काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - महँगाई
विषय-चयन - विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
अंक - सोलह
माह - जुलाई 2008
लगातार बढ़ती मुद्रा स्फीति की दर ने भारत के आम आदमी की नाक में दम कर रखा है। जब हम जुलाई माह के काव्य-पल्लवन के लिए विषय का चयन कर रहे थे तो इस बात को ख्याल में रखते हुए कि महँगाई आज देश की सबसे बड़ी समस्या है, इस माह का काव्य-पल्लवन इसी पर कराने का निर्णय लिया। कुल २५ कवियों ने भाग लिया। एक फोटोग्राफर रश्मि सिंह ने हमें कुछ छायाचित्र भी भेजे, जिसमें दो फोटों हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि जिन्होंने भाग नहीं लिया, उन्हें महँगाई की चिंता नहीं है, हो सकता है कि वो महँगाई से इतने परेशान हो कि कलम की रोशनाई खरीदने के लिए भी सोचना पड़ा हो।
खैर आप सभी इस विमर्श में भाग लीजिए और सरकार की मुँह ताके बिना इसके निवारण पर विचार कीजिए।
आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।
*** प्रतिभागी ***
| प्रदीप मानोरिया | सुरेन्द्र कुमार अभिन्न | शशिकाँत शर्मा | रचना श्रीवास्तव | संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी |देवेन्द्र कुमार मिश्रा | शैलेश जमलोकि | सीमा सचदेव
| रेनू जैन | विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" |विपिन चौधरी |कमलप्रीत सिंह |
सुरिन्दर रत्ती | अर्पिता नायक | प्रकाश यादव 'निर्भीक' | प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव | सोमेश्वर पांडेय | कमला भंडारी | पंकज रामेन्दू मानव | मनालिनि काणे | राजेश राय | शोभा महेन्द्रू | सविता दत्ता | विनय के जोशी | विश्व दीपक 'तन्हा' |
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
किंतु लेखनी सूखी रह्ती निर्धन की कठिनाई पर ,
चिंता है किंतु न चिंतन बढ़ती हुई महंगाई पर |
एक बार तो लिख कर देखो ठग वायदा बाज़ारों पर ||
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
खंड हुए अभिलेख पुराने नहीं लगाम महंगाई पर,
हर्षित नेता श्रेष्ठी हैं सब करते मौज कमाई पर |
एक बार अब हटा के फेंको ऐसी ठग सरकारों को
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
तपे जेठ की घोर दुपहरी , बे-घर रह मैदानों में ,
लथपथ रहे पसीना तन पर , करते काम खदानों में |
एक बार तो छूकर देखो उन दिल की दीवारों पर ||
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
जाडों में तन रहे ठिठुरता अधनंगे रह सड़कों पर ,
छोटी कथरी खींच तान कर डाल रहा जो लड़कों पर |
एक बार तो हाथ रखो अब इन मजबूरी के तारों पर ||
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
निर्धन की कुटिया छप्पर की टपक रही बरसातों में ,
बर्तन सारे बिछा फर्श पर जाग रहा जो रातों में |
एक बार तो लिख कर देखो इनकी करुण पुकारों पर ||
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
--प्रदीप मानोरिया
मंहगाई ...मंहगाई ....मंहगाई
हल्ला मचा रहे हो
दिमाग का फतूर बढ़ने से रोक लो
महंगाई भी रुक जायेगी
एक पागल यही कहते सुना है मैंने
जीवन स्तर को
ऊपर उठाने की बात तो करते हो
उपग्रह पे बस्तियां बसाने की
तैयारियां भी हैं तुम्हारी,
फ़िर स्वप्न क्यों देखते हो
एक चवन्नी में
दस किलो देशी घी
और एक टक्के में मनो अनाज का
जानते नही क्या.
धरा से अब अनाज
मेहनत और पसीने से नही उगता
जमीन की भूख भी ज्यादा हो गई है,
जंक फ़ूड का ज़माना है,
उसे भी खाने को यूरिया
और पीने को कीटनाशक चाहिए
यूँ ही बवाल मचा देते हो
महंगाई ..महंगाई....महंगाई
डीजल .पेट्रोल के भाव बदने पर
हड़ताल करते हो.
नवीनतम मॉडल कार का
कौन सा आया शो रूम मे
हर महीने क्यों पड़ताल करते हो
सबसे मंहगी हो इस
शहर में मेरी कार
ये फतूर दिमाग में किसने बढाया
..?
फिर तेल के रेट बड़े तो
कहते हो महंगाई हो रही है
मंहगाई कब नही थी
कल ...............?
बरसों पहले........?
सदियों पहले ......?
मंहगाई
सर्वदा सर्वत्र विद्यमान रहती है,
निर्धन के लिए
मजदूर के लिए
अभावग्रस्त मेहनतकश के लिए..
बाकि सब के लिए तो
वरदान होती है
कर्मचारी का महंगाई भत्ता
कवियों की पुरुस्कार राशिः
कभी तिगुनी
कभी पाँच गुनी
राष्ट्रपति का वेतन .....
चपरासी का वेतन
आयोग चिंतित है
और
बार बार बैठते है
किसानों के लिए भी आयोग
व्यापार के आयोग
नित नित नए नए प्रयोग
सोचता हूँ की
कभी भूख को
गरीबी को
और रोज पिसते आम आदमी को
आयोग क्यों नही मिला.?
दूध बिजली दवाई से लेकर
हर छोटी बड़ी चीज़ को
महंगाई के नाम पर
कैश करा रहे हो
और हल्ला मचा रहे हो
मंहगाई .मंहगाई ...मंहगाई
काश आप को भी एक
पागल की आवाज सुनाई दे
और मंहगाई पर
खामखाँ की बहस बंद हो
--सुरेन्द्र कुमार अभिन्न
हाय ना जाने क्या लिखवाकर
जनता भारत की आई है
सबको जकडा एक रोग ने
महामारी ये महँगाई है
भूल गये सब हलवा-पूरी
रबडी और मलाई हैं,
सूखे चने चबाते है सब
आई जो महँगाई है
बूढे बच्चे और सयाने
सबको हरने आई है
नाच रही सर चडकर सबके
ये कालजायी महँगाई है
निगल चुकी है सबको अब
सरकार की बारी आई है
सुरसा सी बढती है जाती
अजर अमर महँगाई है
--शशिकाँत शर्मा
विरोधी नेता
माल दबा दाम बढाते हैं
इसी की सीधी चढ़
सत्ता में आते हैं
गद्दी पे बैठ
बहुत मंहगे हो जाते हैं
महंगाई से दीखते है चहुँ ओर
पर आम जनता की पहुँच से
दूर हो जाते हैं
महंगाई सब को
सरे आम लूटती है
पर रपट इसकी
किसी थाने में
नही लिखी जाती है
इसी लिए शायद
ये बेखौफ बढती जाती है
एक गरीब माँ
बच्चों को
फल के नाम बता रही थी
खरीद सकती नही
इसी लिए
दूर से दिखारही थी
महंगाई स्वयं महंगी हुई
पर रिश्ते सस्ते हो गए
गिरा दाम इमान का
जज्बात नीलाम हो गए
सस्ती बिकने लगी हैं बातें
जान इन्सान की सस्ती होगी
कम हुई कीमत किसानों की
बचा आत्महत्या की केवल रास्ता है
इस मंहगाई के दौर में लोगों
ये ही तो है जो सस्ता है
--रचना श्रीवास्तव
महँगाई का शासन हो गया, दिशा-दिशा में गान है।
सब कुछ देखो हो गया महँगा, बस सस्ता इंसान है।।
व्यवसायी का लाभ बढ रहा,
कर्मचारी का बढ़ता भत्ता।
नेताओं की है पौ-बारह,
किसान पाये ना, रोटी-लत्ता?
तेल, बीज और खाद बढ़ गया, खाद्यान्न का ही गान है?
सब कुछ देखो हो गया महँगा, बस सस्ता इंसान है।।
क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ती,
सेंसेक्स की रेखा चढ़ती।
दुधमुँहें की माता पूछे,
महँगाई कब होगी कमती?
न्यूनतम वेतन की बातें करते, अधिकतम् का क्या मान है?
सब कुछ देखो हो गया महँगा, बस सस्ता इंसान है।।
भारत से लेकर अमरीका,
एक-दूसरे पर करते टीका।
महँगाई से पीड़ित हैं सब,
मिस्टर सेम हों या हो भीखा।
आज हमारी रोटी गिनते, क्या परमाणु अभिमान है?
सब कुछ देखो हो गया महँगा, बस सस्ता इंसान है।।
सहनशक्ति है, सब सह लेंगे,
विकास कर रहे, विकास करेंगे।
विकास लक्ष्य जब हम पा लेंगे,
जवाब करारा हम भी देंगे।
तेल क्षेत्र पर कब्जा करके, हमको दिखाते शान है?
सब कुछ देखो हो गया महँगा, बस सस्ता इंसान है।।
--संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
कभी नहीं था सोचा मैंने, ऐसा भी हो सकता है ।
बिन ईधन के चलना मुश्किल, सब की हालत खसता है ।।
सब की हालत खसता है, ईधन हुआ मंहगा नशा ।
अमेरिका-ईरान संबंधों से, हुई यह दुर्दशा ।।
कच्चे तेल की बढती कीमत, परेशान हैं आज सभी ।
दादा गिरी, आपना असत्तव, असर दिखाये कभी-कभी ।।
बिगडा पर्यावरण, कहीं है बाढ-कहीं है सूखा ।
कृषि उत्पादन कमी आई है, आज किसान है भूखा ।।
आज किसान है भूखा, लागत ज्यादा उत्पादन कम ।
कर्जा चुका नहीं है पाता, तोड रहा है दम ।।
सुरसा जैसा मुँह फैलाये, मंहगाई ने झिगडा ।
विदेशी आनाज मगाया, देशी बजट है बिगडा ।।
मकान, सोना चाँदी, हुई आज है सपना ।
बेरोजगारी बढती जाती, रंग दिखाती अपना ।।
रंग दिखाती अपना, आज है मुश्किल शिक्षा पाना ।
भ्रष्टाचार का जाल है फैला, योग्य-अयोग्य न जाना ।।
शादी के संजोये सपने, मंहगाई फीके पकवान ।
कर्मचारी, मजदूर, किसान, बचा सके न आज मकान ।।
नेता की परिभाषा बदली, पाखंडी बनाया बेश ।
कभी भूनते तंदूरों में, बाहुबली चलाते देश ।।
बाहुबली चलाते देश, धर्म-जाति आपस लडबाते ।
सत्ता में आ जाते , वेतन सुख-सुविधाएं पाते ।।
सब कुछ मंहगा मौत है सस्ती, लाज के ये क्रेता ।
कुछ नही सिद्धांत इनका, भ्रष्ट आचरण नेता ।।
दर-दर बढती जनसंख्या, भूमि है स्थाई ।
कृषि भूमि में बनी हैं बस्ती, ऐसी नौबत आई ।।
ऐसी नौबत आई, जनसंख्या पर रोक लगाओ ।
नूतन तकनीती से, आवश्यकता पूर्ण कराओ ।।
विज्ञानकों का कर आव्हान, अबिष्कार को कर ।
पर्यावरण का कर संरक्षण, रोको मंहगाई की दर ।।
--देवेन्द्र कुमार मिश्रा
महंगाई की बात चली तो, मेरी भी सुन लो
चार जो आते थे दस के, आते अब बस दो
इन्फ्लेशन का नाम सुना था, जाने क्या है वो
दिल पर पत्थर रख लो तुम, जब भी पैसे दो
एक बार रोता था बस, पहले महंगा जो
अब महंगे सामान को ले के, खून के आंसू रो..
सत्ता संग ले जायेगी, क्या महंगाई को ?
फरक पड़ेगा अब कह के, जो होना सो हो..
--शैलेश जम्लोकि
दिनो दिन बढती जाती है
किसी नॉन स्टॉप ट्रेन की भान्ति
छूती जा रही है ऊँचाई
किसी उडान भरते विमान की भान्ति
खोलती है अपना मुँह
सुरसा की भान्ति
नही है अब किसी हनुमान की हिम्मत
कि कलयुगी सुरसा के मुँह मे
घुसकर सुरक्षित वापिस आ सके
रह जाता है साधारण जन लटक कर
त्रिशन्कु की भान्ति
एक ऐसा चक्र्व्यूह जिसमे
कोई अभिमन्यु घुसता है
पर वापसी के सारे मार्ग बन्द
कर जाता है अपने आप ही
बुन लेता है जाल
अपने चारो ओर
मकडी की भान्ति और
जीवन पर्यन्त खोजता है
बाहर का रास्ता
लाख प्रयत्न भी नही निकाल पाते
उसे इस मकडजाल से बाहर
घेर लेती है एक अदृश्य परछाई
न जाने कब ,कैसे
और पता भी नही चलता
फँस जाता है
आगे कुँआ पीछे खाई
के दोराहे पर
ज्यो पेट भरने की चाहत मे
निगल जाता है साँप छिपकली को
सिर पर कर्ज़ का बोझ लिए
ताउम्र सहता है आम जन
मँहगाई के कौडे
और लिख जाता है वसीयत
मेँ मँहगाई..........
अपने वारिसो के नाम भी
-- सीमा सचदेव
भारत की सरकार निराली,
कहीं नहीं ऐसी पाओगे...
कहती 'कम होगी महंगाई'
हर बरस बढती पाओगे....
दो के छः और छः के बारह,
दाम सदा ही ऊपर जाता,
सब्ज़ी, चावल हो या आटा
दूर से हमको मुंह है चिढ़ाता।
अब खाली बैठे न हमसे,
चीनी यूँ फांकी जाती है...
एक चाय की कीमत भी तो,
पाँच रूपये आंकी जाती है।
गरीब बेचारा क्या खायेगा...
ख़ुद को भी जो बेच आएगा...
एक जून की रोटी भी तो,
बच्चो को नहीं दे पायेगा।
फल मिष्ठान्न तो बन गए सपना,
भोजन मिल जाए क्या कम है...
खीर पूरी का गया ज़माना,
सूखी रोटी, आँखें नम हैं.......
--रेनू जैन
आम आदमी चिंता में है , कारण इसका है मँहगाई
खास सभी चिंतन में हैं सब , कारण इसका है मँहगाई
अखबारों में सुर्ख हुआ है, "प्राइस इंडैक्स" का बढ़ा केंचुआ
खबरों में "बाजार" बना है , कारण इसका है मँहगाई
सरकारें संकट में हैं सब , जोड़ तोड़ और उठा पटक है
कुर्सी सबकी डोल रही है , कारण इसका है मँहगाई
भारतीय भोजन की चर्चा , आबादी का बढ़ता खर्चा
अमरीकी सीनेट करते हैं , कारण इसका है मँहगाई
राशन पहुँचाने गरीब को , शासन सारा जुटा हुआ है
सुरसा मुख सा बढ़ा बजट है , कारण इसका है मँहगाई
चादर कितनी भी फैलाओ , फिर फिर पाँव उघड़ जाते हैं
सभी विवश हैँ पैर सिकोड़े , कारण इसका है मँहगाई
मँहगी थाली , मँहगी शिक्षा , मँहगी यात्रा और चिकित्सा
यही चाहते हैं हम सब अब , किसी तरह कम हो मंहगाई !
--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र "
आज के इस वक्त में हमें
हमें कपडा, रोटी और मकान से ज्यादा
और भी कुछ चाहिये
पर मँहगाई के उतार चढाव के इस दौर में
कुछ ज्यादा मिलने की उम्मीद हमें नहीं है
हैरान परेशान होने के दिन अब लद गये है
हमने मान लिया है रुपया हमारा बाप है
और हमनें उसकी गुलामी स्वीकार कर ली है
हम धीरे धीरे चलते हैं
पर हमारे सपने हमसे भी तेज चलने का साहस रखते हैं
हमारे कुछ सपने सिक्कों के सहारे खडे हैं
जब सिक्के गिरे तो सपने भी गिरे
जो सपने फक्कड थे वे चलते चले गये
हम समझ गये उसकी जमीनी हक्कीत
वे सपने चलते गये और दुनियादारी से
बाहर होते गये
कुछ लोग बाजार में खरीदने निकले
और मन मार कर खरीद भी लाये
वो भी खरीदने निकले
पर दाम सुन कर मायुस हो लौट गये
हमनें इस जग में बहुतों से
जीतने का दावा किया
पर बहुत कोशिशों के बाद भी
हम मँहगाई से जीत नहीं पाये।
--विपिन चौधरी
जब जब भी सुना
जब जब भी है जाना
फिर इक आफत है आयी
बढती ही जाती हैं कीमतें
छूती ही चली जातीं हैं नयी ऊंचाई
रहम ,दुहाई है दुहाई
सुरसा सा मुंह खोले महंगाई
आटा घी शक्कर और
कपडों की सिलाई
हमेशा से हुए मंहगे
साथ बढ़ती महंगाई
लेकिन यह भी सच है
खाना पीना ओढ़ना
कुछ भी तो नहीं छूटा
बल्कि कुछ बढ़ा ही होगा
आयी नहीं रुलाई -
आमदनी तो है
पन्द्रेह सौ की कौन कहे महँगी
जब जेब में पचीस सौ ने गुत्थी सुलझाई -महंगाई ,उफ़ महंगाई
यूँ तो बढ़ते दामों ने है
दुनिया सताई
पर महंगाई के चलते
कुछ न रुका,
कुछ न रुके भाई
--कमलप्रीत सिंह
बडे सयाने कह गये, इसे मीठा ज़हर बताये हैं
महंगाई ने हम सबके, चेहरे खुश्क बनाये हैं
तवंगर अपना रोवे, मुफलिस भूखा सोवे,
आज दुनियांवालों ने, ग़म के गीत गाये हैं
जीना हुआ दुश्वार सभी का, सबकी एक कहानी है,
महंगाई के भूत ने देखो, हर शै पे पेहरे लगाये हैं
जमाखोरी, घूसखोर का, हुआ था पहले संगम,
उनके नालायक बेटे ने, चूल्हे सबके बुझाये हैं
उम्र तो अपनी रफ़्तार से, बढती ही चली जाये,
महंगाई जो बढ गयी तो, कम न होने पाये है
महंगाई तो दुश्मन का, बडा ज़ालिम बेटा है,
हर शख्स के सर पे उसनें, डन्डे बहोत बरसाये हैं
बेबस ज़िन्दगी कोस रही, उस उपरवाले को,
दो निवाले सुख के नहीं, आज तलक खाये हैं
ख़ुदा कहे कोई मुझको, न देना इल्ज़ाम,
गुनाह तुम्हारे सवाब तुम्हारे, वही सामने आये हैं
यारब करिश्मा कर, "रत्ती" पत्थर हज़म करे,
रोटी से निजात मिले, मैंने हाथ बहोत फैलाये हैं
शब्दार्थ
तवंगर = अमीर, मुफलिस = गरीब, दुश्वार = कठिन,
सवाब = पुण्य, निजात = छुटकारा
--सुरिन्दर रत्ती
अंग्रेज़ी अखबारों में ख़बर पढ़ते हैं,
"इन्फ्लेशन रेट बढ़ गई है",
और मुंह बिचका कर कहते हैं,
"उफ्फ यह महंगाई,
ये बेचारे गरीब लोग"
आँखें मूँद कर वही अखबार हम
मोड़-मरोड़ कर कोने में रख जाते हैं.
दास्ताँ-ऐ-महंगाई वाले कागज़ अब
रद्दियों के दाम कबाडी में जाते हैं
रद्दीवाला भी दाम देते वक्त कह उठता है,
"उफ्फ यह महंगाई"
दो निवाले खाने वाले अब
छोटा निवाला उठाते हैं
बारिस से पहले छप्पर की मरम्मत करने वाले
अब बहाना बना टाल जाते हैं
बच्ची के लिए गुडिया का वादा करने वाले
रोज़ भूल जाते हैं
अब पहली तनख्वाह से फ्रीज, टीवी नहीं आते हैं
बीवी को मनाने वाला, फूल-गहने भूल
केवल बातों काम चलाते हैं
"उफ्फ यह महंगाई, हाय यह महंगाई "
कहने वाले थक जाते हैं
किंतु, महंगाई की मार से बच नहीं पाते हैं.
मैंने सुना है-
महंगाई जीना मुश्किल करती है
मैंने सुन रखा है-
हाहाकार मची है
राशन की दूकान के सामने ,
सभी अपनी जेबें थामें खड़े हैं
थैले में अपना सर्वस्व
समेटने को अडे हैं
लेकिन, मैं सुनूं कैसे......
मैं तो खड़ी हूँ मॉल के हॉल में
चारों तरफ़ चकाचौंध है
पैसा जहाँ फाउंटेन में बहता है
और पानी पचास रूपया प्रति ग्लास मिलता है
जहाँ युवा पीढी बसती है, हंसती है, खेलती है
आह्लादित सी अजब गज़ब फैशन ट्राई करती है
और माँ बाप अचंभित से पीछे चलते हैं
इन बदलते रूपों में उनका अंश कौन सा?
मैं भी तो कोई अमीर नहीं ,
एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ
फिर, क्यों नहीं माँ-बाबूजी ने कहा,
"उफ्फ यह महंगाई"
हर मांग तो पूरी होती है मेरी,
क्यों बिगाड़ न पायी कुछ महंगाई मेरी?
फिर ख़याल आया,
बाबूजी रोज़ ऑफिस जल्दी जाते हैं
और रात को देर से लौटते हैं
मम्मी घर का हिसाब मुझ से छिपाती हैं
भाई की फेवरेट्स अब उन्हें पसंद नहीं रहे
रोटियों पर घी की परत नहीं चढाई जाती अब
क्योंकि, मेरी ही खुशी के लिए, कोई नहीं कहता,
"उफ्फ यह महंगाई".
--अर्पिता नायक
जबसे शुरु हुई कालाबाजारी,
आयी तबसे कमरतोड़ महँगाई;
जन जन की यह होश उडाई,
देश में मच गयी त्राहि त्राहि।
मूल्य बढाने की होड़ मचाई,
वस्तुओं को आपस में लडाई;
सरसों तेल ही पहले दौडा,
आसमान में आसन जमाया।
जब आलु देखा यह तमाशा,
आगे बढने की हुई अभिलाषा;
बढा ऊपर वह इतना कि भाई,
थी नहीं किसी को इतनी आशा।
प्याज पर अब पड़ा दबाब,
जब सह न पाया इतना दाब;
उड़ा पहन महँगाई का नकाब,
देखते ही रह गए सब जनाब।
मिर्च जो ले रही थी अंगड़ाई,
सबकी नजर उस पर दौड़ आयी;
भीड़ देख वह इतनी घबडाई;
डरकर सबसे पिंड छुडाई।
हरी सब्जियाँ की हरयाली,
थी नहीं किसी से कम निराली;
वह भी उपर जाने का सबको,
लहराती हरी झण्डी दिखायी।
इधर पडा था नमक बेचारा,
जो बना था सबका सहारा;
उसने भी जब हिम्मत हारा,
रातों रात दिया एक नारा।
छोडो अब निज देश की चिन्ता,
देखो कैसे जीते हैं सब नेता;
तोडो अब सबसे अपना नाता,
क्यों बने हम दुनियाँ का दाता।
--प्रकाश यादव 'निर्भीक'
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई
औ॔" जरूरतों ने जेबों संग , है अनचाही रास रचाई
मुश्किल में हर एक साँस है , हर चेहरा चिंतित उदास है
वे ही क्या निर्धन निर्बल जो , वो भी धन जिनका कि दास है
फैले दावानल से जैसे , झुलस रही सारी अमराई !
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
पनघट खुद प्यासा प्यासा है , क्षुदित श्रमिक ,स्वामी किसान हैं
मिटी मान मर्यादा सबकी , हर घर गुमसुम परेशान है
कितनों के आँगन अनब्याहे , बज न पा रही है शहनाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
मेंहदी रच जो चली जिंदगी , टूट चुकी है उसकी आशा
पिसा जा रहा आम आदमी , हर चेहरे में छाई निराशा
चलते चलते शाम हो चली , मिली न पर मंजिल हरजाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
मिट्टी तक तो मँहगी हुई है , हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको , खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई , दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
नई समस्यायें मुँह बाई , आबादी ,वितरण , उत्पादन
यदि न सामयिक हल होगा तो ,रोजगार ,शासन , अनुशासन
राष्ट्र प्रेम , चारीत्रिक ढ़ृड़ता की होगी कैसे भरपाई ?
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
आम आदमी बेमौत मर गया
हर वस्तु का मोल बढ़ गया
घर पर छ बाहर तेरह सौ
ऐसा भइया ये भावः चलवाते
कहें मसीहा गरीबों का खुदको
उपहार मंहगाई के बांटते जाते
अन्नदाता जहाँ मरते जाते
गर्व से जय किसान क्यों गाते
दलाल - सटोरिया, बडी कम्पानी
इनके सगे दोस्त और जानी
संसद में ये टिकने कि होड़ में
चट्टे-बट्टे सब बिकते करोड़ में
संसद में ये सब पैसा दिखलाते
ख़ुद तो खाते औरों को खिलाते
संसद बाहर आदमी मर रहा
अंदर नेता सब कंट्रोल कर रहा
किसी का बेटा, पति, बाप या भाई
हाय आज बली फ़िर ले गई मंहगाई .................|
--सोमेश्वर पांडेय
महंगाई ने सबको रुलाया है
पर ये तो खुशियों की सौगात लाया है
नहीं मिलेगी अब रोटी
तो फ़िक्र की क्या बात है
वैसे भी खाना कौन चाहता है रोटी ?
सबको तो फ़िक्र है अपने फिगर की
पहले तो खाना पड़ता था मजबूरी थी
पर महंगाई ने ,
समस्या ही हल कर दी
आपकी फ़िक्र ही जड़ से ख़त्म कर दी
नहीं मिलेगा अब कपड़ा ,
तो फ़िक्र की बात है क्या
वैसे भी पहनना कौन चाहता है
तभी तो दिखते हैं सब आज
नंगे - पुदंगे या अध् कपड़ो में
अध्कपड़े पहनना भी मजबूरी है
की कहीं दुनियाँ ऊँगली न उठाए
पर महंगाई ने तो ऊँगली ही तोड़ दी
तो अब चिंता काहे की
नहीं मिलेगा अब मकान ,
तो फ़िक्र की क्या बात है
कौन पालना चाहता है झंझटों को
कौन लेना चाहता है जिम्मेदारियों को
सब तो हैं परिवार से आजादी
महंगाई ने तो आपकी किस्मत चमका दी
सारी जिम्मेदारियों, झंझटों , परिवार से
मुक्ति दिला दी
तो अब भी क्यों उदास हो तुम
महंगाई से मुहं न मोडो
महंगाई के राज में दम मारो दम
मिटालो सारे गम ।
--कमला भंडारी
मिर्च से तीखापन
चीनी से मीठापन
करेले का कड़वापन
दूध-घी का सौंधापन
कहीं नदारद है
कंबख्त कहां जांए
इस मंहगाई पर लानत है
दाल अब गलती नही
भाजी कहीं मिलती नही
क्या खांए , क्या खरीदे
रेज़गारी चलती नहीं
पसीना भी अब फीका हुआ
नमक कहीं नदारद है
कम्बख़्त कहां जाएं
इस महंगाई पर लानत है
चावल ने पकना छोड़ा
गेंहू ने सबसे मुंह मोड़ा
हल्दी पीली नहीं लगती
मसालों से खुशबू नहीं मिलती
पानी से गीलापन नदारद है
कंबख्त कहां जाएं
इस मंहगाई पर लानत है
खुशियां हुई क्रेडिट
परेशानियां हैं डेबिट
ब्याह हुआ मुश्किल
घर होता नहीं हासिल
हसरतों की फेररिस्त नदारद है
कंबख्त
कहां जाए
इस
मंहगाई पर लानत है
--पंकज रामेन्दू मानव
सूमो पहलवान से बलवान बनती
बढ़ती जा रही है यह महँगाई
डर है हमें जमींदोस्त तो न क्रे
यह उभरती जा रही महँगाई!
सदियों से इसे पाला-पोसा
दादा परदादाऒं ने भी कोसा
फिर भी पीछे न मुडे़ यह महँगाई
सूमो पहलवान से बलवान बनती
बढ़ती जा रही है यह महँगाई
डर है हमें जमींदोस्त तो न क्रे
यह उभरती जा रही महँगाई!
’बडे़ भैया’ की आर्थिक मंदी
राजकर्ताऒं ने फैलाई अंधाधुंधी
फिर कैसे लगाये लालच पर पाबंदी
सूमो पहलवान से बलवान बनती
बढ़ती जा रही है यह महँगाई
डर है हमें जमींदोस्त तो न क्रे
यह उभरती जा रही महँगाई!
हजारों में एक छलाँग मारती रोजगारी
लाखों में फैलती मोह-माया, लाचारी
फिर कैसे थमेगी शुद्ध हवा,
दान-पानी की मारामारी, जब
सूमो पहलवान से बलवान बनती
बढ़ती जा रही है यह महँगाई
डर है हमें जमींदोस्त तो न क्रे
यह उभरती जा रही महँगाई!
रोका, टोका, कोसा, ढोसा,
झुंझकारा, मारा, पीटा
फिर भी न जाये यह महँगाई
सूमो पहलवान से बलवान बनती
बढ़ती जा रही है यह महँगाई
डर है हमें जमींदोस्त तो ना करे
यह उभरती जा रही महँगाई!
--मनालिनी काणे
महँगाई हाय ये महँगाई
मार गयी हमें ये महँगाई
कितने अच्छे थे गाव में
हल चलाते थे धूप और छाव में
कैसी ये शामत आई जो हमें शहर
ले आई
ला दिया घरवालो से जुदाई
महँगाई हाय ये महँगाई
मार गई हमें ये महँगाई
कितने भरे फार्म
फार्म भरते -भरते आंखे हो गई नम
घर के सामने नौकरी लगने के उम्मीद हो गई कम
क्या करें शहर आ गए हम
यहाँ भी था बेरोजगारी
महँगाई हाय ये महँगाई
मार गई हमें ये मेहेंगाई
कितनी अच्छी जिंदगी जीते थे
आराम से दो वक्त की रोटी खाते थे
अचानक कीमतों की बाढ़ आई
मुसीबतों का तूफान लायी
छोड़ दी पढाई शहर की
और पैर बढाई
महँगाई हाय ये महँगाई
मार गई हमें ये महँगाई
--राजेश राय
रोज बढ़ जाती हैं ज़ालिम कीमतें
क्या खरीदूँ और किसका नाम दूँ
।
हर कदम मँहगाई का दानव खड़ा
कैसे अपने दिल को मैं आराम दूँ।
आरजुएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ
रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ
हैं सजे बाज़ार छाई रौनकें
एक चादर इनपे लाओ डाल दूँ।
आँख में चुभती हैं लाखों ख्वाइशें
दर्द इनका आँसुओं में ढ़ाल दूँ।
जल रहा है देश इसकी आग में
अब शुभी किसको यहाँ इल्ज़ाम दूँ।
--शोभा महेन्द्रू
मैं दिन भर जूझती मरूँगी
बचत करूँगी
पर.....
एक ही वार से
मेरी कमर तोड़ देगी मँहगाई
कोई भी सरकार
आई या गई
मेरे घर पर उससे
कोई फर्क नहीं पड़ा
क्योंकि....
किसी ने भी
मेरे बारे में नहीं सोचा
अमीर या गरीब होती
तो ठीक था
मध्यम वर्ग की तो हालत
लगातार बदतर होती जारही है
कोई निष्कर्ष -
कभी ना मिल पाएगा
ढर्रा शुरू से ही बिगड़ा है
अब क्या सुधरेगा
कौन पहली बार है
मुझे तो मार खाने की
आदत सी पड़ गई है
जिन्होने मँहगाई के झण्डे को
और ऊँचा किया
आओ मिलकर
करें धन्यवाद उनका
--सविता दत्ता
कोटिल्य भूले
वस्तु विनिमय छोडा
विश्व बैंक का अंकुश डाला
छतरी तोडी
चद्दर फाडा
भ्रष्टाचारी छत्र संभाला
भेडिया राजा
भेड़ रियाया
भीड़ भ्रामरी अकेले ताला
दिन दल्ले
रात पतुरिया
जिस्म जख्म अस्तित्व छाला
बकरी भगाई
चरखा तोडा
वैश्वीकरण का हाथी पाला
किया उत्सर्जन
तब चिल्लाये
हाय महंगाई मार डाला
.
--विनय के जोशी
सच कड़वा होता है-
करैले-सा
कुछ कहते हैं-
नीम चढे करैले-सा।
नीम!
करैला!
फायदेमंद होते हैं
सेहत के लिए,
स्वाद!
आप शराब पीते हैं, ना!
स्वाद होता है?
करैला, नीम
अमूमन सस्ते होते है,-
हमारी, आपकी जेब के वास्ते..
दाम चढ जाता है
आफ सीजन में,
खपत कम हो जाती है तब।
लेकिन
सच!
करैला नहीं होता,
ना हीं नीम,
ना हीं आता है कभी
आफ सीजन,
फिर भी
होता है कड़वा
और महँगा कई गुणा.......
इसलिए
महँगाई यथार्थ नहीं-
यथार्थ है
सबब और मंशा।
रही बात सच की
तो
दिमागी गोदामों में
सालों से पड़ा
सड़ा
अधमरा सच
और कैसा होगा........!!!!
--विश्व दीपक 'तन्हा'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
58 कविताप्रेमियों का कहना है :
| प्रदीप मानोरिया | सुरेन्द्र कुमार अभिन्न | शशिकाँत शर्मा | रचना श्रीवास्तव | संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी | शैलेश जमलोकि | सीमा सचदेव
| रेनू जैन | विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" |विपिन चौधरी |कमलप्रीत सिंह |
सुरिन्दर रत्ती | अर्पिता नायक | प्रकाश यादव 'निर्भीक' | प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव | सोमेश्वर पांडेय | कमला भंडारी | पंकज रामेन्दू मानव | मनालिनि काणे | राजेश राय | शोभा महेन्द्रू | सविता दत्ता | विनय के जोशी | विश्व दीपक 'तन्हा' |
काव्य प्रतियोगिता में शामिल होने वाले कवियों की संख्याओं ने निश्चय ही इस प्रतियोगिता के महत्व को बढा दिया है। एक विषय पर इतनी कविताएं एक साथ पढना और साथ में सुन्दर पेन्टिंग का भी होना मन को खुश करता है। सभी रचनाकारों और आर्टिस्ट महोदय को बहुत बहुत बधाई।
एक से बढ़कर एक कविता ... महँगाई और उस पर चिंता का चित्रण भाव प्रधान है...शभकामनाएँ ..
मँहगाई विषय पर इतना कुछ लिखा है सकता है सोचा नहीं था। पढ़कर आनन्द आया। सबके दिल की व्यथा भी पता चली। मुझे विशेष रूप से प्रदीप मनौरिया और शशिकान्त जी की कविताएँ पसन्द आई। सभि कवियों को हार्दिक बधाई।
चित्र गज़ब के हैं। जो बात कविता में नहीं आसकी वो चित्रों में आगई। चित्र भेजने वाली रश्मि सिंह को बहुत-बहुत बधाई।
कलम और कैमरे से
मँहगाई का चित्र खींचने वालों
को बहुत बहुत बधाई..
वाकई गजब की मँहगाई...
मँहगाई है या गैस का गुब्बारा
नीचे आने का नाम ही नही लेता..
कलमकारों और कूँचीकारों को पुनः बधाई..
जय हो महामाई - आई मीन मँहगाई..
हर चीज महंगी है
कविता बस सस्ता है
भूख पेट में रहती है
कविता दिल में बसती है
अनामिका
"बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
किंतु लेखनी सूखी रह्ती निर्धन की कठिनाई पर ,
चिंता है किंतु न चिंतन बढ़ती हुई महंगाई पर | "
महंगाई पर .......इतना सुन्दर भी लिखा जा सकता है.....प्रदीप मानोरिया जी .......
मन हर्षित हो गया...
सभी को बधाई....
.....
.......
पूछिए ना बात मन की आज कुछ-कुछ कह रहा है,
आंसुओं का एक दरिया, सबके अंदर बह रहा है,
चिंता और चिंतन दोनों सर पर चढ कर बोल रहे हैं,
रोटी कपड़ा और मकान की चाह में सब सह रहा है
स-स्नेह
गीता पंडित (शमा)
सीमा जी की सशक्त लेखनी द्वारा रचित मंहगाई की इस कविता ने समाज की कटु तस्वीर खींची है. पर मंहगाई जितनी बड़ी मुसीबत का इलाज क्या है, यह बताना आज सचमुच कठिन हो गया है.
रह जाता है साधारण जन लटक कर
त्रिशन्कु की भान्ति
एक ऐसा चक्र्व्यूह जिसमे
कोई अभिमन्यु घुसता है
पर वापसी के सारे मार्ग बन्द
कर जाता है अपने आप ही
बुन लेता है जाल
अपने चारो ओर
मकडी की भान्ति और
जीवन पर्यन्त खोजता है
बाहर का रास्ता
यह पंक्तिया बहुत सुंदर हैं.
ऐ भाई, जरा देख के चलो...
शोभा जी ने मंहगाई पर बहुत सुंदर ग़ज़ल दी है हालाँकि इसमें रिवाज के अनुसार मतला नहीं है, पर शेर अच्छे हैं.
आरजुएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ
यह सब से अच्छा शेर है
सहजवाला बहुत अच्छा लिखते हैं पर वे केवल महिलाओं की रचनाओं पर ही क्यों कमेंट्स करते हैं?
सारी कवितायें बहुत अच्छी है सीमा जी आप की कविता और रचना जी की क्षणिकायें बहुत अच्छी लगी
सादर
विवेक
bahut hi achchhi kavitayen padhne ko mili sabhi ki kavita ek se badh ke ek hai seema ji aap ki kavita bahut achchhi hai
saader
rachana
आदरणीय,प्रदीपजी,
कविता अच्छी लगी,यथार्थ स्पष्ट हैं.काबिले तारीफ़ है.
सविताजी,
आपने अपने काव्यात्मक शब्दों मे जिस प्रकार महंगाई पर व्यंग किया है,काबिले तारीफ़ है,लेकिन उससे भी बढ़ कर मध्यम वर्ग की भावना को स्पष्ट करने का ढंग बहुत ही अच्छी लगी.
प्रदीप मानोरिया जी ,
आपकी कविता के बारे मै ये कहना चाहूँगा
१) मुखडा बहुत सुन्दर है..
"बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||" पर इसका बार बार दोहराव कविता की शोभा कम कर रहा है.. इस का कारण मुझे ये लगा .. क्यों की थोडा लम्बा है दुहराने के लिए..
२) कथ्य और विषय पर सटीक बैठती है कविता
३) शब्द सुन्दर चयन किया है.. प्रस्तुतीकरण बेहतर हो सकता था..
४) भावात्मक रूप से आप ने सबका दिल जीता है..
सादर
शैलेश
सुरेन्द्र कुमार अभिन्न जी,
आपकी कविता
१) महंगाई का एक नया रूप दिखाती हुई,, कथ्य और विषय को बहुत सुन्दर प्रस्तुत करती है
२) थोडा लम्बी होती हुई भी अपना प्रभाव और उत्सुकता छोड़ने मै कामयाब रही है
३) व्यंग्यात्मक शैली कविता की शोभा बढा रही है
४) मिश्रित भाषा का भी सुन्दर प्रयोग किया है
५) महंगाई एक अनुपातिक शब्द है.. और इसे समझने मै आपने बहुत मदत की है.. ये महंगाई को समझने का बहुत अच्छा तरीका था..
"कहते हो महंगाई हो रही है
मंहगाई कब नही थी
कल ...............?
बरसों पहले........?
सदियों पहले ......?"
सुन्दर कविता के लिए बधाई
सादर
शैलेश
शशिकाँत शर्मा जी,
आपकी कविता मै
१) महंगाई के लिए बहुत सुन्दर विशेषण प्रयुक्त हुए है
जैसे कालजयी, अमर, अजर और रोग .
२)विराम चिह्नों की कमी खली
३) शब्द चयन सुन्दर और विषय पर सटीक बैठती है
४) भावः भी अच्छे बन पड़े है.. परन्तु जैसे इतनी सारी कविताओं को पढने मै एक जैसे भावः लगे.. कुछ नयापन नहीं लगा..
सुन्दर कविता के लिए बधाई
सादर
शैलेश
रचना श्रीवास्तव जी,
मुझे आपकी कविता..
१) महंगाई के साथ इंसान का भविष्य बताती हुई इस कविताओ के गुलदस्ते को नयी दिशा दे रही है
२) कथ्य और विषय बिलकुल सही बना हुआ है
३) और महंगाई का मानव के जीवन मूल्यों पर पड़ने वाले दूरगामी परिणामो को दिखाती हुई बहुत सुन्दर अंत तक पहुँचती है
बधाई सुन्दर कविता के लिए
सादर
शैलेश
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी जी
आपकी कविता
१) कथ्य और विषय बहुत सटीक है.. प्रस्तुतीकरण चार चाँद लगा रहा है
२) गेय पद्य की तरह ये कविता बहुत सुन्दर लग रही है
३) समसामयिक तथ्यों का बहुत अच्छा परयोग किया है
बधाई हो
सादर
शैलेश
प्रदीप जी आप की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
किंतु लेखनी सूखी रह्ती निर्धन की कठिनाई पर ,
चिंता है किंतु न चिंतन बढ़ती हुई महंगाई पर |
सुरेन्द्र जी ये बहुत अच्छी है
नित नित नए नए प्रयोग
सोचता हूँ की
कभी भूख को
गरीबी को
और रोज पिसते आम आदमी को
आयोग क्यों नही मिला.,शशिकांत जी ये नाच रही सर चडकर सबके
ये कालजायी महँगाई है बहुत अच्छा है संतोष जी ये महँगाई का शासन हो गया, दिशा-दिशा में गान है।
सब कुछ देखो हो गया महँगा, बस सस्ता इंसान है।।बहुत अच्छी लगी .देवेन्द्र जी कृषि भूमि में बनी हैं बस्ती, ऐसी नौबत आई ऐसी नौबत आई, जनसंख्या पर रोक लगाओ । ।।। शेलेश जी महंगाई की बात चली तो, मेरी भी सुन लो
चार जो आते थे दस के, आते अब बस दो ये अच्छा लगा सीमा जी आप सारी कविता बहुत अच्छी लगी .रेनू जी दो के छः और छः के बारह,दाम सदा ही ऊपर जाता,सब्ज़ी, चावल हो या आटादूर से हमको मुंह है चिढ़ाता। अच्छा लिखा है
बाकि के बारे में भी लिखूंगी .सभी की कविता बहुत अच्छी हैं
सादर
रचना
मैंने सबकी कविता पढ़ी एक से एक अच्छी कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी
खासकर सुरिन्दर रत्ती जी की सुरेन्द्र कुमार अभिन्न जी की
और भी कवियों की कलम ने अच्छा जादू बिखेरा है महंगाई पर
चित्र के साथ कविता प्रकाशित करने से सोने पर सुहागा हो गया
बहुत बहुत बधाई
देवेन्द्र कुमार मिश्रा जी,
मुझे आपकी कविता पढ़ कर ऐसा लगा
१) पहले कुछ पंक्तिया पढ़ कर ऐसा लगा जैसे "काका हाथरसी" की कुण्डलियाँ पढ़ रहा हूँ
पर प्रस्तुतीकरण इस तरह था की, मन कह रहा था ये ऐसा नहीं हो सकता ...
खास कर इन दोस्त पंक्तियों को देख कर
"बिन ईधन के चलना मुश्किल, सब की हालत खसता है ।।
सब की हालत खसता है, ईधन हुआ मंहगा नशा । "
२) कथ्य मै नया पन नहीं लगा.. अतः थोडा सा लम्बाई कविता की और भी पाठक के मन मै पढने की उतुसुकता नहीं जगा पाती... ये इस लिए भी है क्यों की इतनी सारी कवितायेँ एक साथ एक ही विषय पर पढ़ रहा था..
३) विराम चिह्न और शब्द चयन सुन्दर है
अच्छी कविता के लिए बधाई
सादर
शैलेश
itni achchhi kavita padhne ko mile hind yugm ki ligon ko badhai aur dhanyavad .rashmi ji ka dhanyavad sunder photo ke liye .renu ji pradip ji,ki kavitayen bahut achchhi lagi
rachna ji ki chhoti kavitayen bahut pasand aai
saader
mariyam
सीमा सचदेव जी,
आपकी कविता ...
१) कुछ शब्दों की वर्तनी पर सबसे पहले धयान गया.. ख़ास कर एक ही शब्द दो बार गलत हुआ..भान्ति.. एक गलती मै माना जा सकता है की एडिटर की दिक्कत है
२) ये सुरसा शब्द मै लगातार दूसरी कविता मै पढ़ रहा हूँ और.. इस का मतलब नहीं समझा मै
३) आपने महंगाई को नए नए तराजू मै तोल कर इस गुलदस्ते को नयी खुशबू दी है
४) आपकी भी कविता की लम्बाई मुझे (पाठक) को पूरा पढने से रोक रही है
इतना ही कह सकता हूँ
अच्चे प्रयास सराहनीय
सादर
शैलेश
इतनी सारी कविताएं पढ़ना और उन पर झटके से कमेंट पास कर देना कठिन कार्य है। फिर भी कुछ लिखने का मन किया तो उंगलियाँ चलने लगीं------
सभी कविताएं अच्छी नहीं हैं मगर यह भी सत्य है कि प्रकाशित सभी कवियों में किसी विषय पर अपनी बात कहने का गहरा सामर्थ्य हैं।
मंहगाई विषय पर कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं---
१---आरजुएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुएँ में डाल दूँ।
२--मैं दिन भर जूझती मरूंगी
बचत करूँगी
पर
एक ही वार से
मेरी कमर तोड़ देगी मंहगाई --
३--रही बात सच की
तो
दिमागी गोदामो में
सालों से पड़ा
सड़ा
अधमरा सच
और कैसा होगा !
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------
आशा है जिन अच्छी लाइनों को पढ़कर मैं समझ नहीं पाया उसके लिए लेखक मुझे छमा करेंगे।
----देवेन्द्र पाण्डेय।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र " जी
आपकी ग़ज़ल
१) प्रासंगिक लगी
२) काफिया.. थोडा सा लम्बा होने की वजह से शोभा थोडी कमतर लगी
३)मिश्रित भाषा का सुन्दर प्रयोग
४)"सरकारें संकट में हैं सब , जोड़ तोड़ और उठा पटक है
कुर्सी सबकी डोल रही है , कारण इसका है मँहगाई"
मेरे ख्याल से सरकार का संकट महंगाई से ज्यादा परमाणु संधि की वजह से था.. अतः कई कविताओ मै ये प्रसंग आया तो लगा की इंगित करू की ये महंगाई विषय से नहीं जोड़ा जाना चाहिए..
अच्छी कोशिश
सादर
शैलेश
विपिन चौधरी जी,
आपकी कविता
१) की शुरवात होती है इन पंक्तियों से
"आज के इस वक्त में हमें
हमें कपडा, रोटी और मकान से ज्यादा
और भी कुछ चाहिये "
और मुझे भ्रमित करती है.. आप क्या कहना चाह रहे है?
२) आप की कविता पढ़ कर पता नहीं मुझे ऐसा लगा जैसे.. गध्य पढ़ रहा हूँ
३) कथ्य विषय से मिलता है.. और आप पाठक तक पहुचने मै सफल रहे है
अच्छा प्रयास
सादर
shailesh
कमलप्रीत सिंह जी
आपकी कविता
१) मै एक बार फिर से "सुरसा".. क्या कहू?
२)कथ्य मै नया पन नहीं लगा..
३) विषय पर कथ्य सही बैठता है
४) पर इस से अच्चा बन सकता था..
अच्चे प्रयास के लिए बधाई
सादर.
शैलेश
सुरिन्दर रत्ती जी
आपकी कविता
१) गुलदस्ते की सबसे सुन्दर कविताओं मै से एक है
२) पहली पंक्ति पढ़ कर ही पता नहीं क्यों अच्छी लगने लगती है
३) बस थोडा सा प्रस्तुतिकरण अच्छा होता तो बहुत सुन्दर था..
४) शब्दार्थ दे कर तो और भी अच्छा लगा..
५) बात एक ही कही है आपने भी परन्तु.. पेश करने का तरीका पसंद आया
सादर
शैलेश
अर्पिता जी,
आपकी कविता पढने के बाद
१) मै ये कहने को मजबूर हो गया ""उफ्फ यह महंगाई""
२) कथ्य को आपने जिस तरह से पेश किया है..वो बहुत पसंद आया
३) ये पंक्तिया बहुत पसंद आई
"राशन की दूकान के सामने ,
सभी अपनी जेबें थामें खड़े हैं
थैले में अपना सर्वस्व
समेटने को अडे हैं "
बधाई
सादर
शैलेश
प्रकाश यादव 'निर्भीक' जी,
आपकी कविता
१)आपने अछि कोशिश की तुकांत कविता बनाने की..बस एक जगह मुझे कमी लगी
" जब आलु देखा यह तमाशा,
आगे बढने की हुई अभिलाषा;
बढा ऊपर वह इतना कि भाई,
थी नहीं किसी को इतनी आशा। "
तुक नहीं मिल पाया सही से
२)अच्छी संकपना से साथ लिखी हुई कविता..कुछ नयापन सा था..
३)विषय और कथ्य बिलकुल सटीक है..
अच्छे कविता के लिए बधाई
बाकि की टिप्पणिया.. बाद मै...
सादर
शैलेश
"महंगाई" जैसे समसामयिक विषय पर इतना कुछ एकसाथ देखकर भौंचक्का रह गया. ज़्यादातर कवितायें अच्छी हैं - परन्तु शोभा महेन्द्रू व प्रदीप मानोरिया की कवितायें तो निश्चित रूप से बाकी सभी कविताओं से कहीं ऊपर खड़ी हैं. दोनों को बहुत बहुत बधाई. इनके अलावा सविता दत्ता और पंकज रामेन्दू मानव ने भी अच्छा लिखा है.
sari kavitayen bahut achchhi hai
pr rachana ji ki chhadikayen bahut achhi hai khas kar
महंगाई सब को
सरे आम लूटती है
पर रपट इसकी
किसी थाने में
नही लिखी जाती है
इसी लिए शायद
ये बेखौफ बढती जाती है
aur pradip ji aap ki kavita bahut achhi hai
बूंदों पर तो छंद लिखे हैं ग़ज़ल लिखी बौछारों पर |
तारीफों के बंद लिखे हैं गीत लिखे त्योहारों पर ||
किंतु लेखनी सूखी रह्ती निर्धन की कठिनाई पर ,
चिंता है किंतु न चिंतन बढ़ती हुई महंगाई पर | "
saader
madhukr
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव जी,
आपकी कविता
१) का प्रस्तुतीकरण अच्छा होने की वजह से और गेय होने की वजह से मुझे ज्यादा भायी
२)विषय पर सटीक है. और कथ्य पानी जैसा साफ़
३)बस आपने ये पद कैसे बांटे है, ये नहीं समझा .. पहले दोस्त पंक्तियाँ
फिर चार, फिर कहीं पर तीन ?
४) विराम चिह्न भी बहुत खूबसरती से प्रयोग किये है.. शब्द चयन का क्या कहना
५) भावात्मक रूप से.. आप अपने कमाल किया है,,
ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई
"मिट्टी तक तो मँहगी हुई है , हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको , खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई , दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!"
बधाई
सादर
शैलेश
सोमेश्वर पांडेय जी,
पहली बात आपकी कविता दो बार पोस्ट हुई है.. अतः उसकी लम्बाई बहुत लम्बी लग रही थी..
१) आप भी महंगाई मै कुछ नयी दिशा जोड़ने मै कामयाब नहीं रहे..
२)विषय पर लिखी हुई कविता और.. पाठक तक कथ्य पहुँचने मै कामयाबी
३) शब्द चयन सुन्दर और भावः सरल
अच्छे प्रयास के लिए बधाई..
सादर
शैलेश
कमला भंडारी जी,
मुझे आपकी ये कोशिश बहुत पसंद आई, क्यों ki
१) आपने मह्नागाई को लीक से हट कर देखा..
"नहीं मिलेगी अब रोटी
तो फ़िक्र की क्या बात है
वैसे भी खाना कौन चाहता है रोटी ?
सबको तो फ़िक्र है अपने फिगर की"
क्या बात है?
२)विषय वस्तु पर सटीक बैठती हुई.. कथ्य.. साफ़
३) प्रस्तुतीकरण ठीक ठाक
४)भावः सुन्दरता से पेश किये गए है..अतः प्रभावित करते है
सुन्दर प्रयास के लिए बधाई
सादर
शैलेश
पंकज रामेन्दू मानव जी,
१)आपकी कविता मै रवानगी है.. और लय ऐसे की बार बार पढने का मन करता है
२) आपकी कविता..तुकांत का अच्छा उदहारण है
३) विषय पर ठीक बैठती है
"चावल ने पकना छोड़ा
गेंहू ने सबसे मुंह मोड़ा
हल्दी पीली नहीं लगती
मसालों से खुशबू नहीं मिलती
पानी से गीलापन नदारद है"
ये पंक्तियाँ अच्छी लगी
सादर
शैलेश
मनालिनि काणे जी
-आपकी कविता मै "सूमो पहलवान से बलवान बनती
बढ़ती जा रही है यह महँगाई
डर है हमें जमींदोस्त तो न क्रे
यह उभरती जा रही महँगाई!" इतना बड़ा दोहराव.. कविता की केवल लम्बाई बड़ा रहा है.. सुन ते समय शायद अच्छी लगती ..
२) कविताये की सभी पंक्तिया.. अन्य बहुत प्रभाव छोड़ रही है..
"’बडे़ भैया’ की आर्थिक मंदी
राजकर्ताऒं ने फैलाई अंधाधुंधी
फिर कैसे लगाये लालच पर पाबंदी"
ये पंक्तिया पसंद आई
सादर
शैलेश
आपकी पहली कुछ पंक्तिया भारमक है
"महँगाई हाय ये महँगाई
मार गयी हमें ये महँगाई
कितने अच्छे थे गाव में
हल चलाते थे धूप और छाव में
कैसी ये शामत आई जो हमें शहर
ले आई "
१)क्या गाँव मै महंगाई नहीं होगी?
२) क्या आपको लगता है की महंगाई.. या शहर की चकाचोंध आपको शहर खींच लायी है?
३) विषय को देखने के नज़रिए मै नए पन की कमी सी लगी.. हाँ अदायगी अछि थी
सादर
शैलेश
शोभा महेन्द्रू जी,
आपकी ग़ज़ल सबसे सुन्दर जो लिखी जा सकती थी इस विषय पर वो है..जितनी प्रशंशा की जाए कम है,.
बेहतरीन.. बार बार पढने का मन किया....
आप ऐसे कोशिशे जारी रखें..
बधाई
सादर
शैलेश
सविता दत्ता जी
आपकी कविता की प्रस्तुति अच्छी थी... और इस लिए पाठक पूरा पढ़ लेता है
२) विषय पर अच्चा लिखा है
३) भावः और कथ्य साफ़ है.. और पाठक तक पहुँचने मै कामयाब हुई है आप
सादर
शैलेश
विनय के जोशी जी,
आपने भी अच्छी तुकांत कविता लिखी है.. और बहुत कम शब्दों मै अपनी बात चतुरता से कह दी है
२)शब्द चयन शुद्ध और अच्चा है
३) "कोटिल्य भूले
वस्तु विनिमय छोडा
विश्व बैंक का अंकुश डाला "
अच्छा लगा
सादर
शैलेश
विश्व दीपक 'तन्हा'जी,
आप भी अपने उम्मीदों पर खरा उतरे है...आपकी शुरवात शानदार थी और आगाज़ लाज़बाब..भावः थोडा गहरे थे और विषय वास्तु केन्द्रित थे..
प्रस्तुतीकरण भी भाया और.. बार बार पढने कम मन किया,...
आपने भी गुलदस्ते की शोभा बडाई है
बधाई
सादर
शैलेश
सुरेन्द्र कुमार
aapki prastuti behtareen hai ,laajwaab jitni taarif ki jaay kam hai
neelam mishra
mahangayi par itne saare vicharo ko padh kar lagta hai ki ek din hum jaroor apni pratyek samsyao ka hal dhundh lenge aur desh ke vikash ko mahangi,garibi,atankvad jaisi janjire jakad kar nahi rakh payengi....
ayega sudhar ka mausam
pran vihag phir gayega
aao ek avaz uthao.....
naya savera ayega.
pradeep manoriya aur arpita nayak ki kavita atyant saral aur achhi lagi
...deepali
मुझे सभी कवियों की कवितायें बहुत अच्छे लगी| मेरी कवता के साथ जुड़ कर भंडारी जी की कविता प्रकाशित हुई मेरा सौभाग्य ! दरअसल भंडारी जी की कविता दो बार छपी है आशा करता हूँ सम्पादक मंडल इसे ठीक कर लेंगे. अमृता जी आपकी कविता काफी अच्छी लगी , लिखते रहिये| भंडारी जी आपकी कविता बहुत अच्छी है लेकिन शायद मेरी कविता साथ जुड़ जाने से प्रभाव में कमी आई हो तो माफ़ी चाहता हूँ.
@सोमेश्वर जी,
हमारी गलतियों की ओर हमारा ध्यान दिलाने का शुक्रिया। हमने ठीक कर लिया है। आपको हु्ई असुविधा के लिए हमें खेद है।
आगे भी ऐसे ही हमारी कमियाँ बताकर हमें बेहतर बनने का अवसर दें।
ताज़ा समकालीन विषय पर सभी कवियों ने दिल खोल के उदगार व्यक्त किया हैं...बहुत बड़ाई सभी को शैलेश जम्लोकी जी, इतनी बढ़िया और विस्तारपूर्ण टिप्पणियों के लिए आभार
शैलेश भारतवासी जी,
अगर आप मेरी टिपण्णी पढ़ते तो मै ये बात बहुत पहले कह चूका था...
सादर
शैलेश
शैलेश जी,
जग का रूप वर्णन कराने वाली आंखे स्वयं की सुन्दरता नही देख सकती है | इसके लिए दर्पण का सहारा लेना पङता है | ये अलग बात है, ख़ुद के सन्दर्भ में दर्पण कभी सच नही बोलता | इसीलिए आप टिप्पणी नही कर सके अपनी कविता पर.
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एक बार रोता था बस, पहले महंगा जो
अब महंगे सामान को ले के, खून के आंसू रो.
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बहुत सही लिखा |
महँगा रोवे एक बार
सस्ता रोवे बार बार |
सही है अबभी महँगा एक ही बार रुलाता है, पर रुलाता खून के आंसू है और रुलाई भी लम्बी चलती है |
अच्छी पंक्तियाँ |
बधाई एवं टिप्पणियों हेतु आभार |
प्रदीप मानोरिया जी, कमला भंडारी जी, एवं शोभा जी की रचनाएँ विशेष पसंद आईं। बाकी कवियों ने भी अच्छा लिखा है।
Aadarneey Saileshjii, aapke sujhaav evam sameekshaa ke liye hardik dhanyavaad. Pradeepji evam sobhaji ki kavitayein yathaarth ka sajeev chitran karti prateet huyi.sabhi ko vishesh roop se dhanyavaad.
Saadar dhanyavaad sahit.
Sashikant Sharma
काव्य पल्लवन का महत्व है एक साथ , प्रासंगिक विषय पर दुनिया भर में फैले विचारवान मित्रों का बौद्धिक चिंतन और अभिव्यक्ति ..... मंहगाई पर सुंदर कविताये , और फिर उन पर रोचक टप्पणियो से अभीभूत हूँ . आशा है कि रचनाकार मित्र समीक्षात्मक टप्पणियो को उसी भाव से ग्रहण कर , आत्म परिष्कार करेंगे . मेरा सुझाव है कि हमें विभिन्न संस्थागत प्रकाशको से आग्ह करना चाहिये कि काव्य पल्लवन के विषय वार अंको का पुस्तकाकार प्रकाशन किया जावे , जिससे प्रिंट मीडीया से जुड़े लोगो तक भी रचनाये पहुंच सके , मेरे इस कमेंट से सहमत हों तो कृपया प्रतिक्रिया लिखें . हम अपने पोर्टल पर भी आव्हान कर सकते हैं कि प्रंटिग हेतु आर्थिक सहयोग देने में रुचि रखने वाले लोग मदद करे , हम पुस्तक उन्हे या उनके प्रियजनो को समर्पित करने का प्रस्ताव रख सकते है .. किताब छापने की जबाबदारी विषय प्रस्तावक ले सकता है ....विवेक रंजन श्रीवास्तव
mahngai per itna kuch ek saath padaa.soch na tha itna kuch is vishay per likha ja sakta hai.sabhi kavion ki kavitayen padi.
ye vishay hi apne aap mein ek marm hai.
sabhi ko meri aur se hardik badhai.mujhe sabki hi rachnaye behad pasand aayi....
महंगाई की बात चली तो, मेरी भी सुन लो
चार जो आते थे दस के, आते अब बस दो
shailesh ji aap smiksha to bahut stariya hai hi aap ki kavita bhi kam nahi hai uprokt panktiyan generations ke antraal me hue parivartnon ko kahne me kitni sakhsam hai ...koi bhi samajh sakta hai
surender kumar abhinn ji aap ki rachana me jo paripakvata dekhne ko mili hai vah anyatr kahin dikhayee nahi de rahi hai,subject ki spirit ko apne define kiya,samsya ke karnn ko dund liya hai aapne aur us par uthh rahe ho halle ko ek dam se nakar kar savt hoti prakriya ka hissa man kar apne dimag ko shant kar lena hi ..shyad aapka samadhaan hai...aisa lagta hai aap ne ho halle ki bajay apne man ko samjahane ya phir system ko ukhad fainkne ki dhun ko support kiya hai..badi hi ironical language ka istemal kiya hai..any kaviyon me ratti saheb,rachna ji aurdeepak tanha ka yogdan bhi sarahnioya hai
विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का सुझाव बहुत सुन्दर है. श्रीवास्तव जी को बहुत-बहुत धन्यवाद. किन्तु साहित्यकार कब तक बिचारा बनकर धनपतियों के सामने हाथ फ़ैलाता रहेगा? क्या कोई अन्य वैकल्पिक मार्ग नहीं तलाशा जाना चाहिये? क्या सहित्यकार को आत्मनिर्भर नहीं होना चाहिये? ताकि हमें हाथ नहीं फ़ैलाना पडे?
रचना जी की रचना सुंदर है बधाई
महंगाई स्वयं महंगी हुई
पर रिश्ते सस्ते हो गए
गिरा दाम इमान का
जज्बात नीलाम हो गए
सस्ती बिकने लगी हैं बातें
जान इन्सान की सस्ती होगी
कम हुई कीमत किसानों की
बचा आत्महत्या की केवल रास्ता है
इस मंहगाई के दौर में लोगों
ये ही तो है जो सस्ता है
उपरोक्त पंक्तियाँ बहुत अर्थपूर्ण हैं
प्रदीप मनोरिया
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