महीने की आखिरी तारीख और प्रतियोगिता की आखिरी कविता। जुलाई माह की प्रतियोगिता से १६वीं कविता 'एक पागल' आपकी नज़र कर रहे हैं। इसकी रचनाकारा कवयित्री लक्ष्मी ढौंडियाल मूलतः गढ़वाल से हैं और हिन्दी में एम॰ए॰ किया है।
कविता- एक पागल
अपनी किस्मत पर रोता है
नंगे फूटपाथ पर सोता है
लोग कहते हैं की एक पागल है वो
पर वो बेचारा
किससे कहे अपनी व्यथा
वह पागल है नहीं
बनाया गया है
वह स्वयं फूटपाथ पर नहीं आया
उसे लाया गया है
उसने कहा
मैं भी एक पढ़ा-लिखा
स्वस्थ नौजवान था
इज्जत और सोहरत का
मेरा भी अरमान था
सोचा था
एक नौकरी मिलेगी
मेरा भी एक घर होगा
पर किस्मत ने रंग दिखाया
मुझे आसमान से जमीं पर गिराया
जहाँ भी मैंने नौकरी की अर्जी दी
अफसरों ने रद्दी कहकर
टोकरी में फिंकवाया
मेरा कुसूर इतना था
मैंने रिश्वत नहीं दी
न ही कहीं से सिफारिश लाया
और एक दिन भूख और तंगहाली ने
मुझे इस फूटपाथ पर
ला पटकाया
और आप सब सुसजनों ने
मुझको पागल बतलाया
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ३॰५, ५, ६॰५, ५॰५
औसत अंक- ५॰१
स्थान- उन्नीसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक-३॰५, ४॰५, ५॰१(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰३६
स्थान- सोलहवाँ
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी रचना है | लय में है |
बधाई
अवनीश तिवारी
बहुत ही सुंदर.बधाई
अलोक सिंह "साहिल"
कविता अच्छी लगी
सुमित भारद्वाज
कुछ ख़ास नही लगी ,हमारे युवा आजकल संघर्ष से बहुत घबराते हैं ,जरा सी बात में पागल होने और आत्महत्या की और कदम बढाते है ,एक बात स्पष्ट कर दू ,जो अपनी मदद ख़ुद नही करते ,उनकी मदद तो भगवान् भी नही करते ,अतः आप में हिम्मत है तो कोई ताकत आप को पागल नही बना सकती |आप दूसरो का सहारा बनिए ,अच्छी बात सोचिये और अच्छा लिखिए ,जो आपको भी सकूं दे और दूसरो को भी स्वस्थ सोच दे
रचना बहुत सुंदर है और बहुत हद तक सच्ची भी! बधाई!
"जाके कभी न पडी बिवाई सो का जाने पीर पराई."
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