वर्षों से शहर में हूँ
कई दिनो से गाँव जाने का भूत
सवार था खोपड़ी में
सप्ताहांत आया और मैं
दो दिन के लिये गाँव
मगर सालों रहकर
जा रहा हूँ वापस ।
इन दो दिनों में
मूंज की चारपाई पर लेटा
देख रहा था मक्खियों के मल से कोटिड
अरगनी और बिजली की डोरी
यकायक टांड पर से मुहुँ चमकाती
दो कुरम की जूतियों ने
खींच लिया मुझे अपने पास टांड पर
और मैं खो गया भूत के भूत में
ये तो वही जूतियां हैं,
पहनकर जिनको आँगन में
गिरता पड़ता दौड़ता था
कबूतरों चिडियाओं के पीछे
मैने गिरकर संभलना सीखा था
इन्हीं जूतियों से...
जूतियों के पीछे रखी थी एक कछरिया
ढकी हुई फूल के बेले से
न जाने कितनी बार
दादी ने उतारा था चन्दा मामा
इसी बेले में पानी भरकर
और मैं पी जाता था गटागट-गटागट
सारे का सारा दूध एक ही सांस में
ताकी हो जाऊँ करुआ नीम सा बड़ा
और तोड सकूँ चाँद आसानी से..
ये कछरिया, बड़ा वजन है ! अरे..
पतंग की चरखी अभी भी उलझाये है
एक खपच्ची अपने कन्ने में
और ये लट्टू अपने सांटे की
आधी बनी कुण्डली में
लिपटा है हिफाजत से
लो मिल गया मेरा छोटा नरजा
तकली रानी और बहुत सारे कंचे
ये ललुआ कंचा हमेशा जिताता था मुझे
ये सब इस खाकी थैले में..
हाँ ये थैला भी तो..
मेरी पैंट.. मोहरीयों पर
लगी थी पीतल की चेन और मैं
मैं जाता था 26 जनवरी और 15 अगस्त पर
पहनकर अकसर स्कूल गुलदना लेने
और बाद में इसी थैले को टांगकर कन्धे पर
बड़ी शान से जाते थे बाबू जी के साथ
खेत पर बथुआ तोड़ने ।
और ये बीडी के बंडलों की चिटें..
माचिस के खोल के ताश,
पांच पैसे और तीन पैसे के पुराने सिक्के
जिनको संभालकर रखते थे
घर से बाहर दीवारों की दरारों की तिजोरियों में
निशान लगा लगाकर कि गुम ना हों भूलवश
लो ये गोफी भी यहीं है,
बाबू जी ने सिखाया था चलाना
एक बार मक्के के खेत पर कउआ उड़ाने के लिये
मेहरे पर बैठकर जामुन खाते खाते..
कितना संभालकर रख दिया था बाबू जी ने
सब कुछ इस कछरिया में मेरे शहर जाने पर
सब कुछ तो है, सब वैसे ही
यादें पुरानी शराब होती हैं
पुरानी होतीं है बूढी नहीं
यादों के भूत और भूत की यादें
सब मिला ज्यों का त्यों
कछरिया में सिवाय बाबू जी के..
16-06-2008
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
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कितना संभालकर रख दिया था बाबू जी ने
सब कुछ इस कछरिया में मेरे शहर जाने पर
सब कुछ तो है, सब वैसे ही
यादें पुरानी शराब होती हैं
पुरानी होतीं है बूढी नहीं
यादों के भूत और भूत की यादें
सब मिला ज्यों का त्यों
कछरिया में सिवाय बाबू जी के..
ओह ! राघव जी
बस हिला दिया आपने यादों को. पर अफ़सोस ... गांव भी तो बदल गए हैं, कुछ भी नहीं मिलता है सिवाय इन पुराने प्रतीकों के...
बढ़िया .... आप अब तक मन मैं यह सब संजोये हैं, इसीलिए रचनाकार हैं संभवतः
शुभकामना
बहुत हीं खूबसूरत कविता। प्रत्येक भाव मुखर है। सभी यादों को आपने बड़ी हीं खूबी से शब्दों में पिरोया है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
गांव का चित्र आ गया आखों के आगे ...अलग हट कर लगी आपकी यह रचना ..कुछ यादो से जुड़ी भावुक सी करती हुई ..
बहुत ही शानदार भाई जी.
आलोक सिंह "साहिल"
भूपेंद्र राघव जी ,
बहुत मीठी यादें संजो रखी हैं इस भूत ... की कविता ने .
बहुत खूब .
^^पूजा अनिल
यादें पुरानी शराब होती हैं
पुरानी होतीं है बूढी नहीं
यादों के भूत और भूत की यादें
सब मिला ज्यों का त्यों
कछरिया में सिवाय बाबू जी के..
वाह...मुझे भी मेरी नानी का गाँव याद आ गया...बहुत खूबसूरत और मासूम सी कविता..
भूपेन्द्र जी-
अपनी माटी अपनी संस्कृति और गॉव की भूली-बिसरी अमूल्य शब्दावलियों से हम सबको जोड़ती आपकी कविता संग्रहणीय है।--देवेन्द्र पाण्डेय।
राघव जी,
आपकी कविता दिल को छू गयी. यादें, यादें और यादें. समय बीतने पर सिर्फ़ यादें ही रह जाती हैं संजोने को.
बहुत बहुत बधाई.
adbhut...
yahi shabd hai baki sab ne to sab kuch likh diya.....aapne kavita nahi kahani sunai jo sabkuch yaad dila deti hai....
aapke sath maine bhi jiya us ganv ko.....
jitne varsh aap jiye...
aur kya kahoon
bas sadhuvad aur itani achchi kavita ke liye shubh kamnaye
इन दो दिनों में
मूंज की चारपाई पर लेटा
देख रहा था मक्खियों के मल से कोटिड
अरगनी और बिजली की डोरी
यकायक टांड पर से मुहुँ चमकाती
भूपेन्द्र जी ! आप द्रश्य आंखों के सामने
चित्रित कर देने में माहिर हैं
भूपेंदर जी न जाने आपके कितने रूप है |आपकी कविता पढ़कर कैसा महसूस हुआ शब्दों में नही कह सकती , एक अति-उत्तम रचना की श्रेणी में रखती हूँ इसे |नतमस्तक है आपकी कलम के आगे ....\बहुत बहुत बधाई
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