हिन्द-युग्म के जनवरी २००८ के यूनिकवि केशव कुमार कर्ण ने मई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में आठवाँ स्थान बनाया। आप भी देखिए आखिर यह कमाल कैसे हुआ?
पुरस्कृत कविता- किसे सुनाऊँ अपने गीत
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
वह मधुमय संसार सुहाना,
वह स्वर्णिम शैशव का हास !
सह-क्रीड़ा, साहचर्य हमारा,
बन कर रहा शुष्क इतिहास!!
क्या ये आँख मिचौनी ही है,
जरा बता बचपन के मीत !
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
कोतूहल कलरव पीपल तल,
बृहद् विटप का शीतल छाँव!
तटिनी तट फैला सिकतांचल,
स्नेह-सुधानिधि सुंदर गांव!
पगडण्डी पर आँख बिछाए,
गए कई निशि-वाषर बीत !
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
अश्रु शेष केवल आंखों में,
सपने तक नहीं आते हैं !
उस पीड़ा को क्या जानो तुम,
जब अपने छोड़ के जाते हैं !
याद तुम्हीं को करना प्रतिपल,
मेरे जर-जीवन की रीत !
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ५॰५, ७॰१, ६
औसत अंक- ६॰१५
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ३॰५, ४, ७॰२, ६॰१५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰२१२५
स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- शशिकांत 'सदैव' की ओर से उनके शायरी-संग्रह दर्द की क़तरन की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिय
किसे सुनाऊँ अपने गीत।
--सुंदर------
आपने यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग लिया
और इतना प्यारा गीत हम सब को पढ़ाया
इसके लिए धन्यवाद।-देवेन्द्र पाण्डेय।
बहुत ही सुंदर रचना।
अश्रु शेष केवल आंखों में,
सपने तक नहीं आते हैं !
उस पीड़ा को क्या जानो तुम,
जब अपने छोड़ के जाते हैं !---
----
--बहुत अच्छा लिखा है यह विरह गीत..बधाई
अच्चा गीत है
कर्णप्रिय
वर्ण प्रिय
संस्कृत के मूल शब्दों के साथ देशज शब्दों का ऐसा संयोजन विरले ही देखने को मिलता है। यह रचना कवि की उपमा, सौन्दर्य, शब्द संयोजन और शिल्प पर सहज अधिकार को दर्शाता है।
मुझे इस बात पर गर्व है की मैं उनके घनिष्ठ मित्रों में से हूँ।
केशव भाई, हार्दिक शुभकामना!
आपका-
कुन्दन कुमार मल्लिक
कोतूहल कलरव पीपल तल,
बृहद् विटप का शीतल छाँव!
तटिनी तट फैला सिकतांचल,
स्नेह-सुधानिधि सुंदर गांव!
पगडण्डी पर आँख बिछाए,
गए कई निशि-वाषर बीत !
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
एक सुन्दर बिम्ब उरेहा है.. बधाई।
बहुत ही सुंदर ,बधाई
अश्रु शेष केवल आंखों में,
सपने तक नहीं आते हैं !
उस पीड़ा को क्या जानो तुम,
जब अपने छोड़ के जाते हैं !
भाव, शिल्प व शब्द संयोजन सराहनीय है.
अश्रु शेष केवल आंखों में,
सपने तक नहीं आते हैं !
उस पीड़ा को क्या जानो तुम,
जब अपने छोड़ के जाते हैं !
बहुत ही बढिया लिखा है।
सुमित भारद्वाज
सुंदर लिखा है आपने.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
sundar geet....badhai.
sundar
Avaneesh
अति सुंदर गीत है . बधाई.
लिखते रहें .
^^पूजा अनिल
bahut hi sundar rachana ki hai aapne.
Keshavji
Mai apke duara likhi hui kavita humesa padhti hun aur meko apki sari kavitanye bahot achi lagti hai...asha hai ki ap hume humesa isi tarah pyari pyari kavitaye padhne mauka denge.
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!..........
Ye git apne bahooooooot he acha likha hai..
isi tarah ke git ap likhte rahiye..
aur hindustan ke bahot bade kavi ban jaiye.....
Bahot sari subhkamnao ke sath..
Rachna
केशव जी आपका शब्द चयन बहुत ही अनूठा लगा
वह मधुमय संसार सुहाना,
वह स्वर्णिम शैशव का हास !
सह-क्रीड़ा, साहचर्य हमारा,
बन कर रहा शुष्क इतिहास!!
क्या ये आँख मिचौनी ही है,
जरा बता बचपन के मीत !बहुत ही सुंदर गीत |बधाई
Wording of the poem "Kise Sunaoon Apne Geet" is very melodious.
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