मई २००८ में कवयित्री रेनू जैन की एक कविता प्रकाशित हुई थी 'बस कभी-कभी' जिसमें कवयित्री ने यौवन के छलान पर खड़ी स्त्री की कोमल भावनाओं का चित्रण किया था। कविता ने अप्रैल माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में चौथा स्थान भी बनाया था। पाठकों ने खूब पसंद भी किया था। इस बार भी इनकी कविता आठवें स्थान पर है। अब देखना है कि पाठक इस बार क्या कहते हैं।
पुरस्कृत कविता- सीता- एक प्रश्न
हे राम!
हे मर्यादा पुरूषोत्तम राम,
सदियों से एक सवाल
मेरे मानसपटल पर,
रह-रह कर उठाता है फन अपना,
और कोंचता है मुझको,
जानना चाहता है तुमसे,
कि त्याग किया था तुमने मेरा,
अपना राजधर्म निभाने को,
या छोड़ दिया मुझको तुमने,
अपनी राजगद्दी बचाने को ?
तुम भूल गए राम,
राजा बनने से पहले
तुम पति थे मेरे,
लिए थे सात फेरे,
भरे थे वचन,
क्या मन में एक बार न आया,
अपना पतिधर्म निभाने को?
मैंने तो निभाया था पत्निधर्म,
संग चली थी तुम्हारे,
काँटों की डगर पर,
वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी,
पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।
फिर भी तुम्हें ही
हृदय में बसाया,
नज़रों से अपनी नहीं,
तुमको गिराया,
तुम आए मुझे लेने,
मैं चल दी पीछे-पीछे,
छोड़ दिया यहाँ लाकर तुमने,
एक धोबी के लिए!
मैं, तुम्हारी अर्धांगिनी,
हर सुख-दुःख में तुम्हारे साथ,
इतना भी हक़ न दिया तुमने
की जान सकूं,
क्यों हुआ मेरे साथ
ये विश्वासघात!
और फिर बिना कुछ कहे-सुने,
एक काली, खामोश रात,
भेज दिया जंगल में
लक्ष्मण के साथ।
क्यों हुआ मेरे संग ये अन्याय,
तुम मेरी फरियाद भी न सुन पाये,
आज तक अपनी फरियाद
सुनाने को तड़पती हूँ,
और अपने पति से ही नहीं,
एक राजा
से भी,
न्याय पाने को तरसती हूँ।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰२५, ४
औसत अंक- ५॰१३
स्थान- दसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰२, ५॰५, ५, ४॰८, ५॰१२५(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰५२५
स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'मौत से जिजीविषा तक' भेंट करेंगे।
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77 कविताप्रेमियों का कहना है :
---आज तक अपनी फरियाद
सुनाने को तड़पती हूँ,
और अपने पति से ही नहीं,
एक राजा
से भी,
न्याय पाने को तरसती हूँ।
-----यह लिखकर आपने यह बताने का सफल प्रयास किया है कि--
लाख नारी-विमर्श के बाद-
आज भी नारी को न्याय के लिए तरसना पड़ता है।
वह चाहे सीता की तरह
पतिव्रता क्यों न हो--
अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ता है।
----सुंदर कविता के लिए बधाई।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
निश्चय ही इस कविता में पूरी सामर्थ्य है जिससे एक सार्थक बहस हो सके | जैसे एक तेरफ तो कविता कहती है
“मैंने तो निभाया था पत्निधर्म,
संग चली थी तुम्हारे,
काँटों की डगर पर,
वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी,
पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।“
अब सीता जी ने भी कहाँ बात मानी लक्ष्मण रेखा पार कर ही दी ,ये केवल एक रेखा पार करना नही दर्शाता ,उससे बहुत ज्यदा बड़ा परिप्रेक्ष्य लिए हुए है ये बात ....
दूसरी बात जो पढ़कर मुझे कष्ट हुआ
"छोड़ दिया यहाँ लाकर तुमने,
एक धोबी के लिए!”
वर्तमान समय में ये लिखना और ये विचार भी अपने आप में बहुत भ्रामक है | एक रानी एक औरत अपने बारे में सोच रही है ...लेकिन समाज में जो कुरुतियाँ व्याप्त हो गयी है उसके लिए राम का ये फ़ैसला बड़ा हो एतिहासिक मानता हूँ मैं ,
यहाँ पे शायद हमें राम के फैसले के intent पर ध्यान देना चाहिए | एक राजाके परिप्रेक्ष्य से चीजों को देखना होगा शायद !!
दिव्य प्रकाश
mujhe aap ki kavita behad pasand aai me bhi kuchh asa hi sochti hoon .
saader
rachana
क्यों हुआ मेरे संग ये अन्याय,
तुम मेरी फरियाद भी न सुन पाये,
आज तक अपनी फरियाद
सुनाने को तड़पती हूँ,
और अपने पति से ही नहीं,
एक राजा
से भी,
न्याय पाने को तरसती हूँ।
रेनू जी,
आपकी कविता का विषय एक यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर देने के लिये कोई युधिष्टर उपलब्ध नहीं है. कविता को विवादस्पद बनाने वाले मिल सकते हैं किन्तु राम तो उत्तर देने आने से रहै, अब तो यही प्रयत्न होने चाहिये कि स्थान-स्थान पर होने वाली अग्नि परीक्षाओं व निर्वासनों से सीताओं को बचाया जा सके.नर-नारी दोनों के संयुक्त प्रयास ही कुछ फ़लदाई हो सकते हैं.
क्यों हुआ मेरे संग ये अन्याय,
तुम मेरी फरियाद भी न सुन पाये,
आज तक अपनी फरियाद
सुनाने को तड़पती हूँ,
और अपने पति से ही नहीं,
एक राजा
से भी,
न्याय पाने को तरसती हूँ।
रेनूजी, बहुत सशक्त है आपकी कविता
प्रश्न यह नहीं कि ऐतिहासिक सीता के साथ राम ने क्या किया था?( कुछ शोध तो राम सीता को भाई-बहन भी बताते हैं इसे अभी जाने दे )
प्रश्न आज की "न्याय पाने को तरसती" सीताओं का व आज के राम के द्रष्टिकोण का है
समस्या को आपने सही ढंग से उठाया है बधाई
रेनू जैन जी
अपने जो प्रश्न उठाया है वो आज से पहले भी कई बार उठ चुका है
पर क्या राम जी ने जो किया अपनी प्रजा के लिए नही किया?
क्या सीता जी को वनवास भेजने से वो दुखी नही थे?
क्या हम इतने बुद्धिमान है कि राम जी के कार्य पर प्रश्न उठा सकते है?
मेरा उत्तर है नही क्योकि हम ऐसे धर्म संकट मे फँस जाए तो कुछ नही कर सकते हे
क्या हमार परिवार हमारे देश से ज्यादा जरूरी है?
मेरे पास इनका कोई उत्तर नही है
सुमित भारद्वाज
मेरे मानना है कवि को समाज को देखकर लिखना चाहिए और अपने को उस स्थिति मे रखकर सोचना चाहिए।
Renu Ji. Aapne ek acchi kavita likhne ka prayaas kiya hai. Ho sakta hai ki kuchh logo ko aapki kavita ki aur aapki soch ki aalochna karne ke liye paryaapt saamagri mil jaye.. per aapka prayaas saraahniy hai aur meri samajh se kisi bhi prakaar vivaadaspad nahi hai !
Deepak Gogia
वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी,
पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।
....यहाँ राम निश्चित ही दोषी हैं लेकिन उससे भी ज्यादा दोष स्वयं सीता का है अतः शिकायती स्वर निरर्थक प्रतीत होता है। जिसे इतना भी विवेक नहीं कि सिवाय सपनों के स्वर्ण-मॄग और कहीं नहीं पाए जाते उसका जीवन दुखों से भर जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
वाह गुरू तो अब सीता सपने भी न देखे. सही है लगा दो पहरा जहाँ कोई स्त्री कुछ सपने तक देखना चाहे..एक पुरुष स्वयंवर रचाता है. दूसरा पुरुष बाहुबल से धनुष तोड शर्त जीतता है. तीसरा उसे उठा ले जाता है. कहाँ है सीता की इच्छा? कहाँ है उसके विचार? कहाँ है उसके सपने?. सही है महान भारतीय परम्पराओ वाले महान भारतीय पुरुषों आप जो कहें जो करें सब सही है. कौन है एह स्त्री जो सवाल उठाती है? एक तो औरत और उपर से इतनी ज़ुर्रत...
रेनू जी , आपके प्रयास की सराहना करूँगा, पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवन श्रीराम के इस एक फैसले पर आपके संदेह को मैं मानने को तैयार नही हूँ . आज की नारी जो अग्नि-परीक्षा दे रही है वो कई मायनों में सीता की अग्नि-परीक्षा से बहुत अलग थी..
पहली बात , राम ने अगर अग्नि-परीक्षा न मांगी होती सीता से , तो एक धोबी की बात हर जनमानस के मनो मस्तिष्क में कभी न कभी आती.. और आज इतिहास शायद सीता को उसी धोबी की नजर से देख रहा होता.. राम सीता से बेहद प्रेम करते थे, ये सिद्ध करने की आवश्यकता नही है , पर अपने प्रेम का त्याग उन्हें सिर्फ़ इसीलिए करना पड़ा ताकि उस नारी को इतिहास में पन्नो में पवित्रता और पतिव्रता होने का सबसे बड़ा उदहारण बना सकें...
आप ये बात जाने दीजिये, नारी मन में झाँकने का प्रयास तो कई पुरूष कवियों ने किया है, चाहे सफल हो या असफल, पर आप मुझे एक कवियत्री का एक प्रयास बता दीजिये , जहाँ पुरूष मन की विवशता को कागज पर उतारने की कोशिश की गई हो..
रही बात अग्नि-परीक्षा की, तो वो तो हर किसी को देनी ही पड़ती है, बस कोई ख़बर बनती है तो कोई खामोशी के आँचल में दबकर बुझ जाती है...
जाने दीजिये इस बहस में न पड़िये, ये तो परम्परा बन चुकी है, नारी न होने की कीमत पुरूष को अनारी (अनाड़ी ?) बनकर यदाकदा देनी ही होती है....
पर फ़िर भी आपका प्रयास अच्छा है... पर कभी एक कोशिश राम के मन में झाँकने की भी करना , जो आपके नजरिये से ,सीता को खोजने का प्रयास सिर्फ़ १४ साल का Time pass करने के लिए कर रहे थे..
या कभी कैकेयी मन को भी बाहर लाने का प्रयास करियेगा.. जिसे काव्य अपने दायरों के बाहर ही रखता आया है , क्योंकि वो विवादास्पद हो सकता है...
रेनु जी की कविता 'सीता एक प्रश्न'बहु कथित मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मर्यादा और उनके उत्तम पुरुष होने को चुनौती देती है। उनके आदर्श राजा होने को सवालों के सलीब पर उलटा टांग देती है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है,जब किसी विद्वान ने रामायण और रामचरित मानस के आदर्श पात्र के रुप में ख्यात राम को कठघरे में खड़ा किया गया हो। और यह अंतिम बार भी नहीं है।
राम के मर्यादित होने,पुरुषोत्तम होने और आदर्श राजा होने को चुनौती देना बिल्कुल तर्क संगंत है। राम के चरित्र पर एक से अधिक दाग हैं,जो उन्हें एक आम आदमी से भी नीचे का दर्जा पाने के लायक बनाता है। बालि वध के मामले में कोई तर्क संगत जवाब राम के अनुयायियों के पास नहीं है। जो है,वह कुतर्क है। राम द्वारा तपस्वी शंबुक की हत्या की ही बात करें,तो उसे किन तर्कों से जायज ठहराया जा सकता है ? ब्राह्मणों को खुश करने के लिए राम शंबुक की हत्या कर देते हैं। शंबुक का अपराध क्या था ? क्या वह कोई मर्यादा पुरुषोत्तम और राजा आदर्श हो सकता है, जो अपनी ही निर्दोष प्रजा की हत्या करता है ? किसी के पास तर्क संगत जवाब नहीं है। फिर भी बहुत लोग हैं, जो इसे भी जायज ठहराने का बीड़ा उठा लेते हैं।
फिर,सीता का त्याग। क्या तर्क है राम के पक्षधरों के पास ? जो है,वह किसी भी समझदार के गले उतरने लायक नहीं है। वह कैसा राजा और कैसा पति,जो राजधर्म नहीं निभाता है और न पतिधर्म। जो न तो अपनी प्रजा के साथ न्याय करता है और न ही अपनी पत्नी के साथ।
रेनु जी की कविता में सीता की फरियाद केवल सीता की नहीं है,न तो यह किसी नारी या अबला की फरियाद है। यह फरियाद बालि की भी है और शंबुक की भी। रेनु जी की कविता राम के मर्यादा पुरुषोत्तम और आदर्श राजा होने पर बहस का मौका देती है। बहस होनी चाहिए। सार्थक बहस की जरुरत इस देश को है,जिसका यहाँ नितान्त अभाव है। इतना अवश्य कि अपने-अपने आस्थाओं और (अंध)विश्वासों को बहस में घुसेड़ने की अनुमति न हो।
एक अच्छा विषय चुनने के लिए रेनु जी को धन्यवाद।
-गिरिजेश्वर
"जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत देखि तिन तैसी"
तुलसीदास जी की 'राम चरित मानस' की ये लें यहाँ बिल्कुल सटीक है राम एक इंसान के रूप में जन्म लिए थे जन्म से वो इंसान थे उनके कर्मो ने उन्हें भगवान् का दर्जा दिलाया
उन्होंने जो कुछ भी एक इंसान होकर किया किसी भी इंसान के लिए सम्भव नही है
रही सीता त्याग की बात तो मै पंकज जी से सहमत हूँ सीता त्याग के पीछे राम की भावना राम का प्रेम किसी ने नही देखा जो की सीता को निखारकर इतिहास के पन्नो में एक आदर्श नारी का रूप देते है
यहाँ तक की आज भी सीता को नारियो का आदर्श माना जाता है
इतिहास गवाह है कि आज तक जो महायुद्ध हुए नारियां भी उसमे बराबर कि दोषी थी फ़िर भी नारियो को किसी ने कभी दोष नही दिया हमेशा पुरूष को ही कटघरे में खड़ा किया गया
रही गिरिजेश्वर जी कि बात तो किसी को मै उनसे क्षमा मांगते हुए ये सलाह दूंगा कि किसी के बारे में अपनी राये बनाने से पहले वो उनके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर ले राम ने बाली का वध इसलिए छुपकर किया क्योकि सर्वविदित था कि बाली को सामने कि टक्कर में कोई नही हरा सकता था और साथ में बाली दुष्ट था और उसका कार्य पशुओ के जैसा था और पशु पर छुपकर वार करने में कोई अधर्म नही है
राम ने जो कुछ भी किया जनहित में सब लोगो के लिए किया अपने लिए नही यदि हम एक इंसान के रूप में उनकी तुलना करे तो शायद हमारे मन में ऐसा प्रशन न उठे
रेनू जी आप अच्छा लिखती है पर जो मुद्दा आपने इस इल्जाम आपने राम पर इस कविता से लगाया है मै उसमे आपसे सहमत नही हूँ
रेनू जी आपकी सिर्फ़ और सिर्फ़ एक बात से सहमत हूँ कि "जहाँ नारी कोई प्रश्न करती है तो उसे विवादास्पद बता कर चुप करा दिया जाता है"!
आपने सिर्फ़ तथ्य देखा है उसकी गहनता से जाँच-पड़ताल नहीं की..! पहली बात तो यह कि राम ने सीता से अग्नि परीक्षा के लिए कहा था वह सिर्फ़ इसीलिए कि दूसरे लोग अंगुली ना उठा सकें.. | आम को सीता के चरित्र का शक था ऐसा सोचना भी हास्यास्पद होगा,फिर क्या कारण था कि अग्नि परीक्षा ली गयी? ज़रा सोच कर देखिए!
...और धोबी प्रकरण की बात करें तो ढेरो तर्क दिए जा सकते हैं.! मैने "मानसमर्म" नाम की एक किताब में पढ़ा कि लव और कुश का संबंध भी इसी बात से था| अपने बचपन के दौरान उन्हे राज-प्रासाद से दूर रखना विधि के विधान के हिसाब से ज़रूरी था तभी यह सारा घटनाक्रम रचा गया !
आप स्त्रियों की बात सामने रखना चाहती हैं.. बहुत अच्छी बात है पर आप उचित उदाहरण चुनकर अपना प्रस्तुतिकरण और बेहतर बना सकती थीं!
वैसे विचारोत्तेजक कविता पढ़वाने के लिए शुक्रिया !
रेनू जी,हमारे महान ग्रन्थ रामायण और महाभारत को तो मेनेजमेंट पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए! जिससे कि हम इसकी गूढ़ बातों से रूबरू हो सकें! मेघनाद को वरदान था कि उसका वध वही कर सकेगा जिसने 14 वर्षों तक ब्रम्हचर्य का पालन किया हो और अपनी पलकें क्षण मात्र के लिए भी ना मूंदीं हो! और ऐसा लक्ष्मण का उर्मिला से दूर रहे बिना संभव न था! लक्ष्मण राम और सीता के शयन के समय खुद बिना सोये द्वार पर पहरा दिया करते थे!
आपने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि उर्मिला की चर्चा न होकर सीता को आदर्श नारी कहा जाता है|उन्हें पता था कि अर्धांगिनी होने के नाते पति के सुख और दुःख पर उनका सामान रूप से अधिकार है जिसे निभाना उनका धर्म है और इसका पालन उन्होंने बखूबी किया| सीता को साथ चलने पर कतई विवश नहीं किया गया! अभी मुझे वो चौपाई तो याद नहीं आ रही है पर इसे रामायण में ज़रूर पढ़ा जा सकता है कि राम सीता से विनय करते हैं कि हे वैदेही! तुम महलों में रहने वाली सुकोमल मेरे साथ किस तरह वन के कठोर पथ पर चलोगी ? और ऐसा कहते हुए वे रोने लगते हैं|
राम की नियत संदिग्ध नहीं! अतः आपके यह कथन तो सत्य नहीं जान पड़ता कि "नारी को फिर इसलिए पूजा जाता है की फिर भी उसने चुपचाप अपने पति की आज्ञा को शिरोधार्य किया !"
रेनू जी.. हमारा समाज मात्र्सत्तात्मक नहीं है बल्कि पित्रसत्तात्मक है|बेटी को ब्याह कर ससुराल जाना होता है|पित्रसत्तात्मक होने के कारण स्त्रियों पर अत्याचार सदा से होता आया है|
"नारी जीवन झूले की तरह इस पार कभी उस पार कभी
आँखों में अंसुवन धार कभी होंठों पर मधुर बयार कभी!"
अब बात अलग है| आज स्त्रियाँ जाग चुकी हैं अतः स्थिति में परिवर्तन साफ़ दिखाई दे रहा है| वैसे ऐसा नहीं कि हमने अतीत में भी स्त्री की महत्ता को नहीं स्वीकारा हो|
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" यह उक्ति आपने पढी ही होगी|पहले एकमात्र मंडन ऋषि की पत्नी ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में हराया था पर अब तो कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी महिलायें अनेकों हैं जो पुरुषों का एकाधिकार माने जाने वाले क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित कर रही हैं| स्थिति बदल रही है धीरे ही सही .. परिवर्तन की बयार बह रही हैं ...बस इसी गति को हमें तेज़ करना है पर सही सोच और सकारात्मक नजरिये के साथ !
विपुल जी, जब आपने मातृसत्तात्मक और पितॄसत्तात्मक की बात छेड़ ही दी है तो
इसे भी पढ़ लें:
http://boloji.com/hinduism/139.htm
जानना चाहता है तुमसे,
कि त्याग किया था तुमने मेरा,
अपना राजधर्म निभाने को,
या छोड़ दिया मुझको तुमने,
अपनी राजगद्दी बचाने को ?
सवाल स्वाभाविक है और सदियों से जवाब का मोहताज़ भी ! लेकिन अनूठे बिम्ब ने तो इस पारंपरिक आलंबन के सहारे इस आख्यान का आयाम ही बदल दिया है ! तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों की खिचरी जरूर है किंतु बहुत ही अच्छा !!
क्यों हम शताब्दियों पहले लिखी गए ग्रंथो पर आज बहस कर रहे हैं? क्यों हम संस्कृति की आड़ में नया नही सोचना चाहते? क्यों हम दूसरो की बातो को इतनी अहमियत देते हैं कि वो हमें नुक्सान पुह्चाती है?
प्रशन ये होने चाहिए|
रेनू जी मैंने अभी आपकी कविता पढी और उस पर हुई बहस तो समयाभाव के कारण नही पढ़ पाई लेकिन आपकी कविता ने मुझे बहुत प्रभावित किया | कुछ ऐसे ही प्रश्न मेरे मन में भी थे और अपनी पुस्तक "मानस की पीड़ा "के भाग "जानकी का दर्द "में इन सभी प्रश्नों को उठाया भी |कुछ पंक्तियाँ लिख रही हूँ :-
कितने ही दर्द समेटे हुए
धरती के गर्भ में लेते हुए
सीता माँ यहाँ से चली गई
कितने प्रश्नों को छोड़ गई
जिनका नही मिला कोई उत्तर
नारी रह गई बनकर पत्थर
क्यो नारी ही सब सती है
बेशक वह नर की शक्ति है
हमें सीता के त्याग और मन स्थिति पर भी सोचना होगा ,केवल श्री राम को भगवान् मान कर हम एक नारी के दर्द की अवहेलना नही कर सकते | एक अच्छी रचना के लिए बधाई ..सीमा सचदेव
बहुत दुख हुआ एस तरह की चर्चा पढ़कर। यहाँ कोई कविता अगर नई सोच लेकर आती है तो सारे पुरूष उसको अपनी व्यक्तिगत निन्दा मान कर पूरे अस्त्र-शस्त्र के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। रेनु जी की कविता में नारी के मन की दशा का सुन्दर चित्रण है। यह किसी ने नहीं सोचा। तर्क दिए उल्टे सीधे।
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी एक कविता में गऔतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है-
सखि वे मुझसे कहकर जाते-- अब आज अगर उन्होने ये लिखा होता तो मेरे सारे कवि मित्र पूछते क्यों भई तुमसे पूछकर क्यों जाते? तुम भी तो कितनी बार बिना पूछे घर से बाहर जाती हो?
आप सभी पाठकों से अनुरोध है कि कविता की भावना को समझें और अनावश्यक बहस से बचें। तर्क और कुतर्क में कुछ तो अन्तर होता ही है।
रेनु जी ने कविता में आधुनिक नारी की सोच को व्यक्त किया है उसपर त्रेतायुग का आदर्श मत लादिए। सीता और राम हर भारतीय के आदर्श हैं उनकी कथा पर चर्चा ना करके कवयित्री की भावना और नई दृष्टि की सराहना कीजिए
ठीक है शोभा जी यदि रेनू जी ने त्रेतायुग की नही बल्कि आज की नारी की व्यथा व्यक्त की है तो जरा मई जानना चाहूँगा की आज की नारी का रूप का क्या है आज की नारी को आप सीता के बराबर क्या उनके समकक्ष रखने की सोच भी नही सकती
कविता में इस युग की कही बात ही नही दिखती यदि नारी का पक्ष उठाना है तो दोनों पहलुओ को उठाना चाहिए पुरूष के दर्द को भी मंच पर लाना चाहिए
इतिहास गवाह है जितना बलिदान नारी ने पुरुषों के लिए किया उतना ही बलिदान पुरुषों ने भी नारी के लिए किया है
फ़िर ये एकतरफा रूख क्यों
एक लंबे अरसे बाद युग्म पर इस तरह कि सार्थक बहस देखकर खुशी हुई,मैं किसी बहस में नहीं पड़ते रेनू जी को बधाई देना चाहूँगा कि उन्होंने इतनी बड़ी चिंगारी को जन्म दिया.
दूसरी बात को शैलेश भाई को इतने दिनों बाद और वो भी पुरे फार्म में देखकर मन हर्षित हुआ.बहुत अच्छे भाई जी.अब युग्म भरा भरा सा लग रहा है.
आलोक सिंह "साहिल"
nice poem.
i wanted to write in hindi but i was finding it difficult to type.
Ram ....
proved to be a ideal king
but no one ever says that he was a ideal husband( and wives who say so should be ready to leave the home they built at a moments notice, becoz some guy on the street says something about you ).that itself proves that he didn't take care of his wife as he promised during the wedding.
but on the other hand people do compare sita to ideal wife.only thing bad is that she didn't fight for her rights.that is sad.....that did make her a helpless queen....
कविता को विवादास्पद बनाने से पहले समीक्षकों को उसके मूल भाव को अधिक महत्व देना चाहिए। कवियत्रि ने रामचरित्र मानस के पात्रों का सहारा लेकर नारी की वर्तमान दशा का भी अच्छा चित्रण किया है। अपनी पहली टिप्पणी में मेरे व्दारा कविता से उद्धरित अंश-----
आज तक अपनी फरियाद
सुनाने को तड़पती हूँ
और अपने पति से ही नहीं
एक राजा से भी
न्याय पाने को तरसती हूँ ।----
ये पंक्तियाँ कविता के मूल भाव को व्यक्त करती हैं।
---इसे भुलाकर कविता की कठोर आलोचना -कवियत्रि के उक्त भाव को सिद्ध करती है
कि वास्तव में आज भी नारी की दशा क्या है। जब एक सभ्य समाज में-अपने मन की बात लिखने में
इतनी आलोचना का सामना करना पड़ सकता है तो हमारे देश में अशिक्षित-पिछड़े-गरीब-भौतिकता से जकड़े दहेज लोभी परिवारों में नारी की दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
अंत में आलोचना के जवाब में -रेनूजी की प्रतिक्रिया से बात को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है।
मैं एक बार और कविता की प्रशंसा करना चाहता हूँ। --अच्छी कविता के लिए बधाई स्वीकारें---।
---देवेन्द्र पाण्डेय।
विस्मित हूँ ,दुखी हूँ और असमंजस में भी पड़ गयी हूँ...सीता, मांडवी, उर्मिला क्या ये तीनों रामायण के पात्र आपके मन में प्रश्न नहीं उठाते...( केवल इन की ही बात कर रही हूँ ) उठाते हैं.......रिश्ते बंधन में बांधते हैं तो त्याग, तपस्या, धर्म सामने आकर पैरों की बेडियाँ बन जाते हैं......जब भी अपने प्रति हुए किसी अन्याय के ख़िलाफ़ बोलने की बात आती है.............
क्या एक व्यक्तित्व का कोई मूल्य नहीं.....? अगर है तो सीता, मांडवी, उर्मिला को क्यों नहीं.....................? कह देने भर से बराबरी नहीं होती....सोच में बदलाव भी आवश्यक है.....
आज की स्त्री की मुश्किलें....स्त्री के मन में झाँककर देखेंगे तो समझ पायेंगे कितना मुश्किल है घर-बाहर.....संभालना.....
घर तो फिर भी ठीक है..बाहर......बिना उसका शरीर छुए...निगाहों से हुए बलात्कार को आप क्या कहेंगे.......
परिवर्तन आवश्यक है....समाज के सोच का.....क्योंकि अब स्त्री अपने कर्तव्य के साथ-साथ अपने अधिकार भी जानती है.....नहीं मिलेंगे तो छीन लेगी....पर जियेगी....अपने लिये भी......
आभार रेनू जी.....
स - स्नेह
गीता पंडित (शमा)
रेनू जी, आपके प्रश्न और कविता दोनों ही सशक्त हैं और सोचने को बाध्य करते हैं. सवाल स्त्री-पुरूष का न होकर एक चुनाव का है. हमें सत्य के लिए खड़े हो पाने का सहस और "चलता है" के बीच में से चुनाव करना है. किसी ने कहा था की रावण-राज्य की विशेषता है कि उसमें कम से कम रानी तो सुरक्षित थी, हमें भी दुनिया को सिर्फ़ काले-सफ़ेद में बांटने के बजाय सबमें से अच्छे को चुनना चाहिए. पुनः, कविता बहुत अच्छी है. ज्वलंत एवं समसामयिक प्रश्न उठाने के लिए बधाई.
शैलेश जम्लोकि जी,
पहली बात तो चर्चा में किसी की बात का बिना बुरा माने तथ्यों पर आधारित अपना पक्ष रखने का प्रयास करें। आप नाराज़ न हों, किसी भी बात को हर एक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करें।
रेणू जी ने जो बात यहाँ उठाई है वो बात कई अन्य साहित्यकारों और समीक्षकों ने भी कही है।
एक बार, मैं और मेरे दो मित्र जैनेन्द्र प्रताप सिंह तथा पंकज तिवारी (जो हिन्द-युग्म के कवि भी हैं) राम के आदर्श चरित्र पर चर्चा कर रहे थे। हमारी चर्चा ६-७ घण्टों से भी ऊपर चली थी। मैं औरे जैनेन्द्र इस बात से बिलकुल सहमत नहीं थे कि राम एक आदर्श नहीं हैं, हम दोनों तो राम को मर्यादा पुरूषोत्तम भी मानते थे। पंकज बहुत से तर्क दे रहे थे (जो बहुत से साहित्यकारों ने समय-समय पर उठाये भी हैं, जिसमें यह सीता-बनवास भी एक बड़ा मुद्दा है), हम उनके तर्कों से सहमत तो थे लेकिन हम अपनी हार नहीं स्वीकारना चाहते थे। पंकज ने एक बात कही थी जो मैं यहाँ कहना चाहूँगा-
"राम तत्कालीन समाज की मर्यादा के हिसाब से शत-प्रतिशत थे, समाज पुरूष-चालित था, उन्होंने हर एक बिन्दु पर वही सब किया जो उस समय का आदर्श था, लेकिन आज बहुत से आदर्श बदले हैं।"
अपने अंदर के विचारक को थोपी गईं जानकारियों से बाहर निकालेंगे तो पायेंगे कि-जो कल था, आज वैसे ही रहेगा या बदलेगा?- इसकी समीक्षा होनी चाहिए। हमारा भारतीय समाज समय के साथ सोच और व्यवहार के स्तर पर रीकनफिगर नहीं हो सका।
इसमें कुछ हद हमें घर से मिलने वाला संकुचित दायरा भी महत्वपूर्ण कारक है। आस्थाओं पर सवाल करना को प्रशय बहुत कम ही भारतीय परिवार देता है। हम इस बात के लिए बिलकुल तैयार नहीं दिखते हैं कि जो पहले था, उसमें कुछ दोष भी था।
साहित्य कब इतिहास का हिस्सा हो जाता है यह पता नहीं चल पाता। इसलिए आज की कल्पना कल का साक्ष्य भी हो जाती है।
ऐसे में रेणू जी के जैसे विचारों (जिसमें एक तरह की समीक्षा है, एक तरह का दर्शन है) का साहित्य में आना सुखद है। ऐसे बहुत से दृष्टिकोणों को अंगीकार कीजिए, सोच को विस्तार मिलेगा।
शैलेश भारतवासी जी, आपके विचार पढ़ के बहुत ही अच्छा लगा| रेनू जी, आपका उत्तर भी सटीक था|
हमें इन कट्टरपंथी एवं तुच्छ बातों, जैसे की लड़किया क्या पहनती है आदि, से ऊपर उठ कर दूसरो के अधिकारों की इज्ज़त करने जैसी बातों पे ध्यान देना चाहिए|
रेनू जी मुझे लगता है आपने मेरा comment पढ़ा नही सही से ,इसमे कोई शक नही की नारी का दर्द पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यदा है | लेकिन जो सच्चाई आप दिखा रही है
“छोड़ दिया यहाँ लाकर तुमने,
एक धोबी के लिए!”
इसके मायने बड़े खतरनाक और भ्रामक है ,आपके स्वर में जो तीव्रता मुझे महसूस हुई वो निश्चय ही स्वस्थ नही है| यहाँ पे ऐ झलक रहा है की आप सीता शिकायत कर रही है अदना से धोबी के लिए क्यूँ छोडा मुझे ,किस्सी तपस्या के लिए छोड़ देते तो कोई बात नही ... धोबी जैसे निम्न दर्जे के व्यक्ति के लिए छोड़ दिया |जबकि ये भी एक कुरीति है समाज की , जब आज की समझदार नारी आवाज़ उठा ही रही थी तो ,इसको क्यूँ भूल गयी |(मुझे केवल इस बात स कष्ट था जो की इस चर्चा में सामने नही आ पायी ) और रही बात इसकी की राम राजगद्दी छोड़ देते ,पति का धरम निभाते ,ये कर सकते थे ,वो कर सकते थे ..."सकते थे" सकते थे सिवाए wishful thinking के और कुछ नही है |रही बात कविता को विवादस्पद बनाने की तो हम में से कोई भी ऐसा नही चाहेगा | सभी लोग अपनी बात रख पा रहे हैं ,एक चर्चा सी होती हुई नज़र आ रही है ,बात निरंतर आगे बढ़ रही है ,यही क्या कम है |
देवेन्द्र ji हम लोगो की कहाँ इतनी बुद्दि सामर्थ्य ,कहाँ इतना ज्ञान की किसी कविता की समीक्षा कर पाएं ,राम को जी पाएं , सीता के कष्टों की कल्पना भर भी कर पाएं |कोई आलोचना थोड़े ही कर रहे हैं बस चीजे ठोक पटक कर देख रहे हैं | आलोचना से चीजो की खूबसूरती बढती ही है (अगर किसी को लगता है कि कविता की आलोचना हुई )| मेरे यहाँ youtube blocked है वरना रामानंद सागर कृत रामायण के एपिसोड नम्बर ६३ ,६४ में मेघनाद ,रावन और मंदोदरी का संवाद गौर करने लायक है , राजा ऐ कर्तव्यों को लेकर , राजा/रानी रो नही सकते क्युकी उनकी आँखों का एक आंसू प्रजा का विश्वास हिला सकता है | राजा /रानी की जिम्मेदारी उठाने के लिए बहुत कुछ भूलना पढता है परिवार ,पत्नी ,बच्चे उनमे से कुछ है |अब कल सेना का कोई जवान लड़ने जाए या अपनी पत्नी का सुहाग बचाए इसमे द्वंद हो तो सेना के जवान को राम होना ही पड़ेगा ,पत्नी को भूलना ही पड़ेगा ना .........
रेनू आपकी कविता अपने आप में सफल है , न कवल इस वाजेह से की ये एक संवाद को जन्म दे पाई बल्कि हमार भीतर की सच्चाई को गिरिजेश्वर के शब्दों में (अंध)विश्वासों को परखने का मौका भी दे पायी |
साभार
दिव्य प्रकाश
www.esakyunhotahai.blogspot.com
शैलेश भारतवासी जी,
ऐसा क्यों होता है, "हम उनके तर्कों से सहमत तो थे लेकिन हम अपनी हार नहीं स्वीकारना चाहते थे" ? आपने इसका जवाब भी पहले की पंक्ति में दिया है,"हम दोनों तो राम को मर्यादा पुरूषोत्तम भी मानते थे।" क्या यह श्रेष्ठता की ग्रंथी नहीं है ? आप जो मान लें वह अंतिम है और श्रेष्ठ है।बाकी चाहे जितने भी तर्क दें उनके तर्कों का जवाब आपके पास नहीं होते हुए भी आप हार नहीं मानेंगे। क्योंकि आपके हार मानने का मतलब है आपकी श्रेष्ठ होने की पदवी का छीन जाना। आप जो मानते हैं वही सत्य है और अकाट्य है।
यही मानसिकता रेनु जी की कविता पर हो रही बहस में परिलक्षित हो रही है। कोई मानने को यह तैयार ही नहीं है कि उनका राम भी कोई गलती कर सकता है। "वह तो मर्यादा पुरुषोत्तम और आदर्श हैं। इसलिए उन्होंने जो किया अच्छा ही किया । सीता की भलाई के लिए किया। प्रजा की भलाई के लिए किया। सीता त्याग के पीछे राम की भावना राम का प्रेम किसी ने नही देखा जो की सीता को निखारकर इतिहास के पन्नो में एक आदर्श नारी का रूप देते है। राम हमारे आदर्श है.. और उन पर सवाल करना तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे गाली दे रहा है,"...आदि,आदि।
क्या है यह सब शैलेश जी ? तर्कों को स्वीकार नहीं करने के कारण ही भारतीय समाज रसातल में रहा है। जहाँ कभी तर्कों को तहजिह नहीं दी गई। तर्कों पर आस्था और परम्पराओं को थोपा गया। आस्था और विश्वास के नाम पर एक बड़ी आबादी को मानवाधिकारों तक से वंचित रखा गया। किसी को श्रेष्ठ और किसी को नीच समझा गया। किसी को पवित्र तो किसी को मलेच्छ समझा गया।
यहाँ भी रेनु जी ने जो सवाल उठाया है उस पर तर्कों के आधार पर नहीं आस्थाओं और विश्वासों के दायरे में रहकर कहा जा रहा है कि नहीं,राम दोषी नहीं हो सकते। इन आस्थाओं और विश्वासों के नाम पर हम पहले ही इस समाज का बहुत ही नुकसान कर चुके हैं। अब इस विज्ञान के युग में अपनी-अपनी आस्थाओं और विश्वासों को खुर्दबीन से देखकर उसे सुधारने की जरुरत है। जरा सोचिये तो...
- गिरिजेश्वर
मैंने अपने सारी प्रतिक्रियाएं मिटा दी है..
किसी को मेरी बात रखने से परेशानी हुई हो तो मै माफ़ी चाहता हूँ...
सादर
शैलेश
हमेशा नारी के कष्ट के लिए या उसकी स्थिति के लिए पुरूष को ही दोषी क्यों माना जाता है नारी सदियों ख़ुद नारी के लिए कष्ट बनी हुयी है
यदि दहेज़ के लिए एक बहु जलती है तो उसे जलाने में पति और ससुर से ज्यादा सास और नन्द का हाथ होता है जो की ख़ुद एक नारी है पुरूष ख़ुद दोराहे में फस जाता है की वो माँ का साथ दे जो की उसकी जननी है या फ़िर अपनी संगिनी का
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पहली महिला प्रध्नाचार्या से जब ये पूछा गया की इतने आरक्षण और क़ानून होने के बाद भी लड़कियों का शोषण क्यों होता है वो वहां क्यों नही पहुँच पति जहाँ उनका मुकाम है
तो उन्होंने जवाब दिया "इसकी दोषी ख़ुद लड़कियां यदि आप पुरूष हो या नारी अगर आप कुछ अलग हटकर करने लगोगे तो आपका हर तरह से रास्ता रोका जाएगा उसको हटाना आपका काम लेकिन लड़कियां हो या नारी उसको हटाने की बजाये अपने को दयनीय दिखाना ज्यादा पसंद करती है
और जहाँ लड़कियां थोडी सफल हुयी या थोड़े अधिकार मिले वो अपने आप को सबसे उच्च मानने लगती है वो हमेशा अपनी उच्चता दिखाने के चक्कर में कुछ भी करती रहती है और यदि कोई बाधा आई तो तुंरत शोषण का रोना रोने लगती है" उन्होंने बताया की मैंने ये मुकाम हासिल किया मुझे कहीं नही लगा की मेरा कहीं शोषण हुआ और कहा की ताली कभी एक हाथ से नही बजती लड़कियां ख़ुद ऐसा मौका देती है और बाद में समाज और स्थिति को दोष देती है
ये किसी पुरूष के नही बल्कि एक नारी के कथन थे जोकि हकीकत थे मई जानता हु कई लोग इसे स्वीकार नही करेंगे लेकिन घर में बैठकर राए देने और समाज को देखकर राय देने में बहुत अन्तर है
यदि आज लड़कियां या नारियां पीछे है तो इसमे उनका ख़ुद का दोष है वो ये दोष पुरुषों या समाज पर लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती है बस
हमेशा नारियो को ही उच्च दिखाया जाता है हमेश उन्ही के दर्दो को लोग समझते है जबकि ये भूल गए की नारियों में भी कितनी महान महान नारियां हुयी है
एक उदहारण लीजिये कुंती जो की बिन ब्याहता माँ बनी उससे भी महान कम अपने पुत्र को फेंक दिया लेकिन किसी ने उनके बारे में आज तक कुछ नही कहा क्यों क्युकी वो नारी है नारी के दर्द को लोग समझ नही पाते वो जो करती है सही करती है
सही हुआ की कृष्ण ने इस युग में नही जन्म लिया नही तो उन्हें भी कटघरे में खड़ा कर दिया जाता राधा को शायद उनसे शिकायत ना होती लेकिन पूछने वाले उनसे जरूर पूछने लगने तुमने राधा से शादी क्यों नही किया तुमने इतनी नारियो से शादी क्यों किया आदि आनादि
हमेशा पुरूष को दोष देते हुए नारी के दर्द को ही क्यों दिखाया जाता है क्या कभी किसी ने पुरूष के दर्द को भी देखा भीष्म पितामह ने अपना पुरा जीवन बलिदान कर दिया एक नारी से अपने पिता की खुशी के लिए ही लक्ष्मण ने अपने १४ साल लगा दिए अपने भइया और भाभी के लिए कभी उनके दर्द को किसी ने देखा हमेशा उर्मिला के दर्द को समझा गया जबकि लक्ष्मण के दर्द को किसी ने समझा
जबतक ये इक तरफा रुख रहेगा हमेशा ऐसे ही प्रशन उठेंगे वो चाहे आज के युग में हो या त्रेतायुग में या और किसी युग में
BRAHMA NATH TRIPATHI
yaahan baat kewal anyaay kii ho rahee haen , sita kae prit uskae pati kii
पर रचना जी सिर्फ़ सीता जी की बात नही है लेखिका ने ख़ुद कहा है की सभी नारियो के दर्द को उभार रही है शायद आपने पढ़ा नही, उसके प्रति ये मेरे विचार है
"गौतम तिय गति सुरति करि नहीं परसत पग पानि\
मन विहँसे रघुवंशमनि प्रीति अलौकिक जानि॥" सीता की स्थिति को दयनीय समझनेवालों को अच्छी तरह से इन पंक्तियों का मर्म समझने की कोशिश करनी चाहिए जिसमे शादी के बाद प्रचलित परंपरा के मुताबिक सीता को राम का चरण्स्पर्श करना था पर उन्होने स्फ्ष्ट रूप से इंकार कर दिया था। ऐसा न करने के पीछे कहानी जो भी गढी जाए पर तथ्य तो तथ्य है। सीता के समर्थन के बिना कुछ भी हुआ हो यह संभव नहीं दिखता भले ही वह मौन समर्थन क्यों न हो। क्या यह सर्वविदित नहीं है कि सीता लक्ष्मण पर भी इल्जाम लगाने से न चूकीं????और उन्ही सीता का कहना है कि-"जीति को सकई अजय रघुराई"। उनके कटुवचनों से आहत होकर ही लक्ष्मण को यह जानते हुए भी कि राम को सहायता की कोई जरूरत नहि है, जाना पड़ा था।
बिल्कुल सही रवि कान्त जी यही तो मै कहना चाहता हूँ की यदि सीता इसके विरुद्ध थी तो उन्होंने इसका विरोध क्यो नही किया
क्या उनको भी डर सता रहा था की उनकी छवि धूमिल हो जायेगी यदि वो विरोध करेंगी तो
किसी ने कहा है की जुल्म करे वाले से बड़ा दोषी जुल्म सहने वाला होता है
यदि सीता को लगा की उनके साथ ये अन्याय हो रहा है तो वो खुलकर सामने क्यो नही आई
इसीलिए मै कहता हूँ की हे नारियो के शोषण का दोष सिर्फ़ पुरूष पर लगाने वालो जरा आँखे खोलो और देखो की जितना दोषी पुरूष उससे कहीं ज्यादा दोषी नारी ख़ुद है
शायद मेरी बात का मतलब लोग समझ सके तो अच्छा होगा
रेनु जी नमस्कार,
आपकी कविता मर्मस्पर्शी है, समाज को आईना दिखाने का काम कर रही है, इसलिये विवादित है.. क्योंकि आपने किसी ऐसे वैसे पर आँगुली नही उठाई.. मर्यादा पुरुषोत्तम पर उठाई है, हालाँकि रावण पर उठाती तो भी शायद बहस हो जाता.. लोग कहते कि आखिर सीता ने दहलीज पार ही क्यों कि, उसे अन्दर ही रहना था.. बाहर क्यों कि... और अगर सीता बाहर नही आयी होती तो भी यह बोला जाता कि, मर्यादा पुरुषोत्तम की धर्मपत्नी ने रघुकुल के नियम को ताख पर रख दिया... उसके द्वार से एक सन्यासी भुखा लौट गया... आप धोबी पर अँगुली उठाईये... तब भी विवाद होगा... लोग कहेंगे कि अर्रे गलत क्या किया धोबी ने, सीता जैसी थी उसने कहा, अगर नही कहा तो इसका मतलब हुआ वो राम से डर गया... अब यह बात ठीक नही थी ना, राम राज्य मे भला कोई डरे... राम राज्य का अपमान नही होगा...
चलिये वो तो उस जमाने की बात थी... एक सीता सवाल नही कर सकी कि मेरे गलती क्या थी.. रावण भी एक ही था और धोबी भी एक ही था।
पर आजकल हालात कुछ और हं, अब राम राज्य सही मायने मे आया है.. राम का वास्तव मे राज्य है... सीता को सवाल पुछने का बोलने का अधिकार आज भी नही है, रावण तो हर गली मे है, घर से निकलते वक्त ही महसुस होने लगता है, घर से ऑफ़िस,ऑफ़िस से बाजार, जहा जाईये, हर वक्त आपका हरण हो रहा है, हर वक्त आप से आपके अस्तित्व को छीन लेने कि कोशिश की जा रही है.. और धोबी.. बाप रे बाप, पहले येही लोग रावण बनते हैं, फ़िर धोबी भी बन जाते हैं, और जो रावण बनने का अच्छा साहस नही कर पाते, वो भी धोबी बनने का साहस तो कर ही लेते हैं।
जब एक रावण, एक धोबी था तो सीता सवाल ना कर सकी... अभी अपने सवाल कर लिया.. हंगामा तो होना ही है... आप खुद ही समझ लिजिये...सीता होना पाप था...अ र्रे पैदा ही होना था तो राम बनक, रावण बनकर, धोबी बनकर, सीता बन गये तो... सवाल तो उठेंगे, और सवाल भी उठेंगे आपको जवाब भी नही देने दिया जायेगा, आप अगिन परीक्षा भी दिजिये पर पवित्र नही माना जायेगा। यही तो आखिर सभ्यता की निशानी है।
रचना जी मैं आपकी बड़ी इज्ज़त करता हूँ , अपने मेरी कविता "क्या लिखूं " जो की इंटरनेट पे बिखर गयी उसके लेखक को ढूंढने का बीडा उठाया |मैं सदा आपका आभारी रहूँगा |मुझे लगता है अनजाने मैं आप जल्दबाजी कर गयी और मेरी पूरी बात पढ़ नही पायी , और अगर पढ़ के अपने किया है तो आपने निराश किया I expected some real stuff some depth.
गरिमा जी अपन अपनी बातें बड़े ही सशक्त ढंग से लिखी मगर अफ़सोस सशक्त बातें नही लिखी, अगर कहीं सवाल उठ रहे हैं तो इसका मतलब ये कतई नही की आपको बोलने से रोका जा रहा है | आपके तेवर से यही लगा जैसे यहाँ पे नारी को बोलने ही नही दिया जा रहा है ,जबकि ऐसा कहाँ है सब लोग अपनी बात अपनी तरह से रख रहे हैं |अब आपको हर जगह रावन ही दिख रहे हैं तो दुनिया की कोई भी बहस इसका इलाज नही कर सकती |अब कल को आप लोग ये कहेंगे की राम से पत्नी की रक्षा तो होती नही तो पति रावन जैसा होना चाहिए कम से कम पत्नी तो सुरक्षित है ,इन बातों का कोई मतलब नही है | मुझे अफ़सोस है आप इस वार्ता को हमारे विचारो को पुरुषों का एकाधिकार ,वर्चस्व बता रही हैं |
और भइया मोरे , गिरिजेश्वर जी
”तर्कों को स्वीकार नहीं करने के कारण ही भारतीय समाज रसातल में रहा है। जहाँ कभी तर्कों को तहजिह नहीं दी गई। तर्कों पर आस्था और परम्पराओं को थोपा गया”
अपने उक्त विचार(तर्क) रखे| अब चलिए कुछ बातें आपसे भी साफ हो जायें जरा वैज्ञानिक युग की बात करते हैं Chemistry मैं एक समय मैं 52 पदार्थ ढूंढे अगये थे ,फ़िर ये 72 हुए फ़िर 97 हुए और आज 109 हैं | अब कोई 20 साल पहले तर्क कर कर के अपना सर फोड़ लेता फ़िर भी 56 के बाद 57th तत्त्व को मानने के लिए तैयार नही होता ना लेकिन 57th तत्त्व यहीं था न किसी ने बना तो दिया नही , जब इस दुनिया मं जानने को इतना कुछ बचा है ,जब अज्ञात ही इतना ज्यादा है तो तर्कों से बहुत लम्बी यात्रा नही हो सकती न भइया मोरे !!
Russia में 1833 se 1853 Nihilism(सर्व खंडनवाद) तक चला| इसको मानने वाले लोग हर चीज को तर्क से तौलते ते , भक्ति ,श्रधा पर सवाल उठाते थे| ये २० साल मैं नष्ट हो गया | कारण बड़ा सीधा सा था हर चीज पे सवाल उठोगे तो ख़ुद पे भी सवाल उठान पड़ेगा और जो भी हर चीज को तर्क मैं तौलेगा उससे अपने मन से ख़ुद के इस दर्शन को भी तुलना पड़ेगा की हर चीज को तर्क से तुलना भी एक भक्ति ही तो है एक belief ही तो है |जिसपे करीब करीब सारे धरम निर्भर हैं | इसलिए भइया मेरे आपकी ये चिंता बिल्कुल भी तर्क संगत नही की भक्ति(आस्थाओं और विश्वासों) से समाज रसातल मैं जा रहा है |
हाँ आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ
“अब इस विज्ञान के युग में अपनी-अपनी आस्थाओं और विश्वासों को खुर्दबीन से देखकर उसे सुधारने की जरुरत है।“
इसलिए आप अपनी आस्था और विश्वास की खुर्दबीन करें और यथसंभव सुधार जरुर होगा ऐसा मेरा विश्वास है |
सादर
दिव्य प्रकाश
www.esakyunhotahai.blogspot.com
@रचना जी
मैं आपकी बड़ी इज्ज़त करता हूँ , अपने मेरी कविता "क्या लिखूं " जो की इंटरनेट पे बिखर गयी उसके लेखक को ढूंढने का बीडा उठाया |मैं सदा आपका आभारी रहूँगा |मुझे लगता है अनजाने मैं आप जल्दबाजी कर गयी और मेरी पूरी बात पढ़ नही पायी , और अगर पढ़ के अपने किया है तो आपने निराश किया I expected some real stuff some depth.
@गरिमा जी
अपने अपनी बातें बड़े ही सशक्त ढंग से लिखी मगर अफ़सोस सशक्त बातें नही लिखी, अगर कहीं सवाल उठ रहे हैं तो इसका मतलब ये कतई नही की आपको बोलने से रोका जा रहा है | आपके तेवर से यही लगा जैसे यहाँ पे नारी को बोलने ही नही दिया जा रहा है ,जबकि ऐसा कहाँ है सब लोग अपनी बात अपनी तरह से रख रहे हैं |अब आपको हर जगह रावन ही दिख रहे हैं तो दुनिया की कोई भी बहस इसका इलाज नही कर सकती |अब कल को आप लोग ये कहेंगे की राम से पत्नी की रक्षा तो होती नही तो पति रावन जैसा होना चाहिए कम से कम पत्नी तो सुरक्षित है ,इन बातों का कोई मतलब नही है | मुझे अफ़सोस है आप इस वार्ता को हमारे विचारो को पुरुषों का एकाधिकार ,वर्चस्व बता रही हैं |
@ और भइया मोरे , गिरिजेश्वर जी
”तर्कों को स्वीकार नहीं करने के कारण ही भारतीय समाज रसातल में रहा है। जहाँ कभी तर्कों को तहजिह नहीं दी गई। तर्कों पर आस्था और परम्पराओं को थोपा गया”
अपने उक्त विचार(तर्क) रखे| अब चलिए कुछ बातें आपसे भी साफ हो जायें जरा वैज्ञानिक युग की बात करते हैं Chemistry मैं एक समय मैं 52 पदार्थ ढूंढे अगये थे ,फ़िर ये 72 हुए फ़िर 97 हुए और आज 109 हैं | अब कोई 20 साल पहले तर्क कर कर के अपना सर फोड़ लेता फ़िर भी 56 के बाद 57th तत्त्व को मानने के लिए तैयार नही होता ना लेकिन 57th तत्त्व यहीं था न किसी ने बना तो दिया नही , जब इस दुनिया मं जानने को इतना कुछ बचा है ,जब अज्ञात ही इतना ज्यादा है तो तर्कों से बहुत लम्बी यात्रा नही हो सकती न भइया मोरे !!
Russia में 1833 se 1853 Nihilism(सर्व खंडनवाद) तक चला| इसको मानने वाले लोग हर चीज को तर्क से तौलते ते , भक्ति ,श्रधा पर सवाल उठाते थे| ये २० साल मैं नष्ट हो गया | कारण बड़ा सीधा सा था हर चीज पे सवाल उठोगे तो ख़ुद पे भी सवाल उठान पड़ेगा और जो भी हर चीज को तर्क मैं तौलेगा उससे अपने मन से ख़ुद के इस दर्शन को भी तुलना पड़ेगा की हर चीज को तर्क से तुलना भी एक भक्ति ही तो है एक belief ही तो है |जिसपे करीब करीब सारे धरम निर्भर हैं | इसलिए भइया मेरे आपकी ये चिंता बिल्कुल भी तर्क संगत नही की भक्ति(आस्थाओं और विश्वासों) से समाज रसातल मैं जा रहा है |
हाँ आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ
“अब इस विज्ञान के युग में अपनी-अपनी आस्थाओं और विश्वासों को खुर्दबीन से देखकर उसे सुधारने की जरुरत है।“
इसलिए आप अपनी आस्था और विश्वास की खुर्दबीन करें और यथसंभव सुधार जरुर होगा ऐसा मेरा विश्वास है |
सादर
दिव्य प्रकाश
www.esakyunhotahai.blogspot.com
रचना जी ,पिछले एक सल् मैं मुझे इतनी फुर्सत भी नही मिल्ली है की मैं अपने घर पे रोज़ फ़ोन पे भी बात कर पाऊँ| | मेरे MBA की opportunity cost(आपसे ये भी उम्मीद बेमानी है की इसका मतलब तक आपको पता हो ) बहुत ज्यादा है कि मैं आपकी क्या किस्सी की भी कविता को copy करूँ|आपकी क्या किस्सी की भी कोई भी कविता मुझे उतना नही दे पायेगी जितना की मेरा MBA.
रचना मुझे ब्लॉग्गिंग भी ज्यादा टाइम से नही आती | शैलेश भारतवासी इस बात के गवाह हैं की मैं कितना व्यस्त रहता हूँ| मुझे कहाँ फुर्सत है की मैं dollar भी कमा पाऊँ | ये क्या बिन सर पैर की बात कर रहे हो आप!! I never expected this level of shallowness, depth of shallowness i must say!!
मैं आपको तहे दिल से धन्यवाद दे रहा था की अपने कम से कम मेरी कविता के लेखक के बारे में चिंता की जिससे सब अनजान थे लेकिन आप तो बेवजह इल्जाम ही लगाने लगी !! अगर आप कहीं पे भी दिखा दें की मेरी एक भी कविता जो मेरे नाम से आई है ,कहीं की copy कॉपी की हुई है , मैं उसी पल blogging ही छोड़ दूंगा |
May God bless you with some basic integrity of blogger at least!!
With lots of luck and light
Divya Prakash
SIBM,Pune
@रचना जी
,पिछले एक साल मैं मुझे इतनी फुर्सत भी नही मिल्ली है की मैं अपने घर पे रोज़ फ़ोन पे भी बात कर पाऊँ| | मेरे MBA की opportunity cost(आपसे ये भी उम्मीद बेमानी है की इसका मतलब तक आपको पता हो ) बहुत ज्यादा है कि मैं आपकी क्या किस्सी की भी कविता को copy करूँ|आपकी क्या किस्सी की भी कोई भी कविता मुझे उतना नही दे पायेगी जितना की मेरा MBA.
रचना मुझे ब्लॉग्गिंग भी ज्यादा टाइम से नही आती | शैलेश भारतवासी इस बात के गवाह हैं की मैं कितना व्यस्त रहता हूँ| मुझे कहाँ फुर्सत है की मैं dollar भी कमा पाऊँ | ये क्या बिन सर पैर की बात कर रहे हो आप!! I never expected this level of shallowness, depth of shallowness i must say!!
मैं आपको तहे दिल से धन्यवाद दे रहा था की अपने कम से कम मेरी कविता के लेखक के बारे में चिंता की जिससे सब अनजान थे लेकिन आप तो बेवजह इल्जाम ही लगाने लगी !! अगर आप कहीं पे भी दिखा दें की मेरी एक भी कविता जो मेरे नाम से आई है ,कहीं की copy कॉपी की हुई है , मैं उसी पल blogging ही छोड़ दूंगा |
May God bless you with some basic integrity of blogger at least!!
With lots of luck and light
Divya Prakash
SIBM,Pune
@ गरिमा जी
मुसीबते किसके साथ नही आती और कहाँ दुष्ट लोग नही होते पर कुछ लोग उनका सामना करते है पर कुछ लोग अपने को दयनीय दिखाकर लोगो की सहानुभूति पाना चाहते है
आपको हर जगह रावन और धोबी जरूर दीखते है पर हर घर में कैकेयी नही दिखती जो आज भी हर घर को तोड़ने के लिए बैठी है
हर जगह कुंती नही दिखती
की शादी से पहले ही सब कुछ किए बैठी है और दिखेंगी भी कैसे वो नारी है ना हां अगर पुरूष होते तो जरूर दिख जाते
रेनू जी,
आज मैंने आपकी कविता को बस कविता के नज़रिए से पढ़ कर आंकलन किया.. तो मैंने ये पाया
१) "सदियों से एक सवाल
मेरे मानसपटल पर,
रह-रह कर उठाता है फन अपना,"
क्या तुम सदियों से जी रही हो, जो ये सवाल तुमारे मन मै सदियों से आ रहा है..
२)"या छोड़ दिया मुझको तुमने,
अपनी राजगद्दी बचाने को ?" यहाँ पर आपके ऑप्शन्स ही गलत है..अरे अगर राज गद्दी ही बचानी होती तो.. १४ साल बनवास क्यों जाते... तभी बचा लेते..
३) "कोचता" शब्द हिंदी मियो मुझे ढूँढने से भी नहीं मिला... क्या आप "कचोटता" कहना चाह रही है क्या? अगर कहीं आपको मिले तो मुझे भी बताना..
आगे के सवाल फिर से विवाद पैदा करेंगे.. अतः नहीं पोस्ट करुना...
कविता के बजाय,े इसे अगर शिकायत पत्र कहें तो अच्छा होगा..
सादर
शैलेश
बहुत गर्म बहस हो रही है.. जम्लोकि जी व रचना जी ने पोस्ट हटा दी... ये दुखद है..
खैर... मुद्दे पर आते हैं
रेनू जी,
मेरे हिसाब से राज्धर्म का पालन था..
अगर सीता जी को वनवास मिला तो राम ने भी राजा होने का कोई लुत्फ नहीं उठाया.. वे भी सीता की तरह ही जमीन पर सोये और वैसा ही भोजन किया.. (फल फूल वाला)... अगर राजगद्दी बचानी होती तो वे ऐश से रहते .. और पहले भि वनवास क्यों जाते????
आपका सवाल सिर्फ इतना है कि राजधर्म पालन अथवा राज्गद्दी रक्षण... मेरा मत : राजधर्म पालन..
धन्यवाद..
@renu ji
रेनू अब भाई में क्या बोलूं , रचना का कमेन्ट अपने पढ़ा नही उसने (रचना जी) ने delet कर दिया है ,मुझपे हमला था उसका जवाब भर दिया..... “आप कुतर्क नहीं कर रहे बस अब रचना जी पर जो frustration था... यहाँ उतार रहे हैं......” रेनू मैं तो रचना को ज्यादा जनता भी नही उन्होंने बात ऐसी लिख दी थी की जिसका जवाब देना पड़ा , मैं माफ़ी चाहता हूँ मेरी वाजेह से बहस की सार्थकता टूटी , लेकिन कम से कम आप तो बिना पढ़े कमेन्ट न करें ,इतनी विनती तो कर सकता हूँ न रेनू जी ......
रही बात फ्रुस्टेशन की तो उसकी चिंता न करें , इतने दिनों पुरनी नारी की फ्र्सुटेशन के आगे हमारी पीड़ा frustration ki परिभाषा में भी नही आती |
with luck and light
DIvya Prakash
SIBM,Pune
रेनू जी,
मेरा पहला प्रश्न पूछने का तात्पर्य यह था, की आप अगर .. कविता का प्रसंग देती तो कविता और अच्चा होता...
२) कई बार जिंदगी, परिस्थितियाँ ऐसे मोड़ पर लाती है की आप को कोई एक ही चुन ना है.. और आपको ये भी पता है की दोनों.. दशाओ मै आपके निर्णय की आलोचना होनी है.. तो राम ने उस समय की परस्थितियों को, सदर्शो को धयान मै रख कर जो भी फैसला किया .. मुझे बिलकुल ठीक लगा.. बाकी इस मै सब को असहमत होने का हक है..
मैंने इस बार प्रतिक्रिया.. केवल कविता को ध्यान मै रख कर दी है.. इस बात का धयान रखे.. अतः मैंने ये पुछा था.. की राज गद्दी तो वो १४ साल पहले भी प् सकते थी.. पिता के वचनों को तोड़ कर..
३) और तीसरा.. मुझे सचमुच "कोंचता" का मतलब नहीं पता था,,. और शुक्रिया आपने मुझे बताया...
४) मैंने ये कभी नहीं कहा की शिकायती पत्र अछि कविता नहीं हो सकती.. और एक अछि कला भी है.. मैंने बस ये कहा... की मुझे आपकी ये कोशिश अच्छी नहीं लगी...
सादर
शैलेश
कवि एक संवेदनशील व्यक्ति होता है और उसका उद्देश्य जानकर किसी का दिल दुखाना नहीं होता. दूसरी तरफ़ पाठकों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे रचना का मूल्यांकन करते समय अपने पूर्वाग्रह लादने की कोशिश न करें. हमें स्त्री-पुरूष, भक्त-नास्तिक के चोले से बाहर आकर तथ्यों को देखना पड़ेगा.
@रेनू जी,
अनजाने ही यह बहस कविता से हटकर इतिहास और हमारे पूर्वाग्रहों पर चलने लगी है. इतनी लम्बी बहस से इतना तो स्पष्ट है कि इस रचना में उठाये गए सवाल ज्वलंत और समसामयिक हैं. इसके लिए आप सचमुच बधाई की पात्र हैं. बहुत अच्छे, ऐसे ही लिखती रहिये. मैं सिर्फ़ एक बार फ़िर से यह कहना चाहूंगा की रचना बहुत शक्तिशाली है.
@दिव्य प्रकाश जी, राम और रामायण को राही मासूम रजा के लिखे संवादों के द्वारा समझने की कोशिश एक छलावे से ज़्यादा नहीं है - यदि आप सचमुच इसे समझना चाहते हैं तो कहीं से वाल्मीकि रामायण या उसका प्रमाणिक अनुवाद लेकर पढें.
@भारतवासी जी, असतो मा सद गमय - भारतीय संस्कृति में सत्य सिर्फ़ काला सफ़ेद नहीं है. एक काल में रहने वाले सत्य से बेहतर सत्य वह है जो कालातीत हो. जो कल सही था उससे ज़्यादा सही वह है जो आज भी सही हो. यह सत्य है कि राम के कुछ आचरण तब के अनुसार ही सही थे लेकिन इसीलिये वे पूर्ण पुरुषोत्तम न होकर मर्यादा (सीमित - Limited) पुरुषोत्तम कहे गए हैं.
@ब्रह्म नाथ जी, बुरा न मानें - आपको अपना छोटा भाई मानकर कह रहा हूँ - आपको धार्मिक ऐतिहासिक तथ्यों और उनके आंकलन पर काफी काम करने की ज़रूरत है. कृपया इस बारे में थोडा अध्ययन करें - कुंती का विवाहेतर माँ बनना उस सन्दर्भ में भी सही नहीं था मगर सिर्फ़ अपमान से बचने के लिए अपने बच्चे की जिम्मेदारी से भागना तो किसी भी देश काल में अधम पाप है - उसमें महानता जैसी कोई बात कहीं भी नहीं है. भीष्म पितामह सत्ता के मद में धृतराष्ट्र जितने ही अंधे थे और अपने वंशजों के विवाह के लिए तीन बहनों का बलात अपहरण करने जैसे कामों के अलावा अपनी ही बहू की बेईज्ज़ती के समय भी चुप बैठे रहे थे. ऐसे व्यक्ति से एक आम भारतीय नागरिक क्या उम्मीद रख सकता है? शासन के ऐसे ही अंधे चाटुकारों की वजह से आज हम इस दुर्गति की दशा में पड़े हैं.
जहाँ तक लक्ष्मण जी के दर्द की बात है वह उनके अपने और उनके माता-पिता के कर्मों की वजह से था जबकि निर्मला का दर्द उनपर उनकी ससुराल के लोगों के कर्मों द्वारा थोपा गया था. यदि आज के समय में भी हम यह नहीं देख पा रहे हैं तो हमारे समाज और हमारी शिक्षा व्यवस्था में कहीं बहुत बड़ी कमी रह गयी है.
@देवेन्द्र पाण्डेय जी, हरिहर जी - साधुवाद.
रेणु जी, आपने बड़ी सशक्त कविता लिखी है, और एक स्त्री के मनोभावों को बखूबी उभरा है | इस तरह के प्रश्न आपसे पहले भी कई बार कई मंचो पर उठता रहा है और काफी आलोचना समालोचना के बाद भी कोई न्यायोचित निष्कर्ष नहीं निकल सका और भागवान राम निर्विवाद रूप से मर्यादा पुरुषोतम कहें जाते रहे है, कहें जा रहे है और कहें जाते रहेंगे |राम मर्यादित थे या नहीं यदि इसका निष्कर्ष निकलना है तो खुद तो स्त्री और पुरुष के मध्य लाये और परिस्थितयों पर निष्पक्ष चिंतन का प्रयास करे तो शायद आपको आपके प्रश्नों का जबाब स्वयं ही मिल जाये |
हे राम!
हे मर्यादा पुरूषोत्तम राम,
सदियों से एक सवाल
मेरे मानसपटल पर,
रह-रह कर उठाता है फन अपना,
और कोंचता है मुझको,
जानना चाहता है तुमसे,
कि त्याग किया था तुमने मेरा,
अपना राजधर्म निभाने को,
या छोड़ दिया मुझको तुमने,
अपनी राजगद्दी बचाने को ?
जिस व्यक्ति में राजसत्ता की आकांक्षा सर्वोपरी होती है वो व्यक्ति किसी का नहीं होता है, न पत्नी का, न परिवार का और न ही जनता का |
अब आप ही बतलायिये जैसा की आपकी कविता कहती है "छोड़ दिया मुझको तुमने,अपनी राजगद्दी बचाने को" अगर राजगद्दी ही बचानी थी तो पिता की आज्ञा, सौतेली माता की इच्छा क्या मायने रखती थी राम के लिए, तब प्रजा भी उनका साथ देने को तैयार थी |
तुम भूल गए राम,
राजा बनने से पहले
तुम पति थे मेरे,
लिए थे सात फेरे,
भरे थे वचन,
क्या मन में एक बार न आया,
अपना पतिधर्म निभाने को?
वो पुरुष जो अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता हो की विषम परिस्थितयों में भी उसके अपहरण कर लिए जाने के बाद, उस समय की सबसे मजबूत सत्ता से भिड़ने से पहले थोडा भी कमजोर ना पड़े, और yese शेर के माद से अपनी पत्नी को सकुशल वापस ले आये जिससे दो हाथ करने का साहस उस समय तीनो लोको में किसी के पास नहीं था, और आप कहती है की राम ने पति धर्म का पालन नहीं किया, आपको नहीं लगता की आपके विचारो पर आत्ममंथन की गुन्जाईस बचती है |
मैंने तो निभाया था पत्निधर्म,
संग चली थी तुम्हारे,
काँटों की डगर पर,
वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी,
पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।
राम ने कब कहा था की "सीता चूकि तुम मेरी पत्नी हो अतः तुम्हे बनवास में भी मेरा साथ देना होगा" यहाँ तक की उन्होंने उन्हें वन में जाने से रोका था परन्तु उनकी दृढ इच्छा के सामने उन्हें झुकना पड़ा | "वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी, पहुँचा दिया मुझे रावण के घर" क्या कहना चाहती है आप ?, राम ने अपनी इच्छा से या रावण के डर से सीता को लंका में जाकर छोड़ दिया था | ये तो सीता की बेबकूफी थी या विधि का विधान की सीता घने जंगल में जहा मायावी और दुष्ट प्रकृति के लोगो की भरमार थी वहा स्वर्ण मृग की इच्छा जता बैठी और राम ये जानते हुए भी की ये माया मात्र है, उनकी इच्छा पूर्ति हेतु उस मृग के पीछे दौड़ पड़े, आपने छोटे भाई लक्ष्मण को सीता के सुरक्षा की जिम्मेवारी छोड़ कर और उसके बाद सीता हरण में दोष किसका था, ये तो बेहतर होगा की आप ही विचार करके बतला दे |
तुम आए मुझे लेने,
मैं चल दी पीछे-पीछे,
छोड़ दिया यहाँ लाकर तुमने,
एक धोबी के लिए!"तुम आए मुझे लेने, मैं चल दी पीछे-पीछे" क्या कहना चाहती है आप की अपनी प्रिय पत्नी को एक दुष्ट के चंगुल से बचाने के प्रयास में एक पति नहीं आपने प्राणों की भी परवाह नहीं की उस पति के साथ पीछे पीछे हो लेना उस पति पर अहसान करना है आपकी नजर में
"छोड़ दिया यहाँ लाकर तुमने, एक धोबी के लिए!" क्या कहना चाहती है आप की राम जिनका सामना रावन जैसा शक्तिशाली योधा नहीं कर सका उन्होंने आपने ही राज्य के एक कमजोर वर्ग के व्यक्ति के आगे घुटने टेक दिए, या येसा करते हुए उन्हें सीता के मुकाबले कम कष्ट हुआ होगा |
आपने सीता के नजरिये से कविता लिखी, अच्छी लिखी अब एक राजा के नजरिये से भी सोचिये, क्या करती आप :
१) उस धोबी को सजा दे देती जिसकी पत्नी जो बगैर कोई जानकारी दिए रात भर घर के बाहर रही और धोबी के द्वारा प्रश्न करने पर दो टूक उत्तर दे डाला की राम जैसा राजा जब किसी के घर कई रात गुजार चुकी पत्नी को अपना सकता है तो तुम क्या चीज हो |
२) क्या धोबन का तर्क सही था और उस धोबी के द्वारा स्वीकार कर लिया जाना चाहिए था | क्या आप उस धोबी को एक राजा होने के नाते ये आदेश दे पाती की चुकी मैंने सीता को स्वीकारा इसलिए तुम्हे भी बगैर कोई प्रश्न किये येसा करना ही पड़ेगा |
३) या आप रातो रात अपनी पत्नी को लेकर, राज पथ की जिम्मेवारी त्यागकर कही रफुचाकर हो जाती |
४) या आप कान में रुई डालकर सुब कुछ ईश्वर के ऊपर छोड़ देती, ताकि हर उस स्त्री को जो किसी भी मामले में सीता के बराबर नहीं, jo nahi janti ki patni धर्म क्या होता है, राते अपनी मर्जी से कही भी गुजरे, पति मज्बोर हो जाये उन्हें अपनाने के लिए क्युकी राम ने येसा ही किया था भले ही सीता की परिस्थिति और उनकी परिस्थिति का कोई मेल ना हो |
शायद हम और आप येसा कर भी लेते और करेंगे भी, इसलिए हमलोग एक आम इन्सान से जायद कुछ भी नहीं लेकिन शदियों से मर्यादा पुरुषोतम के नाम से स्वीकृत भागवान राम को ओछे विवाद का विषय बनाना सर्वथा अनुचित है |
@Smart Indian जी
मै मानता हूँ की शायद मुझे धर्म ग्रंथो का उतना ज्ञान नही है लेकिन मैंने यहाँ ऐतिहासिक साक्ष्य या धार्मिक साक्ष्य नही माँगा
न मैने जानना चाहा की किसको कष्ट किसके कारण मिला बल्कि मेरा प्रशन था की "नारियो की हालात और उनकी स्थिति के लिए हमेशा पुरुषों को ही दोषी क्यो माना जाता है जितना पुरूष दोषी है उतनी ही या उससे कहीं ज्यादा नारियां भी दोषी है फ़िर ये एकतरफा रूख क्यो"
माफ़ कीजियेगा आप कहेंगे यहाँ प्रशन सीता का है और सीता के साथ अन्याय पुरूष ही ने किया लेकिन मेरा ये प्रशन उन लोगो से है जिन्होंने यहाँ बिना सोचे समझे ही ये विचार दिया है की सदियों से नारियां सहती आ रही है और इसके उत्तरदायी पुरूष है
शायद मेरे प्रशन को आप समझ गए होंगे
रेणु जी मैंने इस कविता के essence को बखूबी समझा और एक नारी की भावनाओ की अच्छी अविव्यक्ती के लिए आपकी सराहना भी की, लेकिन भावनाओ को व्यक्त करने के क्रम में आपने वस्ताबिक तथ्यों को ताख पर रख कर, अपने व्यक्तिगत विचारो को हावी कर दिया इस कविता में और शायद इसी कारण से आपकी कविता को एक आलोचक के नज़रिए से देखना पड़ा |
आपने अपनी कविता में सीता के माध्यम से वैसे भ्रम को उजागर किया जो कभी शायद सीता को भी न रहा हो, जैसे की :
१) या छोड़ दिया मुझको तुमने, अपनी राजगद्दी बचाने को ?
२)वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी, पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।
जिस राम ने पिता के ये कहने पर की मैं वचन न तोड़ने के "रघुकुल की रीत" को तोड़ने का अपयश लेने के लिए तैयार हू, हलाकि मैंने कैकयी को वचन दिया था लेकिन तुम मेरी इस आज्ञा को मत मानो और राम ने अपने पिता को ये अपयश लेने से रोका | अपने मित्र सुग्रीब की रक्षा के लिए बाली को मारा और राज्य सुग्रीव को दे दिया, रावण का संघार किया और राज्य विभीषण को दे दिया उस व्यक्ति के बारे में ये प्रश्न उठाना की " सीता का त्याग उन्होंने राजगद्दी बचाने के लिए किया", शायद आप पहले है जिसके मन में यह विकल्प आया हो |
जिस सीता ने रावण के बंधन में हर समय रहते हुए भी कभी अपना ये विश्वास टूटने नहीं दिया की उनके राम अजेय है और वे उन्हें सकुशल छुड़वा लेंगे और अंततः उनका विश्वास सत्य हुआ उनके दिमाग में कब ये बात aa सकती है की "वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी, पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।" ये तो कलयुग के सीता के दिमाग की उपज लगती है |
मैंने आपसे इस कविता के संदर्व में कई प्रश्न किये जिसका कोई भी संतोषजनक जबाब देना आपने उचित नहीं समझा और आप आज की नारी की सोच को सीता का नज़रिया बतलाकर एक ईश्वर समझे जाने वाले इन्सान को फिर से कटघरे में खडा करने से नहीं चुकी |
मैंने आपसे अनुरोध किया की आप एक राजा के नज़रिए से भी परिस्थितयों को देखिये और बतलायिये की आपका निर्णय क्या होता तो आप परिस्थितयों के विकल्प सूझा कर फिर से प्रश्न करना शुरु कर दिया की यदि परिस्थितया ये होती तो राम का निर्णय क्या होता, परिस्थितया वो होती तो राम का निर्णय क्या होता |
परिस्थितया तो एक ही थी उसपर क्या निर्णय लिया जा सकता था आप उसपर अपने विचार दे
सच्चाई तो यह है की सीता जो जब जब कोई जटिल निर्णय लेना पड़ा वो हमेसा एक पत्नी थी और कोई दुबिधा उनके रास्ते में नहीं थी लेकिन राम को अलग अलग परिस्थितयों में अलग अलग हैसियातो से निर्णय लेना पड़ा और उन्होंने हमेसा एक सर्वोतम निर्णय ही लिया |
१) जब उन्होंने एक बेटे की हैसियत से निर्णय लिया एक आयाम स्थापित किया |
२) जब उन्होंने एक मित्र की हैसियत से निर्णय लिया, कोई प्रश्न चिन्ह की गुन्जयिस नहीं छोडी |
३) जब उन्हें एक पति की हैसियत निर्णय लेना पड़ा, उन्होंने विपरीत परिस्थितयों की परवाह नहीं की और वो कर दिखाया जो कदापि सहज नहीं था |
४) जब उन्हें एक राजा की हैसियत से निर्णय लेना पड़ा, उन्होंने वही किया जो एक राजा को उन परिस्थितयों में करना चाहिए था |
अब ये सही है की जब दो धर्मो के पालन की दुविधा एक साथ आ गयी तो उन्होंने अपने व्यक्तिगत हित की अनदेखी की और अपने राज्य की जनता के हितों को सर्वोपरि रखा और हमेसा एक मिसाल ही स्थापित किया |
अंततः मैं यही कहना चाहूँगा की सीता के साथ गलत हुआ मैं स्वीकार करता हू लेकिन राम ने अपने जीवन में जिन परिस्थितयों के संदर्व में जो जो निर्णय लिए, वो हर निर्णय उनको मर्यादा पुरुषोतम के तौर पर मजबूती से स्थापित करता है |
अब "अग्नि परीक्षा सीता ही क्यु दे राम क्यु नहीं", प्रश्न सही है लेकिन ये एक अलग विषय है जो फिलहाल आपकी कविता का अंग नहीं था और चर्चा आपकी कविता की विषयवस्तु को लेकर चल रही है, अतः चर्चा को कविता पर ही केन्द्रित रखे |
इंसान की फितरत कहाँ बदलती है
यहाँ सिर्फ़ साल और युग बदलता है
सीता तो हर युग में जलती है
और मन्दिर राम का ही बनता है
संत शर्मा जी और आपकी तरह बात करने वाले सभी लोग अपने आप को दुरुस्त करें. वही आलोचना समकालीन होती है जो अपने समकालीन समय की कसौटिओं पर परखी जाती है.
और इस बात की भली भाँति समझ लिया जाना चाहिए कि अब हर वह विचार और रचना संदेह और सवालों के घेरे में होगी जिसमे कमज़ोर वर्गों के खिलाफ साज़िशें की गई है चाहे वह कितनी भी गौरव शाली या महान क्यों न रही हों. सवाल यह भी होगा कि किसने उन्हे महान बनाया और क्यों महान बनाया.
अविनाश गौतम जी,
समकालीन समय की कसौटिओं पर यदि परिस्थितयों को परखना हो तो उदहारण भी समकालीन होना चाहिए न की पौराणिक विषय को अपने अनुसार से तोड़ मरोड़ कर पेश करना चाहिए |
इंसान की सोच और संस्कार में चाहे जितनी भी गिरावट क्यों न आई हो वो राम को किसी भी हालत में "लोभी, कायर और रिश्तो के प्रति लापरबाह" नहीं ठहरा सकती है और आज के संदर्व में भी यदि राम के कार्यो का मूल्यांकन किया जाये तो भी वो उच्याकोटी का ही होगा |
रेणु जी, आपने कविता युगों युगों से नारी से साथ होते आ रहे असमान व्यवहार को केन्द्रित करके लिखी, समझ में आती है मुझको, अच्छी लिखी है लेकिन आपने उदहारण गलत ढंग से दिया |
राम ने युगों पहले पत्नी सीता के सामने 'राजधर्म' एवं प्रजा को महत्त्व दिया, मैं मानता हू, लेकिन जिन परिस्थितयों में दिया उन परिस्थितयों में उनका निर्णय निर्विरोध रूप से उचित था, ये आप स्वीकार करना नहीं चाहती |
अब आप अपने ही कथन में विरोधाभास देखिये, आपने लिखा "राम ने पहले सीता को छोड़ कर वन में जाने का निर्णय लिया पिता के वचन पालन के लिए... वहां भी वो सीता को अकेला छोड़ने को तैयार थे..(लक्ष्मण ने तो ऐसा ही किया)... सीता फिर भी उनके साथ वन में गयी उनके दुःख में साथ देने के लिए... " सीता राम के साथ बन में चली गयी रोकने के वावजूद भी, तो सीता ने राम के लिए त्याग किया, वही उर्मिला नहीं गयी तो लक्ष्मण ने उर्मिला के साथ उचित नहीं किया, साथ नहीं ले गए| In short पुरुष हर परिस्थितयों में गलत ही होता है आपकी नज़र में, क्यु ?
भारतीय समाज सदियों से पुरुष प्रधान रहा है, पहले पत्निया अपने पतियों पर आधारित रहती थी और पुरुष चुकी जीवन यापन की सामग्रियों को एकत्रित करने में अहम् भूमिका निभाता था, इसलिए उसके विचारो को प्रधानता दी जाती थी, अब समय धीरे धीरे बदल रहा है | नारी की पुरुषों पर dependibility समय के साथ कम हुई है और जब नारी उस स्टेज में खुद को ले आएगी जब पुरुष पर किसी भी issue के लिए dependent नहीं रह जायेगी, समानता का माहौल अपने आप बन जायेगा |
ज तक अपनी फरियाद
सुनाने को तड़पती हूँ,
और अपने पति से ही नहीं,
एक राजा
से भी,
न्याय पाने को तरसती हूँ।............bahut bahut bahut hi acche. I don't hav words to appreciate it especially the last 4 lines.............which can show the pain of sita's heart which is never understood and felt
I selute you man
big hand fm my side keep it up
awarharlal nehru said to pant ji "The poets can rule and save the nation,if needed"
I feel sorry for Renu ji the kind of understanding that she has for religion.
But I have logical explanations for your queries.
Do remember"With great power comes the great responsibility".
Lord Ram:Your question that for a king's relegion should he forget a
husband's religion?I will say 'Yes'\
Let me simplify religion:To fulfill/practice our duty with the utmost sincerity.
Actually religion had its subset,I am just breaking from bigger to smaller.
Universal religion—World piece. Then comes national
religion-Patriotism,then comes religion towards your society-What you
wanted to give your society then comes your family religion and then
yourself.
Anytime if there a clash between two subsets,go with bigger one.This
is how religion must be practiced.
Most of the times for an ordinary human being ,he just thinks about
himself and his family and he pretends to be religious .Exp-All the
Hindus worship Ganga ji,but they are polluting it(We never think the
aspect of our religiousness towards society)
I think now you got the point.Ram got a clash between his Rajdharma
and patidharma.He chose the bigger subset that every deeply religious
person will do.Thats y he is known as Maryada Purshottam,to tell us
the true meaning of religion by setting the example himself.
So Renu ji,if yoy say yourself logical,be a rational completely. Dont try
to use incomplete logic just to suite your conclusion. People might get
impressed with your thought and start thinking in the same line.
One suggestion "Read Hindi Literature"
Ajay Singh
Sab bakwaas ise pado sab samajh mein aa jayega.....http://boloji.com/hinduism/139.htm
राम ने न तो सीता जी को वनवास दिया और न शम्बूक का वध किया
चोरी से डाले गए उत्तर काण्ड में कुछ वर्णन ऐसे हैं जो मूल रामायण के उद्देश्यों से न केवल मेल नहीं खाते, वरन उनका विरोध करते हैं । उदाहरण के लिये उत्तर काण्ड में वर्णित है कि, 'श्री राम प्रतिदिन आधा दिन राज्य कार्य करने के बाद एक अत्यंत सुन्दर बाग में आते हैं, जहां गायिकाएं तथा नर्तकियां उनका तथा सीता जी का मनोरंजन करती हैं। वहां राम मदिरा पान करते हैं, और तो और वे अपने हाथों से सीता जी को भी मदिरा पान कराते हैं, और नर्तकियां आदि भी मदिरा पान कर मद से मस्त होती हैं। और मद से वे जितनी प्रभावित होती हैं, राम के वे उतने ही निकट नृत्य करती हैं !' रामायण के किसी भी समझदार पाठक के लिये इतना वर्णन ही इस उत्तर काण्ड को प्रक्षेप अर्थात 'चोरी' समझने के लिये पर्याप्त है।
यहां प्रमाण भी हैं.......
http://www.facebook.com/uttarkaand
||श्री राम और माता सीता ने अग्नि परीक्षा को अधर्म घोषित करा||
मेरे राम पाखंडी नहीं हैं कि सीता को अग्नि देव को सौंप कर सीता के अपहरण को स्वीकृति देंगे, और फिर पूरी सेना के सामने उनकी अग्नि परीक्षा लेंगे| सिर्फ इतना ही नहीं, फिर एक धोबी के कहने पर सीता को त्याग दंगे ! ऐसा कुछ नहीं हुआ;
श्री राम और माता सीता ने अग्नि परीक्षा को अधर्म घोषित करा |
रामायण इतिहास है, और इतिहास का पूरे विश्व मैं एक ही अर्थ है, धर्मगुरुजनों के निजी स्वार्थ के लिए अलग नहीं हो सकता | इतिहास की परिभाषा शुरू से यही रही है कि वर्तमान समाज के हित को ध्यान मैं रख कर तथ्यों की प्रस्तुति | इसका जीता जागता उद्धारण है कि एक ही इतिहास हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश का है, लकिन तथ्यों की प्रस्तुति ने तीनो देशों मैं इसका स्वरुप अलग कर दिया है |
अवतार के समय कोइ चमत्कार नहीं हुआ, क्यूँकी यदि अवतार चमत्कारिक शक्ति का प्रयोग करेंगे तो क्या धर्म स्थापित करेंगे, क्यूंकि मानव के पास तो कोइ चमत्कारिक शक्ति होती नहीं, तो वोह कैसे उस चमत्कारिक शक्ति से बताए हुए धर्म का प्रयोग करेगा?
विश्व के विज्ञानिक कह रहे हैं की शिव धनुष जो की प्रलय स्वरूप, विनाशकारी था(WEAPON OF MASS DESTRUCTION), और जिसको बनाने के लिये विकसित विज्ञान की आवश्यकता थी , वोह श्री राम से पूर्व त्रेता युग मैं था !
क्या है चमत्कार ? न समझ मैं आने वाला विज्ञान को ढकने का तरीका , जिसकी आज आवश्यकता नहीं है !
अब प्रश्न यह है कि किसकी बात माने, रामायण की या इस ब्लॉग की?
पहले तो यह समझ लें की रामायण के पूरे विश्व मैं १०० से अधिक संस्करण उपलब्ध हैं, और हर युग मैं श्री राम के अत्यंत लोकप्रिय होने के कारण ऐसा स्वाभाविक भी है; लोकप्रिय व्यक्ति के इतिहास की, बार बार, समाज हित को ध्यान मैं रख कर प्रस्तुति होगी ही होगी| वेदों के साथ तो ऐसा कभी नहीं हुआ, जबकी वेद अत्यंत पुराने हैं | स्वंम सिद्ध पुरुष और महान संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण से हट कर ‘मानस’ की रचना करी, उस समय की आवश्यकताओ को समझ कर|
तो फिर आप और मैं समाज का अहित क्यूँ कर रहे है ? क्षमा करें लकिन ऐसा करके मैं और आप अपनी कर्महीनता का परिचय दे रहे हैं | और फिर आपको सही को गलत प्रस्तुति करने को नहीं कहा जा रहा है, गलत को सही करने को कहा जा रहा है ; देख लीजिये :-
मेरे राम पाखंडी नहीं हैं कि अकेले में (ध्यान रहे, अकेले में, जब लक्ष्मण भी नहीं थे) सीता को अग्नि देव को सौंप कर सीता के अपहरण को स्वीकृति देंगे, और फिर पूरी सेना के सामने उनकी अग्नि परीक्षा लेंगे| सिर्फ इतना ही नहीं, फिर एक धोबी के कहने पर सीता को त्याग दंगे ! ऐसा कुछ नहीं हुआ; श्री राम और माता सीता ने अग्नि परीक्षा को अधर्म घोषित करा |
कैसे करा श्री राम ने अग्नि परीक्षा को अधर्म घोषित ?
कृप्या पूरी पोस्ट लिंक खोल कर पढ़ें:
सीता का त्याग राम ने क्यूँ करा... सही तथ्य
http://awara32.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
सीता कहती रही राम ही सत्य थे…
कब उन्होंने कह मैं चलूँ साथ में
पथ ये बनवास का मैंने ही था चुना,
वो गिनाते रहे राह की मुश्किलें
प्रेम थे वो मेरे, प्रेम मैंने चुना.
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
मैं तो कहती रही राम ही सत्य थे…
मैंने ही लांघी थी सीमा की देहरी
दोष किसका था मेरा या श्री राम का
राम न जाते लक्ष्मण को न भेजती
सब मेरे ही किये का ये परिणाम था.
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
मैं तो कहती रही राम ही सत्य थे…
जिसको पाने को दर दर भटकते रहे,
प्रेम के आगे सागर भी न टिक सका
वो भला ऐसे कैसे मुझे त्यागोगें,
एक क्षण भी मेरे बिन जो न रह सका.
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
मैं तो कहती रही राम ही सत्य थे…
प्रेम जो अपना वो अग्नि पर धर दिए,
उनका उपकार था वो मेरे लिए,
पीढ़ियाँ मुझको कुछ न कहे इसलिए
सारे अपयश उन्होंने स्वयं ले लिए.
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
मैं तो कहती रही राम ही सत्य थे…
तुमने देखि विवशता न श्री राम की,
एक तरफ थी प्रजा एक तरफ जानकी,
वो तड़पता हृदय भी न तुम पढ़ सके
गढ़ ली थी परत जिसमें पाषाण की.
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
मैं तो कहती रही राम ही सत्य थे…
कह लो कहना हो जो, जो कह सको राम को,
पर ज्ञात हो ऐसा राजा नही पाओगे,
धर्म को थामते लुट गया जो स्वयं,
ऐसे त्यागी. तपी को तरस जाओगे.
विश्व ने राम को जाने क्या क्या कहा,
सीता कहती रही राम ही सत्य थे…।।
।।साभार।।
Ram ne sita se agni pariksha nhi mangi thi ,sita ma ne jag ko satitv btane ke liye agni pariksha di thi. Kshma kare aap logo jitna gyan to nhi kintu me is bat se sahmat nhi hu ki ram ne sita ka parityag kiya. Sita ne jab agniparikha di to Valmiki Ramayan me spast likha hai ki agnidev ne kha ki he ram sita shuddh hai aap inhe svikar kijiye .tb ram ne kha ki me aapko vachan deta hu ki sita meri kirti hai aur me inka kabhi tyag nhi karunga. Are Jo Ram apne pita ke vachan ko pura karne ke liye Raj path chhodkar van van bhatke apni patni aur bhai ko lekar to kya bo apna hi diya gya vachan tod sakte the? kabhi nhi jab balmiki Ramayan me. Yuddhka d ke ant me hi likh diya ki is prakar ram aur sita ne hjaro varsho tk prasnnta purvak ayodhya me rajya kiya. To fir yah Uttar Ramayan ka kya tatparya isase to spsht hai ki yah ek chal hai hmare snatan dharm par prashn chinh lgane ki .yah sajish hai mryada purushottam ram ki mryada bhang karne ki.kintu ye ham logo ka kartavya hai ki ham apne snatan dharm apne ram par lage har prashnchinh ko krara jwaw de
Kyoki hmari sanskri ved ,upnishad ,gita hme sirf bhakti hi nhi tarjshakti bhi sikhati hai. 🙏🏻🙏🏻
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