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Monday, July 28, 2008

गद्दी की पसंद- कूल्हें नरम और जेब गर्म


सिरफिरे और सलीब

सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है,
किसी सिरफिरे ने हथिया ली गद्दी,
आपने सुना, गलत सुना है।

गद्दी की पहचान,
उसे कहाँ,
जिसका सिर फिरा हो,
गद्दी को वो क्या जाने,
जो रोटी-रोजी के मसले से जुड़ा हो।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।

यह आज की बात नहीं,
ये तो सदियों का सिलसिला है,
सोने की छड़ से क्या
गरीब का चूल्हा जला है।

ये सवाल सतही नहीं,
मेरे हुजूर दिल का है,
खनखनाते बलूरी ग्लासों का नहीं,
बनिए के बेहिसाब बढ़ते बिल का है।

हमेशा घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है।

--यूनिकवि डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

RAVI KANT का कहना है कि -

आपकी रचना ने एक कटु सत्य को स्वर दिया है। एक साँस में पढ़ने योग्य कविता।

Harihar का कहना है कि -

गद्दी को वो क्या जाने,
जो रोटी-रोजी के मसले से जुड़ा हो।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।

कटु सच्चाई है आपकी कविता में

BRAHMA NATH TRIPATHI का कहना है कि -

गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।

श्याम जी आपकी कविता एक कटु सत्य है पर मई आपकी इन लाइनों से सहमत नही हूँ माना की आज गद्दी पर बैठने वाले ऐसे ही है पर हमेशा ऐसा नही था
कई महान नेता हुए है जिन्होंने गद्दी पर बैठने के बावजूद जनता की सेवा की है

Anonymous का कहना है कि -

पढ़कर अच्छा महसूस हुआ.
आलोक सिंह "साहिल"

pallavi trivedi का कहना है कि -

गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।

jawaab nahi aapki soch ka...bahut hi adbhut aur sachchai ko bayaan karti kavita!

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

यह आज की बात नहीं,
ये तो सदियों का सिलसिला है,
सोने की छड़ से क्या
गरीब का चूल्हा जला है।

ये सवाल सतही नहीं,
मेरे हुजूर दिल का है,
खनखनाते बलूरी ग्लासों का नहीं,
बनिए के बेहिसाब बढ़ते बिल का है।

हमेशा घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है।
आप अनमोल धरोहर दे रहे हो.

Smart Indian का कहना है कि -

अच्छा प्रयास!

शोभा का कहना है कि -

हमेशा घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है।
बहुत सुन्दर।

Anonymous का कहना है कि -

vah kya khoob rachna hai mujhe bahut achchhi lagi
saader
rachana

Anonymous का कहना है कि -

मित्रो!

य्ह आप सरीखे अनेक पाठकों का स्नेह ही जो किसी भी रचनाकार को बेहतर और बेहतर करने को प्रेरित करता है ।आप सभी का आभार
ब्रह्मनाथ त्रिपाठी जी- हां एक बात कहना चाहूंगा कि सच केवल सच होता है वह मधुर या कटु नहीं
सच घटे या बढे सच न रहे
याने सच में कुछ मिलादें या निकाल लें तो वह सअच दिखे भले सच नहीं रहता।जैसे आप दूध में थोड़ा पानी मिला दें तो पता नहीं लग्ता,मगर पानी में थोड़ा दूध डाल कर देखें वह पानी न दिखेगा ।बस सच तो पानी सरीखा पारदर्शी होता है। और रचना क्योंकि अपूर्ण मनुष्य द्वारा रचित होती है ,वह पूर्ण कैसे हो सकती हैं,हां वह majority kee बात कहती है चाहे नेता हों या संत।सस्नेह-श्याम

विश्व दीपक का कहना है कि -

बिल्कुल सत्य............!!!!

सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।

वाह!!!

बधाई स्वीकारें।

विश्व दीपक ’तन्हा’

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

बहुत ही बढ़िया व्यंग्य। कविताएँ सच दिखाती हैं। आपकी कविता सफल है।

raybanoutlet001 का कहना है कि -

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