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Saturday, September 27, 2008

आशिकों का आज जमघट कूचए कातिल में है...


भगत सिंह विशेष की दूसरी किश्त

पिछले अंक में आपने भगत सिंह के बचपन, शादी से उनका विद्रोह, नास्तिक बनने की प्रक्रिया और कानपुर तक पहुँचने की बातें पढ़ी, अब पढ़िए आगे॰॰॰॰



... जिस प्रकार भगत सिंह बचपन में मिट्टी के टीलों पर बंदूकें बोते रहे और शहीदों के खून से सनी मिट्टी को बोतल में डाल कर घर लाए, ब्रिटिश को देश से खदेड़ने की शपथ ली उसी प्रकार मोहन दास करमचंद गाँधी के बचपन की भी कुछ प्रतिक्रियाएँ थी. पाँच-छः वर्षों के मोहनदास जिन के पिता गुजरात में किसी रियासत के प्रधानमंत्री थे, जब समुन्दर किनारे से आते-जाते पानी के जहाज़ देखते तो बालसुलभ तरीके से मन में ठान लेते की एक दिन मैं भी इन्हीं जहाजों में कहीं जाऊँगा. पर जब माँ ने बताया कि बेटे इस देश में तो एक फिरंगी कॉम राज करती है. भारत देश उनका गुलाम है. तब छोटे से मोहनदास भी मन में प्रण कर लेते हैं कि मैं बड़ा हो कर इन अंग्रेजों को देश से भगा दूँगा...जब भगत सिंह ने शपथ ली थी तब गाँधी 50 वर्ष के हो चुके थे. भगत सिंह जब कानपूर गए तब उनकी वैचारिकता स्वतंत्र रूप से बन रही थी. वे केवल जोश में आ कर देश को ले कर एक दीवानगी ओढ़े नहीं रहते थे. बल्कि भगत सिंह व अन्य सभी क्रांतिकारी युवकों में एक बड़ा अन्तर यह था कि वे बहुत बड़े विद्वान् भी थे. एक प्रखर बुद्धिजीवी. सन 1917 में लेनिन ने जो रूस में जो मजदूरों की क्रांति ला कर रूस का इतिहास ही बदल दिया, उस का प्रभाव केवल भगत सिंह जैसे युवकों पर ही नहीं पड़ा, वरन समस्त एशिया में लेनिन एक प्रेरणा स्रोत बन गए. 1924 में लेनिन गए तो पूरे विश्व ने सोचा कि दुनिया का सब से बड़ा नास्तिक संत चला गया है. जो व्यक्ति किसी भी देवता की पूजा नहीं करता था, रूसी बहुत श्रद्धा से उसी को पूज्य मानने लगे. पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, जय प्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी,, ऐसे असंख्य कांग्रेसी बुद्धिजीवी लेनिन के कायल थे. भगत सिंह एक प्रकार से लेनिन की प्रतिलिपि थे. यदि इतनी छोटी आयु में शहीद न हो जाते वे भारतीय लेनिन ही बन जाते. यह बात दीगर है कि बाद के दशकों में वामपंथी वैचारिकता पिट गई, पर भगत सिंह की विशिष्टता यह थी कि वे सोचते थे कि क्या आज़ादी मिलने पर हम सब को लक्ष्य मिल चुका होगा? नहीं. बल्कि आज़ादी के बाद तो असली तपस्या शुरू होगी, जिस में हम देश के मजदूरों को उन का अधिकार दिलाएंगे, किसानों को ज़मींदारों के शोषण से बचायेंगे..

गाँधी वामपंथी विचारों में विश्वास नहीं करते थे. यही गाँधी और नेहरू तथा गाँधी और सुभाष में मतभेद था. सुभाष चंद्र बोस के गाँधी से अलग होने की शुरूआत उसी समय हो गई थी जब सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने और मजदूरों के संघर्ष को गहरा करने की योजना बना रहे थे. भगत सिंह, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस आदि वर्ग संघर्ष में विश्वास करते थे तो गांधी वर्ग समन्वय में..

रोचक बात यह है कि भगत सिंह जो कि गांधी से 38 वर्ष छोटे थे का गाँधी से समीकरण वही था जो लेनिन का लियो तोल्स्तोय से था. लेनिन कहते थे - लियो तोल्स्तोय दुनिया के सब से दिग्भ्रमित व्यक्ति हैं, क्योंकि वे इश्वर में आस्था रखते हैं और अहिंसा को धर्म मानते हैं. भगत सिंह अपने एक लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' में गांधी को ले कर कहते हैं - आलोचना व स्वतंत्र चिंतन- किसी क्रांतिकारी के लिए दो अनिवार्य गुण हैं. क्यों कि महात्मा जी महान हैं इसलिए क्या किसी को भी उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए? क्यों कि व ऊंचे उठ चुके हैं इसलिए जो कुछ वे कहते हैं -चाहे राजनीति या धर्म, आर्थिक नीतियों या नैतिकता के बारे में - सही है? चाहे आप उस से सहमत हैं चाहे नहीं, आप को कहना ही चाहिए - हाँ हाँ यह सत्य है? यह मनोवृत्ति प्रगति की ओर नहीं ले जाती. यह स्पष्टतः प्रतिक्रियावाद है. (The Fragrance of Freedom: Writings of Bhagat Singh edited by KC Yadav, Babar Singh p 29).

कुछ महापुरुषों ने ठीक ही कहा है - संसार में कुछ भी ग़लत या सही नहीं है. केवल सोच ही उसे ग़लत या सही बनाती है है. गाँधी नेहरू सुभाष पटेल ये सब अलग-अलग तरीकों से सोचते थे. पर सब का लक्ष्य एक ही था - आज़ादी.

भगत सिंह कानपुर पहुँच कर गणेश शंकर विद्यार्थी के पास गए जिन के नाम एक पत्र उन्हें प्रो. जय चाँद विद्यालंकार ने दिया था. गणेश शंकर विद्यार्थी एक देश भक्त व ऊंचे इखलाक वाले व्यक्ति थे. दुर्भाग्य से भगत सिंह को मृत्यु-दंड मिलने से अगले दिन यानी 24 मार्च 1931 को कानपुर में अचानक भड़के हिंदू-मुस्लिम दंगों में कुछ मुसलामानों को बचाते-बचाते गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे महापुरुष शहीद हो गए.

भगत सिंह से मिल कर वे उनकी शख्सियत से बेहद प्रभावित थे. प्रबुद्धता में भगत सिंह अपनी आयु के सभी युवकों को पीछे छोड़ चुके थे. विश्व के सभी देशों के स्वाधीनता संग्राम पढ़ते व विभिन्न वैचारिकताएँ. कार्ल मार्क्स की तरह भगत सिंह भी मानते थे कि धर्म एक अफीम है, जिस का नशा विनाशकारी ही हो सकता है.

गणेश शंकर विद्यार्थी ने भगत सिंह को अपनी 'प्रताप-प्रेस' का प्रभार दिया. उनके सुझाव पर उन्होंने अपना नाम बदल कर बलवंत सिंह रख दिया. भगत सिंह ने वहां वीर-अर्जुन समाचार पत्र में भी काम किया व कानपुर के निकट 'नेशनल स्कूल' के हेड मास्टर भी बने. पर उनकी शख्सियत को उस समय स्फूर्ति मिली जब वे राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा संचालित 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन' के सदस्य बन गए. वहीं उनका परिचय चंद्रशेखर आजाद जोगेश चंद्र चैटरजी, बेजोय कुमार सिन्हा जैसे जांबाज़ नौजवानों से हुआ . भगत सिंह का अब एक ही ध्येय था - लोगों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए तैयार करना. उनके भीतर का लेनिन सक्रिय हो चुका था. केवल एक ही अन्तर था लेनिन और भगत सिंह में, जिसे जीवन के अंत तक पहुँच कर भगत सिंह ने अप्रत्यक्ष तरीके से स्वीकारा. सब जानते हैं रूस में लेनिन की bolshevik पार्टी की सरकार बनने से पूर्व रूस में ज़ार (रूसी राजा) का राज था. ज़ार एक के बाद जो भी बनता बहुत जालिम होता. जनता भूखों मरती. कभी-कभी जनता ऐसी बदहालत तक भी पहुँच जाती कि पाँच सितारा होटलों की नालियों से बाहर निकल रही शराब को चुल्लुओं में भर कर पीती और डबल रोटी की टुकड़े उठा उठा कर खाती. जनता जार के जुल्मों के नीचे छटपटाती. कई नौजवान आतंकवाद के रस्ते पर चल पड़े. एक दिन लेनिन को पता चला कि उस के भाई को पुलिस पकड़ ले गई है. क्योंकि उसने ज़ार की हत्या करने का प्रयास किया है. पूरा झुंड ही पकड़ा गया है. लेनिन को दुःख होता है. सोचते हैं मेरे भाई, यदि तुम्हारी गोली से ज़ार मर जाता तो क्या रूस की जनता के दुःख दूर हो जाते!

यही लेनिन की दृष्टि थी, यही लेनिन का दर्शन. लेनिन छुप-छुप कर गोली चलाने में विश्वास नहीं करते थे. वे जनता को साथ ले कर चलने में और अंततः सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे. जनता के बीच उस समय तक केवल छटपटाहट थी. आक्रोश था. पर जनता को एकत्रित करना उस के भीतर संघर्ष की और युद्ध की चेतना पैदा करना सब से पहला काम था. लेनिन ने यही किया. मजदूरों को एकत्रित किया. जब मजदूरों की पहली हड़ताल कराई तब ज़ार के भी होश उड़ गए थे....

'हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन' के जांबाज़ नौजवान अपनी जान को हथेली पर रख कर जीते. इनमें से रामप्रसाद बिस्मिल तो एक जुनूनी से नौजवान थे. बहुत सुंदर कवितायें गजलें लिखते. आर्य समाजी होने के नाते इश्वर की बहुत भक्ति करते. वे कहते -

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे.
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्रे-यार तेरी जुस्तजू रहे.

उनके जीवन का एक ही सपना होता:

उरूज़े कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना गुलसितां होगा

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे-कातिल
बता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा.

मृत्यु विचार उन्हें भयभीत नहीं करता था. इसीलिए कहते:

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है,
सुना है आज मकतल पर हमारा इम्तिहाँ होगा.

पर जो फर्क लेनिन में और उस के भाई में था वही लेनिन और इन जांबाज़ नौजवानों में था. ये लोग लेनिन की तरह जनता को आयोजित नहीं करते थे. बल्कि जनता से छुप कर इन सब को रहना पड़ता था. कभी नाम बदलते तो कभी मकान. कभी वेशभूषा. आम जनता से अलग रह कर भी संपर्क में आए नौजवानों को देख-परख कर अपने साथ मिला लेते और उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार काम देते. पर सभी की आंखों का सपना एक ही होता, आज़ादी.

धन के लिए इन्हें छुप कर ही चंदा एकत्रित करना पड़ता. अक्सर ऐसे तरीके भी अपनाने पड़ते जो आम भाषा में नैतिक नहीं माने जाते. राम प्रसाद बिस्मिल और उस के साथियों ने 9 अगस्त 1925 को एक रेलगाड़ी 8-down जो काकोड़ी (उत्तर प्रदेश) स्टेशन जा रही थी, के एक डिब्बे से रेलवे का कैश चुराया. पूरा गुट पकड़ा गया. मुकदमा चला. चार जांबाज़ नौजवानों को फांसी की सज़ा सुनाई गई. 17 जनों को उम्र कैद. केवल चंद्रशेइखर आजाद उर्फ़ पंडितजी लापता हो गए. जिन चार जवानों को मृत्युदंड मिला, वे थे- राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिरी अशफाक-उल्ला-खान और रोशन सिंह. इन सब ने हँसते-हँसते मृत्यु का वरण कर लिया. शहादत जिनके लिए जश्न होती है, उन्हीं के लिए बिस्मिल स्वयं ही लिख गए-

शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा.

बिस्मिल ने फांसी के तख्ते पर खड़े हो कर बुलंद आवाज़ में ब्रिटिश को एक संदेश दिया -

I want the downfall of the British empire.

अशफाक-उल्ला मुस्लिम थे. पर क्या धर्म के अन्तर को इन सब नौजवानों ने कभी सोचा? उनका एक ही धर्म था, जो भगत सिंह ने बचपन में कहा था- देशभक्ति!

अशफाक-उल्ला को जब फैजाबाद की जेल में फांसी के लिए चलने का आदेश मिला, तब उन्होंने भी अपने एक शेर में ब्रिटिश का दो टूक परिचय दे दिया.

तंग आ कर हम उनके ज़ुल्म से बेदाद से,
चल दिए सू-ऐ अदम जिन्दाने फैजाबाद से

(अर्थ- बेदाद = अत्याचार, सूए अदम = अदम के मुल्क यानी स्वर्ग की तरफ़, जिन्दाने = जेल).

ये सब नौजवान इतिहास के पन्नों को अपने खून का बलिदान दे कर चले गए. पर क्या उनके द्वारा जलाई गई आज़ादी की पवित्र ज्योति बुझ चुकी थी? नहीं. उसे अपने खून रुपी तेल देने के लिए भगत सिंह जो थे. दिल्ली के फिरोजशाह कोटला जाने वाले सब जानते हैं. सितम्बर 1928 में भगत सिंह के नेतृत्व में अनेक नौजवान एकत्रित हुए, ऐसे, जैसे बिस्मिल की पंक्तियाँ हैं:

खींच लाई है सभी को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है.

किसी गरीब से लड़के ने जो वहां पार्क में कोई काम करता था, वहां पूछा- ये सब लड़के यहाँ क्यों इकठ्ठा हुए हैं?
भगत सिंह ने उत्तर दिया - ये सब किसी परीक्षा की तैय्यारी करने आए हैं. कोई और बात नहीं है.

उसी परीक्षा में न जाने जिंदगी से जुड़े कौन-कौन से कठिन प्रश्न होंगे. भगत सिंह बिस्मिल की पार्टी 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन' को एक नया नाम देते हैं, अपनी वैचारिकता के अनुकूल - 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन'. भारत को एक समाजवादी रस्ते पर ले जाने का उनका सपना जो था.

क्रमशः.................

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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

बहुत रोचक जानकारी दे रहे हैं सहजवाला जी। मुझे आपके अगले अंक का इंतज़ार रहेगा। बीच-बीच में बिस्मिल और अश्फाक के शे’र मन में देशभक्ति का जज़्बा जगा रहे हैं।

शोभा का कहना है कि -

भगत सिंह के बारे मैं इतने विस्तार से आज ही जाना . आपने बहुत सुंदर रूप से लिखा है. उस अमर शहीद को मेरा शत-शत नमन.

Anonymous का कहना है कि -

sahajwala ji,
behatarin jankaari ke liye shukriya.agle ank ka intjaar rahega.
ALOK SINGH "SAHIL"

विश्व दीपक का कहना है कि -

प्रेमचंद जी, आप बहुत हीं उम्दा कार्य कर रहे हैं।
शहीद भगत सिंह के बारे में जानकारियां उपलब्ध कराने के लिए बधाई स्वीकारें।

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