यूं तो
अधिकार तनिक नहीं
फ़िर भी
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
किस संकल्प हेतू
ढोया तुमने
यह एकेलापन
स्वपनों का होम कर
प्रतिकार में हाथ जलाये
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
क्या है जिसे
उर उमंग बना
हंस लेती हो
किस तरह
रेत के सपाट तल पर
भावनाओं की
नाव खेती हो
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
क्यों नैनों के द्वार पर
लगा पलकों का पहरा है
कौन राज
ह्र्दय में
पैठ मारे गहरा है
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
किंचित फ़ूलों का मौसम
अभी नहीं बीता है
अंकुर बिम्बों का
आज भी जीता है
हरित है
चाहे पलाश नहीं
जीवन्त राहे हैं
भविष्य की सोच कर
वर्तमान हताश नहीं
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
किंचित फ़ूलों का मौसम
अभी नहीं बीता है
अंकुर बिम्बों का
आज भी जीता है
हरित है
चाहे पलाश नहीं
जीवन्त राहे हैं
भविष्य की सोच कर
वर्तमान हताश नहीं
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
बहुत बहुत खुबसूरत लगी आपकी यह रचना .
sahilबहुत ही sunder कविता
आलोक सिंह "साहिल"
क्यों नैनों के द्वार पर
लगा पलकों का पहरा है
कौन राज
ह्र्दय में
पैठ मारे गहरा है
कविता बहुत खुबसूरत लगी
मोहिन्दर जी
बहुत सुन्दर लिखा है-
किंचित फ़ूलों का मौसम
अभी नहीं बीता है
अंकुर बिम्बों का
आज भी जीता है
हरित है
चाहे पलाश नहीं
जीवन्त राहे हैं
भविष्य की सोच कर
वर्तमान हताश नहीं
अब आप पूछ ही लीजिए।
"किस तरह
रेत के सपाट तल पर
भावनाओं की
नाव खेती हो"
बहुत सुंदर.
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति मोहिंदर जी
क्यों नैनों के द्वार पर
लगा पलकों का पहरा है
कौन राज
ह्र्दय में
पैठ मारे गहरा है
बहुत ही सुंदर
किंचित फ़ूलों का मौसम
अभी नहीं बीता है
अंकुर बिम्बों का
आज भी जीता है
हरित है
चाहे पलाश नहीं
जीवन्त राहे हैं
भविष्य की सोच कर
वर्तमान हताश नहीं
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से
मोहिन्द्रजी बहुत अच्छा किन्तु हम सोचते ही रह जाते हैं और जीवन्त राहों पर आगे नहीं बढ पाते.
दूसरों के दर्द को महसूस करते हुए भी कुछ न कह पाने की विवशता----और अंतिम पंक्तियों में -----किंचित फूलों का मौसम अभी नहीं बीता है ---लिखकर आशा का संचार ----वाह ! क्या बात है। --अच्छी लगी कविता।--देवेन्द्र पाण्डेय।
क्या है जिसे
उर उमंग बना
हंस लेती हो
किस तरह
रेत के सपाट तल पर
भावनाओं की
नाव खेती हो
बहुत सुंदर...क्या बात है..
मोहिंदर जी,
मुझे आपकी कविता समझने मै यहाँ कुछ परेशानी हुई
१) "स्वपनों का होम कर" का अर्थ समझ नहीं आया
२) "प्रतिकार मै हाथ जलाये " क्या होता है?
मुझे आपकी कविता के भाव तीन चार बार पढ़ कर समझ आये
मैंने ये समझा है की कवी किसी पूछ रहा है
की कैसे वो इतना बड़ा त्याग कर के हंस के, सुखी से रह रही है, किस प्राण की वजह से उसने ये त्याग किया? क्या है उसके दिल मै जो वो छुपा रही है,,,, और चेहरे पर वो भावः भी नहीं आने दे रही है..फिर कुछ अंत मै अपने आप ही उत्तर ढूंढ लेता है की "वो किसी उम्मीद के सहारे अछे होने के कामना से ये सब कुछ हंसी से जी रही है "
मोहिंदर जी मुझे सही करे अगर मै गलत समझा हूँ तो..
आप की कविता बस पाठको तक उसी तरह नहीं पहुच पति जिस तरह पहुचना चाहता है..
बाकी मैंने तो तीन बार पढ़ कर जो समझा उसका बहुत आनंद लिया
सादर
शैलेश
शैलेश जी,
लगता है आपने मन से कविता को पढा.
मैंने यह रचना एक ऐसी लडकी को ध्यान में रख कर लिखी है जो अपने जीवन के चार दशक पार कर चुकी है, अभी अविवाहित है.. कारण मालूम नहीं .. और हमेशा हंसती रहती है.
आपने इन पंक्तियों का अर्थ जानना चाहा है
) "स्वपनों का होम कर" का अर्थ समझ नहीं आया
२) "प्रतिकार मै हाथ जलाये " क्या होता है?
जब हम हवन करते हैं तो आहूती देते है.. घी, फ़ल, नवेद्य, जल या अन्य वस्तुओं की.. इसी को होम कहते हैं.. क्योंकि ज्वाला कभी कभी तीव्र होती है तो हाथों को आंच भी लग जाती है. एक मुहावरा भी है...होम करो और हाथ जलाओ.
स्वप्नों के होम से मेरा अर्थ है अपनी मनोभावनाओं का त्याग तुम किस लिये कर रही हो...
शायद अब मैं अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने में सफ़ल हो सकूं
सजग पठन के लिये धन्यवाद
मत पूछिए मोहिंदर जी ऐसा कोई भी सवाल जिसका जवाब देने में किसी को तकलीफ हो !
मोहिंदर जी,
रचना वस्तुतः उत्कृष्ट है ! किंतु मैं भी शैलेश जमलोकी जी से सहमति रखता हूँ ! आपके स्पष्टीकरण के बावजूद मुझे "प्रतिकार में हाथ जलाए" पर थोड़ा संदेह है ! प्रतिकार के स्थान पर किसी अन्य समानार्थक शब्द का उपयोग भावाभिव्यक्ति को आसान बना सकता था !!!
धन्यवाद !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)