लगते थे ....
बहुत अच्छे तुम
बातें तुम्हारी .....
सीधे दिल के अंदर
नसों में खून .....
उबलने लगता था
कुछ भी करने को आतुर
चिलचिलाती धूप में
पसीने से लथपथ ..
आते थे जब भी ..
भटकते हुए मांग कर
किसी से 'लिफ्ट'
अथवा पैदल ...
तुम्हारा भूखा प्यासा
पदयात्रा से थका चेहरा
कर देता था व्याकुल
हर गावं में मां को ..
दौड़ पड़ती थी बहना
ले पानी का गिलास
भाभी टांक देती थी बहुधा
तुम्हारे ‘फटे हुए कुरते’ के बटन
बाबा सोचते थे हरबार
देने को एक नया कुरता
मुझसे पहले ….. तुम्हें
सीखा मैंने जिज्ञासु
तुम्हारे थैले में भरी किताबों से
नैतिकता, राष्ट्रप्रेम, त्याग, समाजसेवा
इतिहास और आदर्श का हर पाठ
उत्प्रेरित हो तुमसे ही ....
……………..
किंतु ......
जबसे देखता हूँ तुम्हें…
पहने हुए तरह तरह के मुखौटे
बदलते हुए टोपियाँ …. हरपल
निकलते हुए कार से
गावं के उस मिटटी के चबूतरे का
उडाते हुए उपहास .....
धूलधूसरित मां .....
घंटों देखती रहती है
नीले, पीले, लाल, हरे,
केसरिया झण्डों को..
विस्फारित नेत्रों से ....
आज सुनती है जब
'घोड़ामण्डी' के भाव
थूक देती है पिच्च से ..
और उसके चेहरे पर
पढ़ते हुए भाव …..
मुझे घिन आने लगी है
तुम्हारी नौटंकी से…
तुम्हारे चेहरे से ....
तुमसे ....
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब! भारतीय राजनीति के पतन और परिवर्तन की सीधी-सच्ची दास्ताँ को किसी तस्वीर की तरह बयां करने के लिए बधाई. सच है - मोल-तोल से भरी इस 'घोड़ामण्डी' में अधिकाँश घोडे बिकाऊ ही हैं.
मिश्र जी आपके विचार न केवल राजनीति की दयनीय होती हालत को बयाँ करते है बल्कि आम आदमी के जीवन और आपके अन्दर की भडास को भी बखूबी बयां करते है |अच्छा लगा पह कर |
सीखा मैंने जिज्ञासु
तुम्हारे थैले में भरी किताबों से
नैतिकता, राष्ट्रप्रेम, त्याग, समाजसेवा
इतिहास और आदर्श का हर पाठ
उत्प्रेरित हो तुमसे ही ....
……………..
किंतु ......
जबसे देखता हूँ तुम्हें…
पहने हुए तरह तरह के मुखौटे
बदलते हुए टोपियाँ …. हरपल
निकलते हुए कार से
गावं के उस मिटटी के चबूतरे का
उडाते हुए उपहास .....
उत्तम वर्तमान राजनीति का यथार्थ चित्रण किन्तु घिन आने से काम नही चलेगा भाई, करनी होगी मिलकर सफ़ाई.
पढ़ते हुए भाव …..
मुझे घिन आने लगी है
तुम्हारी नौटंकी से…
तुम्हारे चेहरे से ....
वाह! बहुत सुंदर लिखा है. आज के परिवेश मैं कविता बहुत ही सही और सटीक लग रही है. एक सशक्त रचना के लिए बधाई
श्रीकांतजी-
आपकी कविता और संसद की आज की कार्यवाही दोनो एकसाथ देखने का अवसर मिला। टाइमिंग इतनी सही थी की क्या कहा जाय। यूँ तो वर्तमान राजनितक हालात को देखते हुए यह चिरस्थायी रहने वाला व्यंग प्रतीत होता है किंतु अभी इसे समसामयिक ही कहना उचित होगा। मैने कविता पहले पढ़ी -टी०वी० बाद में खोली। कविता पढ़ते वक्त कविता के ऊपर संसद भवन का चित्र देख खुद को भी इस अर्थ में अपमानित महसूस किया कि यह वही संसद है जहां हमारे द्वारा चुने प्रतिनिधि जाते हैं।---ऐसा लगा कि काश यह चित्र यहां न होता-नियंत्रक को क्या आवश्यकता थी यह चित्र यहां प्रकाशित करने की ? मगर जब टी०वी० में वास्तविक घोड़ामंडी का दृश्य देखा तो स्तब्ध रह गया। लगा कि मैं गलत था ।
श्रीकांतजी- इसअद्भुत समसामयिकता के लिए तथा कठोर व्यंग के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकारें।
-----देवेन्द्र पाण्डेय।
आपने हजारों भारतवासियों की भावनाओं को
कविता में अभिव्यक्ति दी है
बहुत अच्छा श्रीकांत जी
बहुत अच्छी कविता आज के हालात पर
कल हमारे संसद भवन में जो हुआ उसे जितना शर्मनाक कहा जाए उतना कम है अब तो हमें किसी पर भरोसा नही है जिन्होंने अपनी गरिमा अपनी गैरत बेच दी हो उनसे क्या उम्मीद अफ़सोस की आज इन्ही के हाथो में हमारे देश की बागडोर है
बहुत हीं करारा व्यंग्य एवं दर्द छिपा है आपकी कविता में। सच में कल लोकसभा की हालत देखकर हर-एक भारतीय का सर शर्म में झुक गया होगा।
क्या यही ’घोड़ामंडी’ हमारा वर्त्तमान एवं भविष्य है?
-विश्व दीपक ’तन्हा’
अद्भुत !!!
गजब की समसामयिक प्रस्तुति,कविता के अंदर की वेदना सराहनीय है,बधाई जी
आलोक सिंह "साहिल"
समर्थन है आप के बातों का |
चित्र आपके कथन में मजबूती लाता है |
बधाई
अवनीश तिवारी
श्रीकान्त जी,
मुझे आपकी कविता बहुत पसंद आई क्यों की
१) मैं खुद कविता से जोड़ पाया..
२) कविता बहुत सुन्दर तरह से चित्रित की हुई है
३) विषय बहुत सुन्दर चुना हुआ और प्रस्तुत किया हुआ है.. अतः.. पाठक मै आगे पढने की जिज्ञासा बनी रहती है
४) सरल शब्दों का चयन कविता को प्रभावशाली बनता है..
सुन्दर कविता के लिए बधाई
सादर
शैलेश
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