भीग गया मन प्रेम पगा हो़ बुझ गये सब अंगारे
खुशियों की बौछार भले बाजी जीते या हारे
सांकल स्वर्ग द्वार पर लटकी ललक हुई हम तोड़ें
खुशियां अश्कों में प्रतिबिम्बित़ इन्द्रधनुष हम जोड़ें
अन्धेरे को धमकाता जब मोम संभल ना पाया
प्रेम धार ले दीपक ने तब ज्योति-पुंज बरसाया
सुख में डूबे, खूब नहाये बौछारों के मारे
भीग गया मन प्रेम पगा हो़ बुझ गये सब अंगारे
अन्तर्ध्यान हुये कर्कश सुर शुरु हैं कलरव गान
बोझिल भृकुटि ढीली पड़ गई फिसल पड़ी मुस्कान
"होगा प्रलय, मचे तबाही" डरा लिये सब झाँसे
गुम हुई बेदर्दी आवाजें घबराहट की साँसें
चिल्लाहट लो मौन हो गई शून्य हुये सब नारे
भीग गया मन प्रेम पगा हो़ बुझ गये सब अंगारे
तितली झूमे पंख लिये आमन्त्रण शिशु भावों को
दर्द मिट गये ऐसे मलहम लगते सब घावों को
शत्रु बन गये मित्र आ बसे ह्दय की बस्ती में
अमृत विष के भेद मिट गये मगन भये मस्ती में
मृदुजल कलश संजो कर रखे पी गये सागर खारे
भीग गया मन प्रेम पगा हो़ बुझ गये सब अंगारे
-हरिहर झा
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सांकल स्वर्ग द्वार पर लटकी ललक हुई हम तोड़ें
खुशियाँ अश्कों में प्रतिबिंबित इंद्रधनुष हम जोड़ें
अ़न्धेरे को धमकाता जब मोम संभल ना पाया
प्रेम धार ले दीपक ने तब ज्योति-पुंज बरसाया
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-- शानदार नवगीत है---------आध्यात्मिकता से भरा हुआ।
स्वर्ग द्बार पर लटकी सांकल हमीं को यत्न से तोड़नी पड़ती है
प्रेम की चाश्नी में डूबा हुआ मन हो तो खुशियाँ अश्कों में प्रतिबिंबित होतीं हैं
मोम अंधेरे को धमका कर रह जाता है। ज्योतिपुंज तब बरसता है जब प्रेम धार की दीपक जलती है।
वाह !---सुंदर रचना प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद।
---देवेन्द्र पाण्डेय।
मृदुजल कलश संजो कर रखे पी गये सागर खारे
भीग गया मन प्रेम पगा हो़ बुझ गये सब अंगारे
बहुत ही बढिया |
विनय के जोशी
तितली झूमे पंख लिये आमन्त्रण शिशु भावों को
दर्द मिट गये ऐसे मलहम लगते सब घावों को
शत्रु बन गये मित्र आ बसे ह्दय की बस्ती में
अमृत विष के भेद मिट गये मगन भये मस्ती में
बहुत सुंदर भाव पूर्ण रचना
निश्चय ही कविता के भाव उत्तम हैं ! आनंद के अतिरेक की समुचित अभिव्यक्ति है किंतु शिल्प में अपेक्षित कसाव का किंचित अभाव, मुझे दृष्टिगोचर हो रहा है !! पुनश्च, इस पावन अवसर पर मेरी बधाई स्वीकारें !!
हरिहर जी,
मेरी मन पसन्द कविता लिखी है आपने..
सांकल स्वर्ग द्वार पर लटकी ललक हुई हम तोड़ें
खुशियाँ अश्कों में प्रतिबिंबित इंद्रधनुष हम जोड़ें
अ़न्धेरे को धमकाता जब मोम संभल ना पाया
प्रेम धार ले दीपक ने तब ज्योति-पुंज बरसाया
सुन्दर शब्द-संयोजन..
जहाँ तक लय की बात है वो ठीक है कहीं कहीं थोड़ी हटती है तो शब्दों को ढीला अथवा कसकर गुनगुनाने पर ठीक बैठ जाती है..
पुनः धन्यवाद
bahut khubsurat badhai
अति सुंदर.. नमन..
तितली झूमे पंख लिये आमन्त्रण शिशु भावों को
दर्द मिट गये ऐसे मलहम लगते सब घावों को
शत्रु बन गये मित्र आ बसे ह्दय की बस्ती में
अमृत विष के भेद मिट गये मगन भये मस्ती में
अच्छा लिखा है।
सुमित भारद्वाज
एक एक शब्दों को को लेकर तारीफ़ करूँ ये भीगे मन को और भिगोदेने की बात होगी ...कई दिनों के बाद इतनी अच्छी कविता पढने को मिली ..शब्दों का प्रयोग, बिम्ब नियोजन ,भावों का संयोजन .......वाह ! हार्दिक शुभकामनाएँ
सुनीता
लाजवाब प्रस्तुति,बधाई हो सर जी
आलोक सिंह "साहिल"
तितली झूमे पंख लिये आमन्त्रण शिशु भावों को
दर्द मिट गये ऐसे मलहम लगते सब घावों को
शत्रु बन गये मित्र आ बसे ह्दय की बस्ती में
अमृत विष के भेद मिट गये मगन भये मस्ती में
मृदुजल कलश संजो कर रखे पी गये सागर खारे
भीग गया मन प्रेम पगा हो़ बुझ गये सब अंगारे
पारम्परिक काव्य श्रृंगार युक्त मधुरिम ....... सादर
हरिहर जी,
आपकी हर एक नई रचना मुझे बढिया लगी है, बहुत सुंदर !
कृपया बधाई और अभिवादन स्वीकार करें.
अन्तर्ध्यान हुये कर्कश सुर शुरु हैं कलरव गान
बोझिल भृकुटि ढीली पड़ गई फिसल पड़ी मुस्कान
होगा प्रलय, मचे तबाही डरा लिये सब झाँसे
गुम हुई बेदर्दी आवाजें घबराहट की साँसें
-बहुत ही खूबसूरत गीत लिखा है.
बरसात का मौसम होता ही इतना सुंदर है--
बहुत बहुत बधाई.
अन्तर्ध्यान हुये कर्कश सुर शुरु हैं कलरव गान
बोझिल भृकुटि ढीली पड़ गई फिसल पड़ी मुस्कान
होगा प्रलय, मचे तबाही डरा लिये सब झाँसे
गुम हुई बेदर्दी आवाजें घबराहट की साँसें
हरिहर जी आपकी कविता पढ़ कर छायावाद युग की कविताओं की याद आ गई | प्रक्रति का मानवीकरण बखूबी किया है आपने
अति सुन्दर रचना । बधाई के पात्र हैं आप हरिहर जी ।
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