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Monday, September 29, 2008

क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)


'भगत सिंह विशेष' शृंखला में आप पढ़ रहे है प्रेमचंद सहजवाला की कलम से भगत सिंह के जीवन के बारे में। पहली और दूसरी कड़ी हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। आज पढ़िए तीसरी कड़ी की पहली खेप॰॰॰॰


(निवेदन - लाजपत राय से सम्बंधित दो किस्तें में एक ही शीर्षक के अंतर्गत दे रहा हूँ. यह पहली किस्त है).

सन 1928. भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक महत्वपूर्व वर्ष. गाँधी को कुछ भड़काने वाले लेख लिखने के कारण 10 मार्च 1922 को साबरमती आश्रम से गिरफ्तार किया गया था और 18 मार्च 1922 से उन पर मुकदमा चला कर आख़िर छः वर्ष के लिए बर्मा जेल भेज दिया गया था. पर स्वास्थय की खराबी के कारण उन्हें 11 जनवरी 1924 को ही रिहा कर दिया गया. बंगाल के धुरंधर नेता चित्तरंजन दास गुप्ता ने गाँधी पर चले मुक़दमे की तुलना रोम में ईसा मसीह पर चले मुक़दमे से की थी. सुभाष चंद्र बोस गाँधी की तुलना गौतम बुद्ध व ईसा मसीह से करते थे. वे अपनी पुस्तक 'Indian struggle' में लिखते हैं कि महात्मा का बैठ कर काम करने का अंदाज़ गौतम बुद्ध जैसा था, व जब वे खड़े होते तो ईसा मसीह से लगते. पर चित्तरंजन दास गुप्ता गांधी की शख्सियत की अलौकिकता के बावजूद गाँधी से गहरा मतभेद रखते थे. बंगाल कांग्रेस के दो गुट थे. एक गाँधी-समर्थक व एक गाँधी-विरोधी. दरअसल बंगाल के कई लोग गाँधी के शुद्ध शाकाहारीपन पर भी गाँधी से मतभेद रखते थे. कुछ गाँधी से यह कहते थे कि कम से कम मछली खाने को आप मांसाहारी भोजन में शामिल न करें, क्योंकि मछली मस्तिष्क के लिए एक पौष्टिक भोजन है. पर चित्तरंजन दास व गांधी के मतभेद इस बात पर अधिक थे कि कांग्रेस को असेम्बली चुनावों में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं. गाँधी के जेल जाते ही चित्तरंजन दास ने मोतीलाल नेहरू व विठल भाई पटेल से मिल कर एक 'स्वतंत्र पार्टी' बना ली व असेम्बली चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. गाँधी जेल से रिहा हुए तब तक असेम्ब्लियाँ अपना कार्य शुरू कर चुकी थी. गाँधी किसी भी नेता के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते थे. इसलिए जेल से निकल कर राजनीति से दूर रहे. ताकि चित्तरंजन दास के नेतृत्व में कांग्रेस के सभी नेता स्वतंत्र रूप से देश का कार्यभार संभाल सकें . लोकतंत्र का तकाजा यही था कि वे अपनी तानाशाही न चला कर दूसरों को भी अपने रास्ते पर चलने दें. यह उनकी महानता का एक विशेष आयाम था. पर दुर्भाग्य से 16 जून 1925 को चित्तरंजन दास का देहांत हो गया . गाँधी जेल से निकल कर खाली बैठने वाले लोगों में से न थे. वे तो श्रीमद भगवत गीता के कर्म सिद्धांत में अटूट विश्वास रखते थे. उनके पास चरखे का प्रचार करने से ले कर हरिजन उद्धार व हिंदू-मुस्लिम एकता जैसे असंख्य कार्य थे. वे कर्मशीलता की एक अभूतपूर्व मिसाल थे. कहीं भाषण करते तो हजारों नर नारी किसी राजनीतिक नेता के नहीं, वरन किसी महात्मा के दर्शन करने आते. पर 1928 आते-आते मोतीलाल नेहरू को लगा कि 'स्वतंत्र पार्टी' बना कर असोम्ब्लियों में हिस्सा लेने का प्रयोग केवल मृग-तृष्णा साबित हुआ. सब ने सोचा था कि सांसद बन कर भीतर से ही ब्रिटिश के संविधान को फ़ेल कर देंगे. ब्रिटिश जो क़ानून बनाना चाहेगी हम उसे मतदान में ही विफल कर देंगे तथा हम जनता के पक्ष में जो क़ानून बनायेंगे वह पारित कर के छोडेंगे. पर ब्रिटिश बड़ी शातिर कौम थी. वह अपने कानून वायसराय को दिए विशेषाधिकारों द्वारा पारित करा कर छोड़ती तथा कांग्रेस द्वारा पारित विधेयकों को उन्हीं अधिकारों के हथियार से से विफल करा देती. अब मोतीलाल नेहरू आख़िर किस के पास जाते. वे दरअसल उन दिनों एक और विपदा में भी फंसे थे और वह यह कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष तो बन गए थे पर उनके सब से बड़े विरोधी उन के घर के चराग़ ही थे . यानी जवाहरलाल नेहरू! सन 1928 में कांग्रेस ने सोचा कि जनता के लिए हमें एक संविधान बनाना चाहिए. और इस के लिए मोतीलाल के नेतृत्व में एक 'नेहरू-समिति' बनी जिसने 'नेहरू रिपोर्ट' बनाई. उस रिपोर्ट में ब्रिटिश से आज़ादी संपूर्ण नहीं मांगी गई थी, वरन ब्रिटिश के अधीन आज़ादी की मांग की गई थी (Dominion Status). पर जवाहरलाल नेहरू अड़ गए थे कि नहीं, आज़ादी लेंगे तो संपूर्ण आज़ादी लेंगे, वरना! और कलकत्ता में कांग्रेस का सत्र होना था जिसमें मोतीलाल नेहरू को सब से ज़्यादा विरोध का डर था अपने ही साहबजादे से. गाँधी को उन्होंने पुकार भरा पत्र भेजा कि आ कर कोई रास्ता निकालें और गाँधी पिता-पुत्र की सुलह कराने के बहाने सहसा फ़िर राजनीति में आ गए! देश के मसीहा थे न वे.

गाँधी ने जवाहरलाल को बहुत प्रेम से समझाया. गाँधी कभी कभी जवाहरलाल को बहुत प्यार से पत्र लिखा करते थे, कि तुम कांग्रेस के अधिवेशनों में कुछ ऐसे जोशीले भाषण क्यों करते हो, जैसे स्कूली बच्चे वाद-विवाद प्रतियोगिता में करते हैं! जवाहरलाल और गाँधी के बीच कलकत्ता अधिवेशन से पहले ही समझौता हो गया कि हम अंग्रेजों से अभी Dominion Status ही मांगेंगे और उसे एक वर्ष का अल्टीमेटम देंगे. अगर एक वर्ष बाद भी संपूर्ण आज़ादी नहीं मिली, तो हम संपूर्ण आज़ादी की मांग को ज़ोर शोर से रखेंगे ...

इधर ब्रिटिश को सूझी कि भारत के लोगों के लिए कोई संवैधानिक परिवर्तन हम भी करें. इसलिए ब्रिटिश ने 'नेहरू रिपोर्ट' की परवा न कर के एक 'साइमन कमीशन' भेज दिया. इस 'साइमन कमीशन' का भारत में कड़ा विरोध हुआ. सभी पार्टियों ने डट कर इस कमीशन को लताड़ा कि जो कमीशन भारतवासियों की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए भारत के शहर -शहर गांव-गांव जाएगा, क्या उसमें एक भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं होगा? सब भड़क उठे. जिन्ना तक ने कमीशन का विरोध किया. साइमन कमीशन की टीम जहाँ जहाँ जाती, लाखों लोग एकत्रित हो कर उस का विरोध करते. 'साइमन .. वापस जाओ' 'साइमन.. वापस जाओ'' के नारों से आकाश गूँज उठता. लखनऊ के एक नेता खालिकज़म्मान ने लखनऊ में सैंकड़ों पतंगें उडवाई और आसमान से बातें करती हर पतंग पर लिखा था - 'साइमन...वापस जाओ' 'साइमन...वापस जाओ'. बंबई-पूना में क्या हुआ कि जब साइमन टीम रेलगाडी में पूना गई तो साथ साथ दौड़ती सड़क पर कई नौजवान जीपों या अन्य गाड़ियों में रेलगाडी के साथ साथ धुआंधार गति से चलते और नारों से आसमान गूंजता - 'साइमन...वापस जाओ'.. 'साइमन...वापस जाओ'

...साइमन कमीशन एक रेलगाडी में लाहौर जाने वाला है
....और वहां जनता के कर्णधार हैं 'शेरे पंजाब' लाला लाजपत राय...
...यहाँ लाला लाजपत राय के बारे में चंद बातें कहनी ज़रूरी हैं .

लाजपत राय के विषय में हर भारतीय जानता है कि वे बहुत ऊंचे चरित्र के एक शुद्ध-ह्रदय देश-भक्त व्यक्ति थे, जिन्होंने शुरुआत अंग्रेजों के ज़मीन-सम्बन्धी कानूनों के विरोध से की. छः वर्ष वे भी बर्मा की जेल में गए थे. तब पंजाब के किसानों के बीच एक गीत बहुत चलता था- 'पगड़ी संभाल जट्टा...पगड़ी संभाल ..' पगड़ी जो कि किसी भी गांववासी के लिए सम्मान का प्रतीक है और फिरंगी कौम के आगे उस सम्मान को बचाना अनिवार्य है..

पर लाजपत राय अपनी पुस्तक ' The Story of My Life' में अपने परिवार का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनके पिता बचपन में एक बहुत प्रखर विद्यार्थी थे और हमेशा प्रथम आते. उनके स्कूल के प्रिंसिपल एक बहुत ही पवित्र-हृदय व धार्मिक वृत्ति के मुस्लिम विद्वान् थे. अपने सभी विद्यार्थियों को इस्लाम की पवित्र शिक्षा से उन्होंने इस सीमा तक प्रभावित कर रखा था कि कई विद्यार्थी मुस्लिम भी बन गए थे . लाजपत राय के पिता मुंशी राधा किशन आज़ाद मुस्लिम तो नहीं बने, पर एक मुस्लिम जैसा जीवन जीते थे. नमाज़ पढ़ते थे व रमजान के महीनों में रोज़े रखते थे. और संयोग कि उनकी शादी हुई एक सिख महिला गुलाब देवी से! और इन दोनों से जन्मे लाजपत राय बड़े हो कर बने आर्य-समाज के प्रखर विद्वान्! आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने मूर्ति पूजा भले ही समाप्त कर दी, हो पर चारों वेदों की पुस्तकें किसी भी आर्य समाजी व्यक्ति के लिए पूज्य पुस्तकें बन गई. लाजपत राय भी वेदों को पूरे ब्रह्माण्ड में सर्वोपरि मानते थे, जब कि उन के पिता हिंदू धर्म की आलोचना करते थे. माँ जपजी साहब पढ़ती पर देवताओं की पूजा भी करती, पर अक्सर रो पड़ती क्यों कि उसे पति के इस्लामी तरीके पसंद नहीं थे! पर गुलाब देवी ने पति को कभी त्यागने का विचार किया हो, ऐसा नहीं है. और मुंशी राधा किशन को पता था कि यदि वे मुस्लिम बन गए तो गुलाब देवी बच्चों समेत अपने मैके चली जायेगी! परिवार के सदस्यों का आपसी प्रेम अटूट था व सब का अपना अपना ऊंचा चरित्र व मानवीयता उनके साथ. वरना ये तीनों तो मानो दूर-दूर स्थापित द्वीप थे. लाजपत राय लिखते हैं कि अपने जीवन के चालीसवें वर्ष तक उन के पिता शुद्ध इस्लामी जीवन व्यतीत करते रहे, पर धीरे धीरे उनमें परिवर्तन तब आया जब लाजपत राय ने आर्य-समाज अपना लिया. तब, लाजपत राय का कहना है कि उनके पिता को हिंदू ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ पढ़ने को मिले जिस के बाद उनमें हृदय परिवर्तन होता गया.

ये सब बातें मैं ने लाजपत राय जैसे महान देश भक्त के विषय में क्यों लिखी? सब जानते हैं कि अपने-अपने धर्म में अटूट आस्था होना बहुत अच्छा है. पर अपने धर्म के पीछे हम अक्सर इस कदर धर्मांध हो जाते हैं कि दूसरे के धर्म को तुच्छ व हीन समझते हैं. यहीं से मानव-मानव में भेद शुरू हो जाता है. जहाँ लाजपत राय के पिता हिंदू धर्म के आलोचक थे, वहीं उन की माँ कमरे में बंद हो कर कर अक्सर रोती रहती, क्योंकि उन्हें लगता कि शायद वे एक दिग्भ्रमित व्यक्ति के साथ जी रही हैं जो इस्लाम के इस कदर दीवाने हैं कि उन्हें घर में कोई मूर्ति तक अच्छी नहीं लगती ! अपने घर में आए मुसलमान अतिथियों की वह आवभगत बहुत अच्छी पत्नी होने के नाते करती, पर पति के धार्मिक विश्वाशों से उसे वितृष्णा थी! अब लाजपत राय को समझना भी कठिन नहीं. भारत के स्वाधीनता-पूर्व काल में देश के पास लोकमान्य तिलक, मदन मोहन मालवीय व लाजपत राय जैसे पवित्र-चरित्र नेताओं का होना देश के लिए एक वरदान ज़रूर था, पर विशेष कर इन तीनों के विषय में इतिहासकारों ने यह भी लिखा है कि तीनों में एक गोपनीय सी साम्प्रदायिकता भरी थी, जो उनके कई समकालीन लोग पसंद नहीं करते थे. उदाहरण के तौर पर लोकमान्य तिलक ने जब गणेश का त्यौहार प्रारम्भ किया, तब आम हिंदू जनता बेहद प्रसन्न थी पर अचानक हिंदू- मुस्लिम समीकरण गड़बड़ा गए थे. गोपाल कृष्ण गोखले, गोपाल गणेश अगरकर व महादेव रानाडे जैसे महापुरुषों को, जो स्वयं ऊंचे इखलाक वाले हिंदू थे, यह कदम पसंद नहीं आया, क्यों कि गणेश का त्यौहार प्रारम्भ होते ही हिंदू-मुस्लिम जनता के बीच एक असहजता सी आ गई. अगले ही वर्ष बम्बई में दंगे भी हो गए. गोखले और तिलक के अनुयायी तो एक दूसरे के ख़िलाफ़ इतने आक्रामक थे कि 1909 के गणेश त्यौहार में तिलक समर्थक नारे लगाने लगे- गोखले कातिल है, गोखले कातिल है..

जब हम इतिहास पढेंगे तो वरदानों से ही साक्षात्कार नहीं होगा, वरन कड़वी से कड़वी बातें भी पढ़ने को मिलेंगी. लाजपत राय व मदन मोहन मालवीय के विषय में इतिहास यही कहता है कि दोनों को हिंदू संस्कृति पर अटूट गर्व था पर इसीलिए दोनों के ह्रदय में एक गोपनीय सी संकीर्णता भी थी कि कदाचित मुस्लिम व ब्रिटिश संस्कृतियाँ हमारे हिंदू culture को समाप्त कर देंगी! वे तो महापुरुष थे, अपने-अपने विश्वासों तक सीमित रहते, पर आज जिन्हें संस्कृति के गिद्ध कहा जाता है, यानी culture vultures, वे तो तोड़ फोड़ व हत्या तक पर उतर आते है...

लाजपत राय की धार्मिक कट्टरता भगत सिंह को अच्छी नहीं लगती थी. वे तो कार्ल मार्क्स के कायल थे और लेनिन के. इसलिए नास्तिक थे. धर्म ने और अंधविश्वासों ने देश व दुनिया को इतनी ज़्यादा हानि पहुंचाई है, कि उसकी भरपाई करना बहुत मुश्किल है. पर क्या भगत सिंह लाजपत राय का निरादर करते थे? यह कहना सरासर ग़लत होगा. भगत सिंह के लिए लाजपत राय से अधिक श्रद्धेय व्यक्ति कोई था ही नहीं. उनकी देश-भक्ति भगत सिंह के लिए प्रेरणा थी. लाजपत राय के ही कॉलेज में वे स्कूल छोड़ कर गए थे. पर नास्तिकता और आस्तिकता (जो कि हृदय की गहराइयों में कहीं साम्प्रदायिकता का रूप ले चुकी थी) की टकराहट में इन दोनों महापुरुषों के बीच एक रोचक सा अध्याय भी आया, यही लिखना इस किस्त का ध्येय है. भगत सिंह लाजपत राय से लगभग 42 वर्ष छोटे थे. युवा हो गए तब भी वे उनके आगे बालक ही थे. पर लाजपत राय की धार्मिकता भगत सिंह को स्वाधीनता के रास्ते में एक रुकावट सी लगती है. उन्हें लगता है कि आज़ादी के लिए किसी भी व्यक्ति पर किसी भी धर्म का लेबल नहीं होना चाहिए. इसलिए एक दिन क्या होता है, कि लोगों के हाथों में भगत सिंह द्वारा छपवा कर बांटा हुआ एक pamphlet आ जाता है. उस pamphlet में और कुछ नहीं, एक अंग्रेज़ी कविता है, जिस पर लाजपत राय का नाम नहीं है, पर बाहर उनकी तस्वीर है. कविता अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि Robert Browning की है 'The Lost Leader'. Robert Browning ने वह कविता William Wordsworth पर व्यंग्य करने के लिए लिखी थी क्यों Wordsworth उदारता को स्वीकार नहीं कर रहे थे. भगत सिंह और लाजपत राय में भी प्रश्न संकीर्णता व उदारता का था. जब भगत सिंह ने 6 अप्रैल 1928 को पंजाब में अपनी नई संस्था 'नौजवान भारत सभा' का घोषणा-पत्र प्रस्तुत किया, तब उन्होंने अपने भाषण में साफ़ शब्दों में कहा था कि धार्मिक अंधविश्वास तथा धर्मान्धता हमारी प्रगति के लिए एक बड़ी रुकावट हैं...हमें इनसे मुक्ति पानी ही चाहिए...हिन्दुओं की संकीर्णता व पुरातन पंथता, मुसलामानों की सार्वभौमिकता व कट्टरता, तथा सामान्य रूप में सभी सम्प्रदायों की संकीर्ण मानसिकता का विदेशी शत्रुओं ने हमेशा शोषण ही किया है.. ('The Fragrance of Freedom: Writings of Bhagat Singh' edited by KC Yadav, Babar Singh pp 332-333). उस सभा में भगत सिंह के नेतृत्व में सभी उपस्थित युवक इस बात पर सहमत थे कि 'नौजवान भारत सभा' में आने वाला कोई भी सदस्य किसी भी सांप्रदायिक संस्था यथा 'हिंदू महासभा' या 'राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ' आदि का सदस्य नहीं होगा. इधर लाला लाजपत राय के जब मोतीलाल नेहरू से मतभेद हुए तो उन्होंने स्वतंत्र पार्टी छोड़ दी और हिंदू महासभा में चले गए. मदन मोहन मालवीय, तथा एन सी केलकर भी गए . इन तीनों ने कांग्रेस व मोतीलाल नेहरू पर हिंदू-विरोधी, इस्लाम-प्रेमी आदि होने के इल्जाम लगाये तथा उन्हें गो-हत्या को बढावा देने वाले व गोमांस खाने वाले बताया..

Robert Browning ने अपनी कविता में लिखा था:
(कुछ पंक्तियों का अनुवाद) :

केवल मुट्ठी भर चांदी के लिए उस ने हमें छोड़ दिया!
केवल एक रिबन उसके कोट से चिपका रहे, इसलिए!
हम,
जिन्होंने उसे ऐसे प्यार किया, उसका अनुसरण किया, सम्मान किया,
उसकी महान भाषा सीखी, उसके स्पष्ट उच्चारणों को समझा,
उसे अपना प्रतीक बनाया, जीने और मरने के लिए!...

केवल वही... पिछवाडे में और गुलामों के बीच डूब रहा है!..

हम आगे बढ़ते रहेंगे - उसकी उपस्थिति के माध्यम से नहीं,
गीत हमें उत्तेजित करेंगे.. पर उसकी गीतावली से नहीं..
उसका नाम मिटा दो!.. एक और आत्मा खो गई है, यह लिख डालो...


ऐसी बेबाकी, अपने स्तुत्य नेता के लिए, केवल भगत सिंह ही कर सकते थे न!

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

Prem Chand Sahajwala का कहना है कि -

उपरोक्त किस्त में गलती से 'स्वराज पार्टी' को 'स्वतंत्र पार्टी' लिख दिया गया है. इस भूल के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ. पाठक चित्तरंजन दास मोतीलाल व विट्ठल भाई पटेल द्वारा बनाई पार्टी को कृपया 'स्वराज पार्टी' पढ़ें.

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही अच्छा लिखा है आप ने काफी छान बीन की है .औए हमारा ज्ञान बढाया है आप का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
रचना

विश्व दीपक का कहना है कि -

बहुत हीं अच्छा वर्णन।
बहुत कुछ जानने को मिला।
धन्यवाद एवं बधाईयाँ!

Harihar का कहना है कि -

बहुत अच्छी जानकारी भरा लेख है प्रेम जी

Avanish Gautam का कहना है कि -

प्रेम जी बहुत अच्छा कार्य कर रहे है आप! आभारी हूँ!

Sajeev का कहना है कि -

प्रेमचंद जी आप तीनो कडियाँ एक साथ पढ़ी, एक साँस में, गजब का लिखते हैं आप, सबसे अच्छी बात ये लगी की आपने हर परिवेश को एक काव्यात्मक रूप रेखा दी है-
पूछे जाने पर की तुम्हारा धर्म क्या है, वह बालक जवाब देता है - देशभक्ति!
काश ये आज का हर युवा बोल पाता, आप जैसे लेखकों की बहुत जरुरत है आज के समय में, हिंद युग्म परिवार के वरीष्टतम सदस्य से हिंद युग्म को बहुत सी उम्मीदें हैं.

Anonymous का कहना है कि -

bahut mehnat ki hai aapne.shayad isi ka parinam hai itna sunder aalekh.
alok singh "sahil"

Amitraghat का कहना है कि -

kaash aaj bhagat singh chandrashekhar aazad fir dharti par janm le shaandaar likha hai
bhagat sing se sambhandhit logon ke baare me bhi achchi jaankaari mili unke prenasrot rahe logon ka bhi unki vichaar dhara ka bada yogdaan hai bhagat singh ka bhagat singh banne me.

pranav saxena
" amitraghat "

Anonymous का कहना है कि -

अच्छा लिखा है। बेहतरीन। एक तटस्थ दर्शन झलकता है। सबको समान भाव से देखने क आपका आग्रह स्पष्ट होता है।

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