....पहाड़ सचमुच उजड़ रहे हैं लोगो


प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ३, ७॰२५, ६॰५५, ६॰७५
औसत अंक- ५॰८८७५
स्थान- छठवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ८, ६, ५॰८८७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰६२९१
स्थान- चौथा


पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'समर्पण' भेंट करेंगे।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

7 कविताप्रेमियों का कहना है :

Unknown का कहना है कि -

कनुप्रिया जी सबसे पहले तो आपको प्रतियोगिता में चौथा स्थान प्राप्त करने हेतु हार्दिक बधाई.
आपकी कविता उजड़ रहे हैं पहाड़ पढ़कर यूँ लगा जैसे कि अपनी देवभूमि में पहुँच गई हूँ. आज के समय में आपकी कविता बहुत सार्थक प्रतीत होती है.
जो जाता है
बस
वहीं का होकर
रह जाता है
लौटकर नहीं आता है
बहुत खुबसूरत पंक्तियाँ हैं.

Nikhil का कहना है कि -

acchi kavita..aage bhi bhaag leti rahein....aapka vishay ekdum alag tha....bahut kam log aise vishayon parr likh rahe hain jabki inpar likha jaana behad zaruri hai....

nikhil

Anonymous का कहना है कि -

बहुत सुंदर कविता
बधाई
सादर
रचना

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

कनुप्रिया जी,
बहुत खूबसूरत और सच्ची कविता है... मुझे पहाड़ बहुत पसंद हैं... आपकी कविता दिल को छू गई...

अब तो
खांसते हैं बुढ़ाते हुए
निहारते हैं
मोतियाबिंदी आँखों से
धौलाधार को
कंचनजंगा को
और सोचते हैं
कौन देगा
उनकी चिता को आग
....पहाड़ सचमुच उजड़ रहे हैं लोगो

बधाई....

Smart Indian का कहना है कि -

सम्पूर्ण कविता ही अच्छी बन पडी है. मगर यह पंक्तियाँ विशेष रूप से अच्छी लगीं.
क्योंकि
तब पेड़ कटते थे
जंगल नहीं
...
...
अब न बेटे हैं
न बहुएं
तो
नाती-नातिन
कहां से आयेंगे
पहाड़ी गाँव
अब तो
खांसते हैं बुढ़ाते हुए
निहारते हैं
मोतियाबिंदी आँखों से
धौलाधार को
कंचनजंगा को
और सोचते हैं
कौन देगा
उनकी चिता को आग


भाषा और व्याकरण का सौंदर्य भी ऑनलाइन साहित्य में आजकल दुर्लभ सा ही होता जा रहा है - आपने उसका भी ध्यान रखा - धन्यवाद!

Pooja Anil का कहना है कि -

कनुप्रिया जी ,

एक सार्थक कविता लिखने के लिए बधाई

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

कनुप्रिया जी,

आपकी कविता बड़ा संदर्भ समेटे है। इस बार अब तक प्रतियोगिता से जितनी भी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं, उसमें सबसे अधिक संभावना आपमें दिखी है मुझे। लिखती रहें।

मैंने इस पहाड़ों को बहुत करीब से उजड़ते देखा है। ऐसा ही दर्द मेरे सीने में भी है।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)