यूनिकवि प्रतियोगिता के जुलाई अंक से अब तक हम ३ कविताओं का प्रकाशन कर चुके हैं। चौथे स्थान पर बिलकुल नया चेहरा लेकर हम हाज़िर हैं। अपनी ग़ज़ल से जजों का दिल जीतने वाली ३२ वर्षीय रूपम चोपड़ा मूलतः नागपुर (महाराष्ट्र) से हैं और बतौर आई टी प्रोफैशनल दिल्ली के एक MNC में कार्यरत हैं। ३-४ महीनों से कविताएँ लिख रही हैं| अंग्रेज़ी कविताएँ और हिन्दी गज़लें लिखने का ख़ास शौक है | दो प्यारी-प्यारी बेटियों की माँ हैं। अनेकानेक जिम्मेदारियाँ एक साथ सम्हाले हुए हैं। आइए देखते हैं कि ग़ज़ल की जिम्मेदारी कितनी सम्हाली हुई हैं।।
पुरस्कृत कविता- दीवार पर लटके तारीखों के कागज़

वो टुकडों में मुझे मेरा फलक दिखाते हैं
बदल गई है नीयत तारों की आदमी की तरह
अब ये कहाँ उम्मीद-ए-शफ़क़* दिखाते हैं
मेरी कलाई पर अब भी तेरी पकड़ के निशाँ हैं
ये उस रोज़ हुई तेरी हार, तेरी दहक दिखाते हैं
मेरे लब पर अब भी तेरे दिए जख्म के निशाँ हैं
ये उस रोज़ हुई मेरी हार, तेरी बहक दिखाते हैं
मुझे रश्क है उनसे से जो अपना गम
अश्कों से तर पलक-पलक दिखाते हैं
मेरे अश्क नहीं, मेरे लफ्ज़, मेरा ग़म
मेरी उँगलियों से छलक-छलक दिखाते हैं
ये अशार भी मुझको कैसा खेल दिखाते हैं
जो भुला चुकी हूँ उसे कुरेद, कसक दिखाते हैं
गर पूछूं उनसे है कोई मुहब्बत के इमकां *
कभी सू-ए-फलक* दिखाते हैं, कभी सू-ए-उफक* दिखाते हैं
अब दीवार पर लटके तारीखों के कागज़*
हवा से उड़कर आ-रहे दिनों की झलक दिखाते हैं
ठहर के देखूं इस बादे-मुराद* में कितना दम है
हुस्ने-मुस्तकबिल* मुझे कब तलक दिखाते हैं
------------------------------
(*तारीखों के कागज़ = कैलेंडर
उम्मीद-ए-शफ़क़ = सुबह की उम्मीद
इमकां- सम्भावना
सू-ए-फलक = आसमान की तरफ
सू-ए-उफक = क्षितिज की तरफ
बादे-मुराद = इच्छा पूरी करने वाली हवा
हुस्ने-मुस्तकबिल = खूबसूरत भविष्य )
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ३॰५, ५॰५, ६॰५५, ८॰७५
औसत अंक- ५॰८६
स्थान- छठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰६, ७, ५॰८६(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰४५३३
स्थान- चौथा
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'दिखा देंगे जमाने को' भेंट करेंगे।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
ठहर के देखूं इस बादे-मुराद* में कितना दम है
हुस्ने-मुस्तकबिल* मुझे कब तलक दिखाते हैं
--- बहुत खूब | बधाई |
अवनीश तिवारी
यूँ तो घर में रोशनदान कई हैं मगर
वो टुकड़ों में मुझे मेरा फलक दिखाते हैं
वाह!क्या बात है!बहुत अच्छी गज़ल। कई शेर बहुत अच्छे हैं।
मुझे मुझे क्रम सं० --१, २, ७, ८, ९, १० के शेर बहुत अच्छे लगे. शेष भी महत्वपूर्ण हैं, अपनी बात दमदारी से कहते हैं
लेकिन अन्य की तुलना में, गज़ल के लिहाज से, कमजोर हैं।
मेरे अश्क नहीं, मेरे लफ्ज़, मेरा ग़म
मेरी उँगलियों से छलक-छलक दिखाते हैं
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है---बधाई
श्यामसखा‘श्याम’
ठहर के देखूं इस बादे-मुराद* में कितना दम है
हुस्ने-मुस्तकबिल* मुझे कब तलक दिखाते हैं
बहुत जोरदार पंक्तियाँ हैं.
बधाई स्वीकार करें जी
बहुत खूब रूपम जी,
बदल गई है नीयत तारों की आदमी की तरह
अब ये कहाँ उम्मीद-ए-शफ़क़* दिखाते हैं..
काफी बढिया लगे सारे शेर..
ब्लॉग संचालक कृपया ध्यान दे ............................
मेरी बात को अन्यथा न ले...
केवल एक जिक्र के काबिल बात कहना चाहता हूँ.........
मै किसी की बुराई नही कर रहा ..................
मशहूर गज़लकार के साथ बातचीत के अंश पढ़े और ख़ुद इस बात पे विचार करे की हिन्दी ग़ज़ल के बहर में ना होने के बावजूद ऐसी बड़ाई होने का क्या अंजाम होगा और हिन्दी ग़ज़ल का क्या भविष्य होगा .........
ग़ज़ल जिंदगी में हमारे साथ चलेगी - वशीर बद्र विजय वाते के साथ बातचीत
विजय वाते : हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य में ग़ज़ल का अपना एक मकाम बन चुका है, यह छंद अब हिन्दी में अत्यन्त लोकप्रिय हो गया है। अनगिनत लोग ग़ज़लें लिख रहे हैं तथा कथ्य की नवीनता और भाव की सहजता के लिहाज से हिन्दी ग़ज़लें सराही भी काफी जा रही हैं। लेकिन अब भी उर्दू वाले इसको, उर्दू ग़ज़ल के समकक्ष दर्जा देने के अनच्छुक लगते हैं। क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं ?
वशीर बद्र : मैं भी हिन्दी का शायर हूँ, हिन्दी में भी ग़ज़लें लिखता हूँ इसलिये बेहतर हो कि आप यह सवाल मुझसे न पूछकर किसी खालिस उर्दू ग़ज़लकार से पूछें।
विजय वाते : दरअसल आप हिन्दी ग़ज़ल के वह शायर हैं, जिसको उर्दू ग़ज़ल पर भी पूरी पकड़ और महारत हासिल है।
बशीर बद्र : शुक्रिया । ऐसा तो नहीं है, लेकिन मैं आज की भाषा का शायर हूँ, जो दो लिपियों, हिन्दी और उर्दू में लिखी जाती है। यकीनन हिन्दी में बहुत उमदा और समर्थ ग़ज़लें लिखी जा रही है और उर्दू वालों का यह ऐतराज भी सभी के लिए नहीं है, बल्कि ऐसे लोगों के लिए हैं, जो हिन्दी ग़ज़ल के प्रयोग करते हुए रदीफ काफियें और बहर की पावंदी को नहीं जानते । यदि ऐसा ही दोष कोई उर्दू में करता है, तो उस पर भी एतराज किया जाता है। हिन्दी लिपि में लिखकर भी जो इन पाबंदियों को जानते और मानते हैं, उन पर कतई एतराज नहीं किया जाता।
ग़ज़ल में बहर की पावंदी बहुत जरूरी है। आज जो हिन्दी लिपि की ग़ज़लें लिखी जा रही है, उनमें अक्सर अच्छे शेर बहर में होते हैं। सुनते ही जो शेर बहर में न लगे वो ग़ज़ल का शेर कभी नहीं माना जा सकता । पुरानी उर्दू ग़ज़ल के काफियों में ईता के नाम से जो ऐब बताया जाता था, उससे पाबंदी हिन्दी में इसलिए कम होगी कि उर्दू के अक्षर में, स्वाद सीन के काफिये एक ग़ज़ल में नहीं बन सकते लेकिन हिन्दी लिपि में यह सब ‘स’ के अक्षर से बनाये जाते हैं, जो बिन्कुल सही भी है। इसी तरह उर्दू में जाल स्वाद पर खत्म होने वाले शब्दों में ग़ज़ल के काफिये नहीं हो सकते, लेकिन हिन्दी में ज के नीचे बिंदी रख देने से यह सब काफिये बन जाते हैं। खुशी की बात यह है कि पाकिस्तान की ग़ज़ल में भी काफिये बनने लगे हैं, अगरचे यह चलने अभी आम भाषा सुनने में हिन्दी और उर्दू के फर्क को खत्म करती है। और अंग्रेजी से आये हुए शब्दों को जिसने हिन्दी और उर्दू में अपना मान लिया है।
विजय वाते : क्या फर्क केवल भाषा का है।
वशीर वद्र : नहीं, इमेजेस का है। आज की ज़िंदगी की इमेजेस, हमारे घर, घर के सामान, पहनने के कपड़े ऑफिस, रेलवे स्टेशन, बस स्टेंड, रेडियो, टी.व्ही., कालेज, स्कूल बाबत सबकी पहचान के लिए, जो शब्द इस्तेमाल होते हैं, मैं उन शब्दों को अपने देश का शब्द मानता हूँ, यह अंगरेज़ी से भी हमारे यहाँ आये हैं। और भी शब्द हैं जैसे स्कूल, कॉलेज, ट्रेन, बस, टी.वी, रेडियो, दरबार, मयखाना, बुक, यूनिफार्म, पेंट, शर्ट आदि । यानी आज की ज़िंदगी के आधे से ज्यादा जो संज्ञा वाचक शब्द हैं वे सब अब हिन्दी हैं, सब उर्दू भी हैं । यद्यपि 100 साल पहले के रहन-सहन, पहनने-ओढ़ने के सारे शब्द ग़ज़ल से निकाले नहीं गये है, लेकिन वो कम जरूर हो रहे हैं । अब सिर्फ उन्हीं तक गजल को सीमित रखना, ग़ज़ल को इतनी छोटी दुनिया देना है कि जहाँ सिर्फ गाने वाली ग़ज़ल लिखी जा सकती है ।
विजय वातेः लेकिन ग़ज़ल को लोकप्रिय तो गाने वालों ने ही किया है । ग़ज़ल का म्यूजिक 100 साल पहनने-ओढ़ने वाले शब्दों तक ही सीमित क्यों है ?
बशीर बद्रः हाँ । ये ज़रा सोचने की बात है कि हिन्दी चलन वाले घरानों से आये हूए मशहुर ग़ज़ल सिंगर जैसे- जगजीत, पंकज, उधास, अनूप जलोटा, अशोक खोसला, राजेन्द्र मेहता, नीता मेहता सब बोलचाल की ऐसी ही खूबसूरत गुनगुनाती ग़ज़लें चुनते हैं, उनमें अंग्रेजी से आये हुए या हिन्दी और उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करने वाली कोई ग़ज़ल नहीं होती । न मैं एतराज कर रहा हूँ, न मशवरा दे रहा हूँ, जो लोग ग़ज़ल का म्यूजिक समझते हैं, उनमें यह कैसे कहा जा सकता है कि आप कैसे शब्दों वाली ग़ज़ल गायें। फिर भी मैं समझता हूँ कि साहित्य में जिन्दा रहने वाली ग़ज़ल फिलहाल चाहे न गाई जा रही हो, 10-20 साल बाद ग़ज़ल के इन शब्दों का म्यूजिक लोगों के दिलो-दिमाग से जुड़ने लगेगा। साहित्य में जिन्दा हिन्दी वाली ग़ज़ल की भाषा, उसके मेटाफर, सिमिली और इमेजेस, पढ़ने वाले और सुनने वाले में अपना रास्ता खुद कायम करेंगे और कर रहे हैं। जो शायर इस बात से डरेगा कि उसकी ग़ज़ल कभी नहीं गाई जा रही है, वह अपना नुकसान करेगा। उर्दू ग़ज़ल अभी नहीं गाई जा रही है, वह अपना नुकसान करेगा। उर्दू ग़ज़ल में भी सन् 1958 के आसपास से अंग्रेजी के शब्द आने लगे हैं। जैसे-वाँन, पुलोवर, स्वेटर, रेल, बस, आफिस। तब तो ऐसा लगता था कि ग़ज़ल के साथ ज्यादती कर रहे हैं । आज भी उर्दू ग़ज़लों में यह शब्द एहतियात के साथ आ रहे हैं, लेकिन हिन्दी लिपि में छपने वाली ग़ज़लों में इनका इस्तेमाल खुलकर ही रहा है और मुझे यकीन है कि आने वाले दिनों में जो ग़ज़ल ज्यादा दिल को छूयेगी और जिन्दगी में हमारे साथ चलेगी, उसको सुनकर कोई यह न कह सकेगा कि ये हिन्दी की ग़ज़ल है या उर्दू की ग़ज़ल है, बल्कि व ग़ज़ल की भाषा वाली ग़ज़ल होगी। उसका इशारा यहाँ शैरों में दिखाई देता है।
जब पूछ लिया उनसे कि किस बात का डर है ।
कहने लगे ऐसे ही सवालात कर डर है ।।
है खास खबर आपको हो जाओ खबरदार ।
कागज पे सुधरते हुए हालात का डर है ।।
(शेरजंग गर्ग)
मौसम तनी गुलेलों जैसा, गिरे कबूतर जैसे दिन ।
किससे कहते घर में बाबा, बरसे पत्थर जैसे दिन ।।
सन्नाटों की सर्द केंचुली, ओढ़ी गूँगे शहरों ने-
चहल-पहल भूले चौराहे, तपते ऊसर जैसे दिन ।
(दिनेश शुक्ल)
जब मिले सबसे गमों की देर तक चर्चा हुई ।
और जब बिछडें तो कोई दूर तक अपना न था ।।
जिस भरी बस्ती में उनको आज तक खोजा किया ।
वो बहुत वीरान थी, आकाश तक अपना न था ।।
(डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल)
ऐसा ही आपका वो शेर भी है-
एक तकरीर सिर्फ काफी है,
क्या जरूरत दिया सलाई की ।
विजय वातेः उर्दू में बहर की पाबंदी और शब्दों के वज़न पर आप कुछ कर रहे थे ?
बशीर बद्रः उर्दू में बहर की जो पाबंदी है उसका पूरा ख्याल हिन्दी की अच्छी ग़ज़ल कहने वालों ने रखा है । उर्दु में भी जहाँ किसी ग़ज़ल में कोई बहर से खारिज पंक्ति हो जाती है, उसे कुबूल नही किया जाता । हम आज हिन्दी ग़ज़ल को कितनी भी छूट देना चाहें, लेकिन बहर की पाबंदी, बहरहाल होगी । हम तो कर ही रहे हैं, लेकिन आने वाले लोग और ज्यादा परफेक्शन का ख्याल रखेंगे, ऐसा ही अच्छी शायरी में होता है। खुशी की बात ये हैं कि हिन्दी में बहुत से शब्द ऐसे हैं, जिनका किताबी उर्दू से अपना अलग उच्चारण, अपना अलग वज़न है जैसे - सुहाग, शमा, फसल, माफ ऐसे सैकड़ों अलफाज़, उसमें अपने तलफ़फुज की पाबंदी कर रहे हैं, और ऐसा ही करना भी चाहिए।
जो शब्द हमारी ज़िंदगी में घुलमिल गये हैं, ग़ज़ल की भाषा उन्हीं से बनती है। थोड़ी देर के लिये हमें यह भूल जाना चाहिये कि यह शब्द संस्कृत, अरबी, उर्दू या कहाँ से आया है। बल्कि यह देखना चाहिये कि अपने ज़माने की ओर आज की ज़िंदगी का जो शब्द चित्र बनाते हैं और जो हमारी ज़िंदगी की प्राबलम्स को शायराना ढंग से पेश करते हैं, वही शब्द ऐसे आ रहे हैं, जिनसे ग़ज़ल का नया फैयाव होगा लफ़्जों को जिस शायराना अंजाद में बरतना चाहिए, वो खूबसूरती अब नये लिखने वालों के अच्छे शैरों में मिलने लगी है। हिन्दी ग़ज़ल के असर से उर्दू ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल के असर से हिन्दी ग़ज़ल में बड़ी खूबी आती जा रही है। उसका असर पाकिस्तानी ग़ज़ल पर भी पड़ रहा है। पाकिस्तान के एक शायर हैं नासिर शहजाद, उनके यहाँ बहुत पहले से ऐसी ग़ज़ल मिलती है, जिसमें हमारी पुरानी सभ्यता, मथुरा और काशी की गूँज लाहौर की इस्लामी तहजीब से गले मिलती है। हिन्दुस्तान की ग़ज़ल जिसमें हिन्दी और उर्दू के अलावा गुजराती, पंजाबी, सिधी, मराठी और दूसरी भाषाओँ की ग़ज़ल शामिल है, ऐसी ग़ज़ल होगी, जिसमें आज का हिन्दुस्तान, अपनी और पड़ौस की मौलिक कृतियों और उसके ट्रांसलेशन के जरिये, दुनिया की दूसरी बड़ी जुबानों को भी ग़ज़ल के करीब जायेगा।
isko bhi padhe.......akash
साफगोई से अब आईना भी कतराता है
- डॉ. ओम प्रभाकर
उर्दू में गजल और हिन्दी में गीत यद्यपि सर्वाधिक पुरानी और लोकप्रिय काव्य विधाएँ हैं, लेकिन इनको इन्हीं की हैसियत में समझना और साधना पर्याप्त रचनात्मक क्षमता की माँग करता है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि हर छंदबद्ध कविता गीत नहीं होती और न हर 'द्विपंक्ति' शेर और न कई 'द्विपंक्तियाँ' गजल।
गीत और गजल का एक विशिष्ट चरित्र, एक खास मिजाज होता है, जिसे आत्मसात करना हर छंद-कवि के लिए संभव नहीं है। शिल्प की दृष्टि से मात्राएँ गिनकर आप गीत के चरण को तकनीकी तौर पर सही कह सकते हैं- भाव-भाषा-विचार की बात बादमें... लेकिन गजल का शिल्प इतना सरल और सीधा नहीं है।
बहर, वज्न, काफिया और रदीफ के अलावा भी बहुत कुछ है, जो सही अर्थों में आपके लिखे हुए को गजल बना सकता है और वह बहुत कुछ शायर का अपना होता है। लेकिन पहली पायदान पर बहर-वज्न की ही शर्त है।
अगरये अरुज (पिंगल) के मुताबिक नहीं है, तो शेर में मौजूद कितना ही गहरा भाव और कितना ही ऊँचा विचार बेमानी माना जाएगा।
सैकड़ों सालों के बाद आज भी काव्यानुशासन की दृष्टि से गजल से ज्यादा अनुशासित एवं कठिनतर शायद कोई विधा नहीं है। जबकि पिछले चार-पाँच दशकों की अधिसंख्य कविताओं में तो आसेतु हिमालय पूरा देश ही परम स्वतंत्र है।
आकाश जी,
हम आपकी किसी भी बात का बुरा नहीं मान रहे। आपने तो बेशकीमती साक्षात्कार और संदर्भ हमारे लेखकों और पाठकों को दिया हैं। हम मानते हैं कि हिन्द-युग्म पर हम सभी सीख रहे हैं, कोई शिल्प में कमज़ोर है, कोई भाषा में, कोई भाव में, कोई शैली में तो कोई व्याकरण में।
हमें लगता है कि आपके पास इस तरह के और बढ़िया-बढ़िया साहित्य से जुड़ें साक्षात्कार और बातें होंगे। कृपया सभी हमारे साथ बाँटे। कृपया नियंत्रक की आई डी hindyugm@gmail.com पर संपर्क करें।
आपका पुनः साधुवाद।
.
आज का शो आकाश जी के नाम किया जाय,
असहमत होने का एक भी नुक़्ता उन्होंने नहीं छोड़ा है, बधाई हो !
आज जाने कैसे सारे टिप्पणियों पैर नज़र पड़ी. हौसला-अफजाई का शुक्रिया. एक बात कहना चाहूंगी, मैंने ग़ज़ल नहीं कविता लिखी थी | रदीफ़-काफिये जैसे शब्द ग़ज़ल का भ्रम दिलाते हैं, लाइनों का एक दूसरे से संबध है .. शे'र नहीं हैं , और मैंने भी ये स्पष्ट नहीं किया के ये कविता है - माफ़ी चाहूंगी. इसे ऐसे पढ़ें
यूँ तो घर में रोशनदान कई हैं मगर
वो टुकडों में मुझे मेरा फ़लक* दिखाते हैं
बदल गई है नीयत तारों की आदमी की तरह
अब ये कहाँ उम्मीद-ऐ-शफक* दिखाते हैं
मेरी कलाई पर अब भी तेरी पकड़ के निशाँ हैं
ये उस रोज़ हुई तेरी हार, तेरी दहक दिखाते हैं
मेरे लब पर अब भी तेरे जख्म के निशाँ हैं
ये उस रोज़ हुई मेरी हार, तेरी बहक दिखाते हैं
मुझे हसद* है उनसे से जो अपना गम
अश्कों से तर पलक-पलक दिखाते हैं
मेरे अश्क नही, मेरे लफ्ज़, मेरा ग़म
मेरी उँगलियों से छलक-छलक दिखाते हैं
ये अशार* भी मुझको कैसा खेल दिखाते हैं
जो भुला चुकी हूँ उसे कुरेद, कसक दिखाते हैं
गर पूछूं उनसे है कोई मुहब्बत के इमकां
कभी सू-ए-फलक* दिखाते हैं, कभी सू-ए-उफक* दिखाते हैं
अब दीवार पर लटके तारीखों के कागज़*
हवा से उड़कर आ-रहे दिनों की झलक दिखाते हैं
ठहर के देखूं इस बादे-मुराद* में कितना दम है
हुस्ने-मुस्तकबिल* मुझे कब तलक दिखाते हैं
रूपम जी
नमस्कार
आप की रचना के
भाव अच्छे हैं
बधाई
दीवार पर लटके तारीखों के कागज़ से ही >>>>>
ये अशार भी मुझको कैसा खेल दिखाते हैं
जो भुला चुकी हूँ उसे कुरेद, कसक दिखाते हैं
आपका
डॉ विजय तिवारी ' किसलय '
www.hindisahityasangam.blogspot.com
यूँ तो घर में रोशनदान कई हैं मगर
वो टुकडों में मुझे मेरा फलक दिखाते हैं
बदल गई है नीयत तारों की आदमी की तरह
अब ये कहाँ उम्मीद-ए-शफ़क़* दिखाते हैं
मेरी कलाई पर अब भी तेरी पकड़ के निशाँ हैं
ये उस रोज़ हुई तेरी हार, तेरी दहक दिखाते हैं
मेरे लब पर अब भी तेरे दिए जख्म के निशाँ हैं
ये उस रोज़ हुई मेरी हार, तेरी बहक दिखाते हैं
मुझे रश्क है उनसे से जो अपना गम
अश्कों से तर पलक-पलक दिखाते हैं
मेरे अश्क नहीं, मेरे लफ्ज़, मेरा ग़म
मेरी उँगलियों से छलक-छलक दिखाते हैं
ये अशार भी मुझको कैसा खेल दिखाते हैं
जो भुला चुकी हूँ उसे कुरेद, कसक दिखाते हैं
गर पूछूं उनसे है कोई मुहब्बत के इमकां *
कभी सू-ए-फलक* दिखाते हैं, कभी सू-ए-उफक* दिखाते हैं
अब दीवार पर लटके तारीखों के कागज़*
हवा से उड़कर आ-रहे दिनों की झलक दिखाते हैं
ठहर के देखूं इस बादे-मुराद* में कितना दम है
हुस्ने-मुस्तकबिल* मुझे कब तलक दिखाते हैं
excellent :)
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