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Wednesday, June 18, 2008

हम सफेद कबूतरों में यह काला कहां से आ गया


वाराणसी निवासी देवेन्द्र कुमार पाण्डेय पिछले कई महीनों से शीर्ष १० में प्रकाशित हो रहे हैं। इससे हर कोई यह अंदाज़ा लगा सकता है कि देवेन्द्र हमेशा स्तरीय लेखन को बहुत महत्व देते हैं। इस बास इनकी कविता 'सफेद कबूतर' सातवें पायदान पर है।

पुरस्कृत कविता- सफेद कबूतर

घर की छत पर बैठे थे कई सफेद कबूतर
सबने सब मौसम देखे थे
सबके सब बेदम, भूखे थे
घर में एक कमरा था
कमरे में अन्न की गठरी थी
मगर कमरा, -- कमरा क्या था,
काजल की कोठरी थी !
एक से रहा न गया
कमरे में गया, अपनी भूख मिटाई और लौट आया
सबने देखा तो देखते रह गए
आपस में कहने लगे-
"हम सफेद कबूतरों में यह काला कहाँ से आ गया !"
सबने चीखा---"चोर-चोर"
काला कबूतर दूर नील गगन में उड़ गया.
कुछ समय पश्चात दूसरे से भी रहा न गया
वह भी कमरे में गया-अपनी भूख मिटाई और लौट आया
सबने फिर चीखा--"हम सफेद कबूतरों में यह काला कहां से आ गया !"
--"चोर-चोर"
और काला कबूतर दूर नील गगन में उड़ गया ।
धीरे-धीरे
सफेद कबूतरों का संख्या बल घट गया।
नील गगन- काले कबूतरों से पट गया।
एक समय ऐसा भी आया
जब काले कबूतर
घर की छत पर
लौट-लौट आने लगे
सफेद कबूतर
या तो काजल की कोठरी में या नील गगन में
उड़-उड़ जाने लगे।
जिन्होंने कमरे में जाना स्वीकार नहीं किया
भागना स्वीकार नहीं किया
वे कवि, गुरु या दार्शनिक हो गये।
सबको समझाने लगे-
"कमरे में अन्न की गठरी है मगर रुको--
कमरा-कमरा नहीं, काजल की कोठरी है।"
किसी ने सुना किसी ने नहीं सुना
किसी-किसी ने सुना अनसुना कर दिया.
मगर उनमें कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह उजले के उजले रह गए।
बात मामूली नहीं- संगीन है
कि उन्हीं की जिंदगी बेहद रंगीन है
उनके लिए हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
कि किसकी क्या सजा है
उनका बड़ा ऊँचा जज्बा है
जी- हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
जी-हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३, ५॰७, ७॰२५
औसत अंक- ५॰७३७५
स्थान- तेरहवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰५, ३, ५॰८, ५॰७३७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰५०९३७५
स्थान- सातवाँ


पुरस्कार- शशिकांत 'सदैव' की ओर से उनके शायरी-संग्रह दर्द की क़तरन की स्वहस्ताक्षरित प्रति।

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

देवेन्‍द्र जी की बहुत सुन्‍दर कविता है, काफी अच्छे भावों के साथ सजाया गया है।

Anonymous का कहना है कि -

जिन्होंने कमरे में जाना स्वीकार नहीं किया
भागना स्वीकार नहीं किया
वे कवि, गुरु या दार्शनिक हो गये।
सबको समझाने लगे-
"कमरे में अन्न की गठरी है मगर रुको--
कमरा-कमरा नहीं, काजल की कोठरी है।"
किसी ने सुना किसी ने नहीं सुना
किसी-किसी ने सुना अनसुना कर दिया.
मगर उनमें कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह उजले के उजले रह गए।
बात मामूली नहीं- संगीन है
कि उन्हीं की जिंदगी बेहद रंगीन है
उनके लिए हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
कि किसकी क्या सजा है
bahut khub,aise hi kuch log safed naqab hodhe magar kajal ki kothari mein rehte hai aaj kal,bahut achhi kavita,badhai.

Harihar का कहना है कि -

कि उन्हीं की जिंदगी बेहद रंगीन है
उनके लिए हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
कि किसकी क्या सजा है
उनका बड़ा ऊँचा जज्बा है
जी- हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है
देवेब्द्र जी! प्रतीक रूप में
उंची बात कह दी आपने !

सीमा सचदेव का कहना है कि -

काला कबूतर दूर नील गगन में उड़ गया.
कुछ समय पश्चात दूसरे से भी रहा न गया
वह भी कमरे में गया-अपनी भूख मिटाई और लौट आया
सबने फिर चीखा--"हम सफेद कबूतरों में यह काला कहां से आ गया !"
अति सुंदर | बधाई

ismita का कहना है कि -

kabootaron ke madhyam se aapne bahut khoob vyangya kiya hai.bhookh aur lachaari hi desh mein bhrashtachaar ko badhava de rahe hai...
dheere dheere safed kabootaron ka sankhya bal ghat gaya...neel gagan kale kabootaron se pat gaya...ye panktiyan visheshkar ullekhneeya hain.
behad khoobsurat rachana ke liye badhai...ismita...

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अच्चा प्रतीकत्मक व्यग्य है देवेन्द्र जी

मगर उनमें कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह उजले के उजले रह गए।
बात मामूली नहीं- संगीन है
कि उन्हीं की जिंदगी बेहद रंगीन है
उनके लिए हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
कि किसकी क्या सजा है
उनका बड़ा ऊँचा जज्बा है
जी- हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।

बढिया....

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

मगर उनमें कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह उजले के उजले रह गए।
बात मामूली नहीं- संगीन है
कि उन्हीं की जिंदगी बेहद रंगीन है
उनके लिए हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
कि किसकी क्या सजा है
उनका बड़ा ऊँचा जज्बा है
जी- हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
जी-हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
देवेन्द्रजी क्या बात है?
आपने रोशन कर दी रात है,
आज तो अन्दर काले,
पहने परिधान प्यारे,
उन्ही के हो रहे हैं बारे-न्यारे.

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

मगर उनमें कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह उजले के उजले रह गए।
बात मामूली नहीं- संगीन है
कि उन्हीं की जिंदगी बेहद रंगीन है
उनके लिए हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
कि किसकी क्या सजा है
उनका बड़ा ऊँचा जज्बा है
जी- हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
जी-हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
देवेन्द्रजी क्या बात है?
आपने रोशन कर दी रात है,
आज तो अन्दर काले,
पहने परिधान प्यारे,
उन्ही के हो रहे हैं बारे-न्यारे.

pallavi trivedi का कहना है कि -

सफेदपोश अपराधियों पर करारा व्यंग करती है ये कविता,.....बहुत उम्दा..

pallavi trivedi का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
Sajeev का कहना है कि -

आपकी टिप्पणियां बहुत धार धार होती हैं, आज कविता भी दमदार लगी....बढ़िया देवेन्द्र जी

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

सभी को धन्यवाद।
सजीवजी-आपको बहुत-बहुत---
क्योंकि आपने मेरी टिप्पणियों को भी किया याद।
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वैसे व्यंगकारों को प्रशंसा के साथ-साथ गालियों का स्वाद भी चखना पड़ता है
कड़ी से कड़ी बात लिखो तो लोग सिर्फ मुस्कुरा कर या तिलमिला कर रह जाते हैं
टिप्पणी के वक्त, मौन रह जाते हैं।
अभी हिन्द युग्म में १४ जून को- पूजा जी- के सौजन्य से प्रकाशित
श्व० कीर्ति चौधरी की कविता की ये लाइनें याद आती है----
---यह कैसा वक्त है
कि किसी को कड़ी बात कहो
वह बुरा नहीं मानता।
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यह कैसी लाचारी है
कि हमने अपनी सहजता ही
एकदम बिसारी है !----
-------देवेन्द्र पाण्डेय।

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