रस्सी पर चलने वाले
नट के हाथों का बांस...
किसी आम आदमी की
असामान्यता
और सामान्यता के बीच
संतुलन साधने की बड़ी कोशिश....
किसी फैक्ट्री से निकले
स्लैग की तरह
मशीनीकृत मानव के
दिमाग की उपज....
कोई एकालाप नहीं
वरन् व्यक्ति विशेष के
विखण्डित व्यक्तित्त्व का
समूह गान.....
सामूहिक क्रंदन.....
सामूहिक वार्त्तालाप.....
हरक्षण के इतिहास को
सहेजने की अनूठी परम्परा...
किसी बेसुरे साज संग
सुर साधने की सफल कोशिश...
राजहंसों के मानिन्द
असहजता से सहजता
चुग लेने की कला....
और भी बहुत कुछ....
जो अकथनीय है....पर
जिनसे हर किसी का
सरोकार है....
..क्योंकि हर कोई
मानसिक रुप से बीमार है...
परेशान है....
..जो थोड़ा-सा खुद के लिए
इंसान है.....
ईमानदार है.....
समझदार है....
कविता किसी एक
स्वनामधन्य की बपौती नहीं
कविता....
आम से आम व्यक्ति के
सरोकार की दुनिया है
एक ऐसी दुनिया....
जिसमें दुनिया बसती है....
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
"कविता....
आम से आम व्यक्ति के
सरोकार की दुनिया है
एक ऐसी दुनिया....
जिसमें दुनिया बसती है...."
अच्छी लगी कविता की आपकी परिभाषा. उत्तम!
बहुत अच्छी लगी कविता
बहुत अच्छा आपकी सोच और आपकी अभिव्यक्ति की दाद देता हूँ
बेहतरीन परिभाषा.
आलोक सिंह "साहिल"
और भी बहुत कुछ....
जो अकथनीय है....पर
जिनसे हर किसी का
सरोकार है....
..क्योंकि हर कोई
मानसिक रुप से बीमार है...
परेशान है....
..जो थोड़ा-सा खुद के लिए
इंसान है.....
ईमानदार है.....
समझदार है....
कविता किसी एक
स्वनामधन्य की बपौती नहीं
उत्तम.
कोई एकालाप नहीं
वरन् व्यक्ति विशेष के
विखण्डित व्यक्तित्त्व का
समूह गान.....
सामूहिक क्रंदन.....
सामूहिक वार्त्तालाप.....
अच्छा लिखा है।
sunder soch achchhi kavita
badhi
saader
rachana
अभिषेक जी वैसे तो कविता को किसी परिभाषा में बांधा ही नही जा सकता ,फ़िर भी कविता को समझाने का प्रयास ....अच्छा लगा |यही समझाने का प्रयास करते-करते हमने भी एक कविता लिखी थी
.....
हे कविते
हे कविते
क्या पावन
रूप है तुम्हारा
भवुक हृदय का
तुम्ही तो हो सहारा
स्वच्छन्द प्रवाहित निश्चल
ज्यो
सूर्य की पहली किरण से
खिलता हुआ कमल
साहित्याकाश पर
सूर्य की भान्ति देदिप्यमान
कोमल सुन्दर
निष्कपट , बन्धन रहित
भावो का अरमान
हुआ
क्रोञ्च पक्षी का वध
निकले मुँह से ऐसे शब्द
बहने लगी
भावो की ऐसी सरिता
हो गई अमर कविता
बदले
युगो-युगान्त्रो मे
न जाने तुमने कितने रूप
फिर भी
हे कविते
नही बदला तेरा सुरूप
वही
बनी रही
नाजुकता , कोमलता , भावुकता
रहा
हर युग मे
कवि इसमे बहता
हे कविते
नही बन्ध सकती
तुम किसी बन्धन मे
तुम तो
बसती हो
हर भावुक मन मे
हाँ-शायद यही है कविता।
संग्रहणीय चिंतन-देवेन्द्र पाण्डेय।
कविता की क्या खूब परिभाषा दी है आपने!!! ऎसा लगा मानो आज जान पाया हूँ कि कविता क्या होती है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
बहुत सुंदर अभिषेक भाई
क्या भैया? कविता पर खूब कविता लिखते हैं। एक बार 'कवि की बेटी' लिखा था अब परिभाषा ही लिख डाली। वैसे बढ़िया है।
Aapki Kavitaoon ke liye kaha ja sakta hai :
किसी आम आदमी की
असामान्यता
और सामान्यता के बीच
संतुलन साधने की बड़ी कोशिश....
किसी बेसुरे साज संग
सुर साधने की सफल कोशिश...
और भी बहुत कुछ....
जो अकथनीय है....पर
जिनसे हर किसी का
सरोकार है....
..क्योंकि हर कोई
मानसिक रुप से बीमार है...
परेशान है....
kar koi mujhse sehmat hoga ki sahi mane mein aap ki har kavita mein mera upar quote kiya hua sach hai.
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