केशव बन कलियुग का
क्यों कोई
इतिहास दोहराता नहीं
फिर तर्क को अस्त्र बना
क्यों कोई
गीता यहाँ रच पाता नहीं
विजेताओं की साख पर
लिखी जाती पांडूलिपियाँ यहाँ
क्यों कोई
सत्य पर मर मिटने वालों को
सर काँधों पर बिठलाता नहीं
राजनेता भोज और महफ़िलों में
दल डूबे हुए हैं दलदलों में
बोली बोलो कि बिक रही कुर्सियां
क्यों हर कोई
बंधित हो इस कोप को है ढो रहा
क्यों कोई
अर्जुन बन इस लक्ष्य को नहीं भेदता
और इस शाप से मुक्ति दिलाता नहीं
रोज सजते धर्म गुरुओं के सिंहासन
भीड़ जुटती है श्रद्धालुओं की अपार
इक तरफ़ धर्म से, इक तरफ़ राज से
दोहरा हो रहा मुनाफ़े का व्यापार
क्या नया है जो एक बुद्धिजीवी जानता नहीं
भीड़ का हिस्सा बना, आत्मा की मानता नहीं
क्यों हर कोई
बस देखा देखी है भेड़ चाल चल रहा
अधिकारों की है बात करता
कर्तव्यों से है कर छल रहा
क्यों कोई हो
क्यों न हम सब हों
और लक्ष्य जनहित का भला हो
धर्म को रखें घरों तक और
सबके लिये दिल प्यार से भरा हो
तेरे मेरे सब के दर्द की सांझी दवा हो
बेखौफ़ जिसमे साँस ले सब, ऐसी हवा हो
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
धर्म को रखें घरों तक और
सबके लिये दिल प्यार से भरा हो
तेरे मेरे सब के दर्द की सांझी दवा हो
waah
विजेताओं की साख पर
लिखी जाती पांडूलिपियाँ यहाँ
क्यों कोई
सत्य पर मर मिटने वालों को
सर काँधों पर बिठलाता नहीं
bahut uttam! sadhuvad!
Achchi koshish. Vahi purana vishay hai magar achchi tarah se sambhala hai.
"क्यों कोई
इतिहास दोहराता नहीं"
बहुत अच्छे!
बात से मुकरने वाले,
मौत से डरने वाले
और
पैसे पे मरने वाले
क्या इतिहास लिखेंगे और
क्या इतिहास दोहराएँगे?
बच्चन जी के शब्दों में आपके सवाल का जवाब दें तो कहना होगा:
"लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।"
बंधुवर मोहिंदर जी !
यही तो बिडम्बना है ..सबको इंतजार ही है बस पर क्यों स्वयम आगे कोई आता नहीं
रचना के माध्यम से ध्यानाकर्षण के लिए साधुवाद
क्या नया है जो एक बुद्धिजीवी जानता नहीं
भीड़ का हिस्सा बना, आत्मा की मानता नहीं
क्यों हर कोई
बस देखा देखी है भेड़ चाल चल रहा
अधिकारों की है बात करता
कर्तव्यों से है कर छल रहा
बहुत अच्छा मोहिंदर जी इन लाइनों में बहुत बड़ी बात कही आपने
सच में यहाँ सब भेडचाल ही चल रहे है आगे आकर कोई नही चल रहा
क्यों कोई हो
क्यों न हम सब हों
और लक्ष्य जनहित का भला हो
धर्म को रखें घरों तक और
सबके लिये दिल प्यार से भरा हो
तेरे मेरे सब के दर्द की सांझी दवा हो
बेखौफ़ जिसमे साँस ले सब, ऐसी हवा हो
उत्तम विचार, अनुकरण करें हम सबके आचार
भारत से मिटे भ्रष्टाचार, कदाचार, फ़ैले सदाचार!
क्यों कोई हो
क्यों न हम सब हों
और लक्ष्य जनहित का भला हो
धर्म को रखें घरों तक और
सबके लिये दिल प्यार से भरा हो
बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।
बहुत ही अच्छा लिखा सर जी,दिल को भा गया
आलोक सिंह "साहिल"
अच्छा है ! किंतु कुछ चमत्कारिक या नया नही !
मोहिंदर जी,
आपकी रचना बहुत सुन्दर लगी.. और पढ़ कर अच्छा लगा
आपकी कविता की प्रस्तुति थोडी अच्छी होती तो.. शायद पाठक का ध्यान जरूर आकर्षित कर सकती थी..
PS:- ये मेरी व्यक्तिगत राय है
सादर
शैलेश
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