सुनो… सुनो…
जरा ध्यान से सुनो !
ओ बारूद के ढेर पर बैठने वालो
काल के क्रूर हाथों को झुका नहीं सकोगे
अपनी गरजती हुयी बन्दूकों से
ये जो धुँआ फैलाया है तुमने आतंक से
नियति की द्रष्टि से छिप नहीं पाओगे एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन…
सुनो… सुनो
जरा ध्यान से
ओ सपोले पालने वालो
पिलाते हुये दूध डसे जायेंगें तुम्हारे हाथ
काल के यम पाश में कोई स्वार्थ होता
पीड़ा की कोई जाति नहीं होती
हिंसा के बीज का कोई धर्म नहीं होता
उसी पीड़ा से छटपटाओगे एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन
सुनो… सुनो
जरा कान खोलकर सुनो
ओ निर्दोषों को चिता पर चढ़ाने वालो
अंगारे होंगे तुम्हारी चिता में भी
और ऑंसू भी नहीं मिल सकेगा एक
ठण्डा करने तुम्हें …
नश्वर शरीर के सुख की चाह में
शरीरो को नश्वर करने का खिलवाड़
करते रहोगे कब तक
हो चुका है बहुत बन्द भी करो अब
अन्यथा …..
हिंसा की लहरों पर ये मदान्ध नृत्य
लेगा निगल तुम्हें भी एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन.
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahut khoob sach kaha aap ne me bhi asa hi sochti hoon atah kuchh mene bhi likha tha .aaj aap ki kavita padhi to bahut achchha laga
saader
rachana
हो चुका है बहुत बन्द भी करो अब
अन्यथा …..
हिंसा की लहरों पर ये मदान्ध नृत्य
लेगा निगल तुम्हें भी एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन.
bahut sundar kavita . ese logo ka ant yahi hota hai.
श्रीकान्त जी,
"काल के यम पाश में कोई स्वार्थ होता" का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।
पीड़ा की कोई जाति नहीं होती
हिंसा के बीज का कोई धर्म नहीं होता
इन पंक्तियों में गंभीर चिंतन झलकता है। सुन्दर रचना।
श्रीकान्त जी
आफकी एक और प्रासंगिक रचना। युगबोध को स्पष्ट कर रही है-
जरा ध्यान से
ओ सपोले पालने वालो
पिलाते हुये दूध डसे जायेंगें तुम्हारे हाथ
काल के यम पाश में कोई स्वार्थ होता
पीड़ा की कोई जाति नहीं होती
हिंसा के बीज का कोई धर्म नहीं होता
उसी पीड़ा से छटपटाओगे एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन
एक कवि की यह भूमिका प्रशंसनीय है। बधाई स्वीकारें।
श्रीकांत जी
निसंदेह बहुत अच्छी कविता लगी.. क्यों की
१) समसामयिक है.. अतः..पाठक जुडा हुआ पता है अपने आप को कविता से..
२) सरल भाषा, शब्द और लहजा.. कविता को और भी सुन्दर बनाते है
३) कथ्य.. बिलकुल साफ़ है.. अतः.. आप पूरी तरह से सफल रहे है..
बधाई
सादर
शैलेश
सुनो… सुनो
जरा कान खोलकर सुनो
ओ निर्दोषों को चिता पर चढ़ाने वालो
अंगारे होंगे तुम्हारी चिता में भी
और ऑंसू भी नहीं मिल सकेगा एक
ठण्डा करने तुम्हें …
नश्वर शरीर के सुख की चाह में
शरीरो को नश्वर करने का खिलवाड़
करते रहोगे कब तक
हो चुका है बहुत बन्द भी करो अब
अन्यथा …..
हिंसा की लहरों पर ये मदान्ध नृत्य
लेगा निगल तुम्हें भी एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन.
बहुत सुंदर श्रीकांत जी पढ़कर बहुत अच्छा लगा
काश ये बात उन आतंकियों की समझ में आ जाती
बहुत अच्छा
पिलाते हुये दूध डसे जायेंगें तुम्हारे हाथ
काल के यम पाश में कोई स्वार्थ होता
पीड़ा की कोई जाति नहीं होती
हिंसा के बीज का कोई धर्म नहीं होता
उसी पीड़ा से छटपटाओगे एक दिन
बचोगे नहीं तुम भी एक दिन
बिल्कुल सच है !
प्रासंगिक प्रयास!
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