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Friday, August 29, 2008

सफाई है न सुघड़ता, न कोई बच्चा तेरा पढ़ता (क्या यह जनसंख्या विस्फोट है?)


आज एक कविता प्रस्तुति जो भारत की बड़ी समस्याओं में से एक जनसंख्या विस्फोट पर केंद्रित है। पिछली यूनिकवि प्रतियोगिता में १२वें पायदान पर भी रही। इस कविता की रचयिता शकुन श्री के बारे में हमारे पास अधिक जानकारी नहीं है, बस इतना छोड़कर कि वो ग़ाज़ियाबाद में रहती हैं।

कविता- जनसंख्या विस्फोट

मानसरोवर के राजहंसो
जरा बताओ तो तुम्हारा गुरु कौन है?
कितने सुन्दर, सधे और शांत हो?
न तुम भटके न क्लान्त हो।
सुना है कि तुम मोती चुगते हो,
पानी मिले दूध से केवल दूध को पीते हो।
विद्वानों की तुलना तुमसे की जाती है,
तुम्हें भी तो भीड़भाड़ कभी नहीं भाती है।
तुम मानसरोवर की गरिमा को बढ़ाते हो,
विवेक की कसौटी पर मात नहीं खाते हो।
तुमने मानसरोवर के जल को गंदा नहीं किया,
ना ही जनसंख्या विस्फोट का बुलबुला बुलंद किया।
तुम्हें भारत का एक और रूप दिखाती हूँ,
भारत के बड़े शहरों और गांवों में ले जाती हूँ।
ओफ्फो! कितना शोर है माहौल में,
चलते व्हीकल और चीखती रेल में।
शोर और धुआं उगलती फैक्ट्रियां,
भरे पड़े हैं अपराधी जेल में।
हाय! हाय! यहां तो दुर्गंध ही दुर्गंध है,
बहता पानी भी तो जगह-जगह बंद है।
ये कूड़ा, ये करकट, ये नहाते मवेशी,
स्वदेशी नदियां भी बन गईं विदेशी।
देखो-देखो यहां तो लोग ही लोग भरे पड़े हैं,
किसी की सुनते नहीं अपनी पर अड़े हैं।
इन लम्बी लम्बी कतारों का कोई अंत नहीं,
इन्हें सूझबूझ देने वाला कोई महंत नहीं।
न स्कूल में जगह है, न अस्पताल में,
न ही इस टू रूम फ्लैट के हॉल में।
जनसंख्या बढ़ाई है भारत के नौनिहाल ने।
खुद ही फंस गया अब अपने बुने जाल में,
नैतिकता कहां से लायें, रोजगार चाहिए,
देष को भी बचायेंगे, पहले पोषण और प्यार चाहिए।
जनसंख्या बढ़ गई साधन कम पड़ गये,
आतंकवाद, घूसखोरी, काले धंधे बढ़ गये।
इससे अच्छी तो छमिया की झोंपड़ी है,
जहां बदबू नहीं बस टूटी खाट ही तो पड़ी है।
पर अरे! छमिया तू बूढ़ी कैसे हो गई,
तेरी उछलकूद और सारी हंसी कहां खो गई?
क्या ये पांचों बच्चे तेरे हैं,
जो घर के कोने-कोने को घेरे हैं,
तू ऐसे हक्की बक्की क्यों खडी है?
हालात बता रहे हैं कि तू मुसीबत में पड़ी है।
सफाई है न सुघड़ता, न कोई बच्चा तेरा पढ़ता,
कहां से लायेगी सुविधाएं और साधन?
जला रही है काट काट कर सुन्दर वन।
कभी सोचा है धन धान्य बिना कैसा होगा जीवन?
विवेकशील राजहंसों का खून रूक गया,
आबादी देख कर उनका सिर शर्म से झुक गया।
मनुष्य जो भगवान का बेटा है,
गुण ज्ञान और दूरदर्शिता में इतना खोटा है।
राजहंस सिसकियों से रोने लगे,
अपने काले हुए पंख आंसुओं से धोने लगे।
उड़ने से पहले कहा - हम समाधि लगायेंगे,
ईश्वर मिला तो इंसान के लिए सद्‌बुद्धि ले आयेंगे।



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ६, ४॰५, ६॰०५, ७
औसत अंक- ५॰१३७५
स्थान- सत्रहवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक-४॰ ५, ५, ५॰१३७५(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰८७९१
स्थान- बारहवाँ

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5 कविताप्रेमियों का कहना है :

वीनस केसरी का कहना है कि -

अच्छी कविता ..................
वीनस केसरी

shama का कहना है कि -

Kavitaa aachhee hai!Mai pehlebhee aapke blogpe aayee thee, lekin comment denese pehle bijlee gul ho gayi thi!
Mere blogpe jo aapne comment chhoda"Ek baar...."pe, uske liye bohot,bohot shukriya. Aaplog jo sahas bandhate hai, hausala afzaaee karte hain, isiliye likh paatee hun!

BRAHMA NATH TRIPATHI का कहना है कि -

जनसंख्या बढ़ाई है भारत के नौनिहाल ने।
खुद ही फंस गया अब अपने बुने जाल म

शकुन जी आप की इन पंक्तियों का मतलब समझ नही आया
कविता अच्छी है
पर इसमे हमारे देश के नौनिहालों का क्या कसूर कसूर तो उनके जन्मदाताओ का है जो इसके लिए उत्तरदायी है

दीपाली का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
दीपाली का कहना है कि -

कविता एक लय में लिखी होने के कारन पढ़ने में बहुत आन्नद आया.किंतु नौनिहाल से आपका क्या तात्पर्य है यह मुजे भी समझ नही आ रहा

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