शब्द, ठीक थे जब तक खूंटों से बंधे थे,
शब्द, कल शाम खुल गए खूंटों से, आज़ाद हो गए,
हवाओं में उड़ने लगे गुब्बारों की तरह,
शब्द, कोरे थे, मासूम थे सब,
तिरस्कृत हुए, अपमानित हुए, कुछ इतने शर्मसार हुए,
कि दुबक गए दुनिया के किसी कोने में जाकर,
कुछ डूब मरे दरिया में,
शब्द कुछ जो भाषाओं की सीमाएं लांग गए थे,
उनका धरम जांचा गया,
आश्चर्य, सब ने एक स्वर में उन्हें करार किया - दोषी… दोषी
हुक्म दिया, सजा-ऐ-मौत का,
सरे बाज़ार किया गया उनका सर, धड से जुदा,
ताकि दुबारा कभी कोई शब्द, ये जुर्रत न करे,
शब्द कुछ, कल शाम निकले थे बाज़ार में घूमने,
रात शहर में हुए बम धमाकों में मारे गए,
दोस्ती,
प्यार,
विश्वास,
इंसानियत....
लम्बी है बहुत, मृतकों की सूची,
शब्द, जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे,
कुछ दिन और जिन्दा रह जाते -
अगर जो खूंटों से बंधे रहते …
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
partham pathak
सारथी जी ,शब्द को अच्छे शब्दों से निखारा है आपने बधाई.श्यामसखा
दोस्ती,
प्यार,
विश्वास,
इंसानियत....
लम्बी है बहुत, मृतकों की सूची,
शब्द, जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे,
कुछ दिन और जिन्दा रह जाते -
अगर जो खूंटों से बंधे रहते …
बहुत ही अच्छी कविता।
बहुत अच्छे सजीव |
सामजिक विषयों पर अच्छा प्रहार है |
-- अवनीश तिवारी
बहुत खूब संजीव जी!
शुरू में लगा आप भाषा-विज्ञान की बात कर
रहे हैं उस हिसाब से खूंटे से बन्धे शब्द मर जाते हैं।
अंत में बात आपने पते की कही!
हालांकि एक तरफ शब्द
धमाकों से मर रहा हैं,
फिर भी कविता का शब्द शब्द
निःशब्द कर रहा है ।
बहुत बहुत बधाई
बढिया लिखा है..
Adbhut....!.....mazaa aaya....sukun mila...bahut achchhi rachana ka rasa-swadan karane ke liye....shukriya.....
sajeev ji!
sach mein behad arthpoorn rachna hai.Badhai sweekarein.
-VD
शब्द, जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे,
कुछ दिन और जिन्दा रह जाते -
अगर जो खूंटों से बंधे रहते …
बहुत ही सुंदर लिखा है सजीव जी. बहुत-बहुत बधाई.
bahut bahut bahut achchhi kavita
saader
rachana
दोस्ती,
प्यार,
विश्वास,
इंसानियत....
लम्बी है बहुत, मृतकों की सूची,
क्या बात है सजीव जी... बहुत दिनों बाद आपकी कविता पढ़ने को मिली... आप तो "आवाज़" में इतना खो गये थे कि यहाँ का पता भूल गये.. ऐसा लगता है... :-)
बहुत लंबे अरसे बाद आप यहाँ दिखे,खैर,बेहतरीन प्रहार,
आलोक सिंह "साहिल"
दिनभर अजीब से शब्दों ने परेशान कर रक्खा था-----------
दिनभर क्या-------- कई दिनों से --------रोज आते हैं --------कानों में ---------पिघलते शीशे की तरह--------
आज आपके "शब्द" ने मरहम का काम किया---धन्यवाद।
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दुआ करो
कि मुल्क में
ऐसी
आबोहवा बहे
शब्द
खूँटों से ना बंधें
फिर भी
जिंदा रहें
एक अमर कविता बनने तक।
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---देवेन्द्र पाण्डेय।
संजीव जी
कविता जो दिल को छू गई .....
बहुत बेहतरीन ..........
वीनस केसरी
बहुत सही सजीव जी!
दोस्ती,
प्यार,
विश्वास,
इंसानियत....
लम्बी है बहुत, मृतकों की सूची,
प्रभावशाली रचना।
बहुत अच्छी कविता....
पंक्तिया अत्यन्त सरल है.शब्द शीर्षक होने पर भी शान्ति की अनुभूति होती है.
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