जून माह की यूनिकवि प्रतियोगिता के छठवें स्थान की कवयित्री ने अपना परिचय देर से भेजा लेकिन कवितामयी भेजा है। पढ़िए क्या लिखती हैं।
जब देखा, लहरों का साथ है,
अपनी कश्ती उतार दी
तब पाया, इतनी कश्तियों के बीच
लहरें कहीं खो गई हैं
काश! एक सैलाब कहीं मुझे मिले
जो संग अपने मेरी कश्ती बहते चले
इस डोलती जलधि से दूर कहीं
मुझे भी मेरी ज़मीन मिले ......
नाम- अर्पिता नायक
जन्म- २१ मार्च, १९८८
शिक्षा- संत पाल अकादमी, पटना से दसवीं
डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल, पटना से बारहवीं
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी, नई दिल्ली से एपेरल प्रोडक्शन में बी.ऍफ़.टेक. कर रही हैं(तृतीय वर्ष)
हिन्दी साहित्य जगत में इससे अधिक कोई परिचय नहीं है इनका। पढ़ने का शौक तो बचपन से रहा है किंतु, लेखन में रूचि ही है। बचपन से अंतर्मुखी रही हैं इसीलिए अपने विचारों को लेखन के रूप में ज़ाहिर करती हैं।
ये साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में देखती हैं। अतः वर्त्तमान परिस्थितियों पर लिखना पसंद करती हैं। यदि इनकी कवितायें किसी एक व्यक्ति में भी चेतना जगाय देती हैं तो इन्हें प्रसन्नता होगी। इन्हें साहित्य का अधिक ज्ञान तो नहीं किंतु, प्रयत्न करेंगी कि अधिकाधिक पढ़ सकें और लिख भी सकें।
पुरस्कृत कविता- मेरा आरक्षण
समग्र देश जल रहा है
आरक्षण की आग में
जल रहे गाँव, जल रहे शहर
चीख रहे हैं समाचार पत्र
चीख रही है जनता
औरतें रसोई से बाहर हैं
बच्चे सड़क पर नाराज़ खड़े है
" आन्दोलन की गंगा बही है
क्यों न अपने हाथ धोये जाएँ ",
सोच नेता जी हाथ जोड़
बाहर आए
हाथ हिलाए, हाथ मिलाये
मुस्कुराए, सबसे बतियाए
देकर आरक्षण का आश्वासन
मन ही मन हर्शाए
बिना मेहनत के लड्डू खाए.
नारों को भी हिम्मत आई
उन्होंने भी ज़ोर लगाई
दुकानों, घरों पर भी
हाथ आजमाई
कहीं फसल जलाई
कहीं रेल पटरी हटाई।
लोगों का रेला उठ आया
आक्रोश का मेला सा छाया
उन सब के बीच
या उन सब के पीछे से
उन के कन्धों पर रख बंदूक चला
कहीं ऊपर से, घर की छत पर
खड़े नेता जी गुनगुनाये
"इंकलाब जिन्दाबाद"।
दुनिया पर फतह कर
सिपाही घर आया
विजय का परचम लहराने
मर्दानगी पर गुरूर करता
बहू को बलात् अस्पताल
ले जाने....
उसके घर में, उसके दिल में
बहुत जगह है जनता के लिए
दया, दान, सहानुभूति...
नहीं है तो बस
वात्सल्य पोती के लिए।
हवा की तरह, पानी की तरह
भीड़ को चीरती गाड़ी निकली
अन्दर गर्मी, बाहर हठधर्मी
दम घुट रहा था उसका
नारे, चीखें, और चीखें
" दादाजी, मुझे भी आरक्षण दो
इस दुनिया में आने का।
इश्वर ने मेरे लिए भी
दुनिया बनाई है
मैं भी इंसान बन सकती हूँ
आपके संसद की आरक्षित सीटों
पर आ सकती हूँ या फिर,
मम्मी की ही तरह
घर संवार सकती हूँ
मुझे एक मौका दो
मुझे आरक्षण दो... "
घुटी हुई आवाज़ चिल्लाई
पर कानों तक पहुँच न पायी
समाज के शोर में
खो गई बिटिया की आवाज़
माँ के शरीर में घुट कर
रह गया एक ऐतराज़।
इस तरह एक आन्दोलन
आरक्षण का शांत हो गया
जब माँ के शरीर से
एक स्त्री का अस्तित्व खो गया।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰९५, ५
औसत अंक- ५॰९८
स्थान- पाँचवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ८॰५, ५॰५, ४, ५, ५॰९८(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰७९५
स्थान- छठवाँ
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'मौत से जिजीविषा तक' भेंट करेंगे।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
एक ही कविता में देश की दो दुखद सच्चाईयों का इतना सटीक वर्णन!
बहुत अच्छी कविता है. सचमुच पुरस्कार व बधाई की पात्र है. आपकी कविता और काव्यमय परिचय पढ़कर हिन्दी की कहावत याद आ गयी - होनहार बिरवान के होत चीकने पात - लिखती रहिये - आपको साहित्याकाश पर बहुत चमकना है - बहुत आगे जाना है.
अच्छा प्रयास है....बिल्कुल सही दिशा में हैं.....बधाई...उम्मीद है कि बहुत जल्द आप स्थाई सदस्या होंगी हिन्द-युग्म की....खुशामदीद
काश! एक सैलाब कहीं मुझे मिले
जो संग अपने मेरी कश्ती बहते चले
इस डोलती जलधि से दूर कहीं
मुझे भी मेरी ज़मीन मिले ......
अर्पिताजी,
जमीन भी आपकी है, आसमां भी आपका है,
आप बढती रहैं, आगे ये जमाना भी आपका है, रचना आपकी हमारे मन को भाई, अर्पिता जी आपको बधाई हो बधाई!
दुनिया पर फतह कर
सिपाही घर आया
विजय का परचम लहराने
मर्दानगी पर गुरूर करता
बहू को बलात् अस्पताल
ले जाने....
उसके घर में, उसके दिल में
बहुत जगह है जनता के लिए
दया, दान, सहानुभूति...
नहीं है तो बस
वात्सल्य पोती के लिए।
क्या कमाल किया है आपने अपनी रचना में प्रमुख व ज्वलन्त समयिक दोनों मुद्दों को समाहित कर लिया है. आप चाहें तो अपनी रचनायें http://rashtrapremi.com पर प्रकाशनार्थ भेज सकती हैं. santoshgaurrashtrapremi@gmail.com
बधाई हो जी,दम है आपकी कलम में, लगे रहिये.शुभकामनाएं.
आलोक सिंह "साहिल"
Bahut sadhe hue sabdo me aaj ki do jatil samashyo per dhyan kendrit kiya, Bahut behtar.
अच्छा है....बधाई...
बहुत अच्छा अर्पिता जी आपका परिचय देने का अंदाज़ बहुत पसंद आया
कविता भी बहुत अच्छी है
दो अलग अलग समस्याओं को आपने बड़ी ही खूबसूरती से एक कविता में जोड़कर कह दिया बहुत अच्छा
शब्दों का उम्दा चुनाव , और चेतना तक उतरता नायाब लहजा . अर्पिता, लिखती रहो.
अर्पिता जी, एक कविता दो निशाने...
बहुत अच्छे.. ६वें स्थान के लिये बधाई.. आगे भी लिखती रहें यही आशा है..
--तपन शर्मा
चेतना तक उतरता नायाब लहजा . अर्पिता, लिखती रहो.
अर्पिता जी!
आपकी काव्य-क्षमता काबिले-तारीफ है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
मैं भी इंसान बन सकती हूँ
आपके संसद की आरक्षित सीटों
पर आ सकती हूँ या फिर,
मम्मी की ही तरह
घर संवार सकती हूँ
मुझे एक मौका दो
मुझे आरक्षण दो... "
घुटी हुई आवाज़ चिल्लाई
पर कानों तक पहुँच न पायी
समाज के शोर में
खो गई बिटिया की आवाज़
माँ के शरीर में घुट कर
रह गया एक ऐतराज़।
बहुत अच्छे अर्पिता !! हक-ओ-हुकूक की वाजिब मांग की है तुमने ! इसी तरह अपनी आवाज़ बुलंद करती रहो ! कभी तो इसे मंजिल मिलेगी ही !! As a Bihaaree, I proud of you !!
अर्पिता जी,
१)आपका विषय थोडा अलग सा था.. तो शीर्षक कुछ कविता पढने की चाह पैदा करता है..
२)आप अपने कथ्य को पाठको तक पहुचने मै भी कामयाब रही है..
३)कविता मै रवानगी लगी..
सुन्दर रचना के लिए बधाई
सादर
शैलेश
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