हुई है दोस्तो तकरार मज़हबों में अब
घरौंदे देख लो उन के इन्हें जलाने तक
गिरा हुआ है बहुत खून अब भी मकतल पर
खुली है आंख ये मेरे गवाह आने तक
कफस में कैद है बुलबुल बहुत से हैं सैय्याद
कोई न आएगा अब छटपटाते जाने तक
मिली है जिंदगी रिश्वत में हुक्मरां से मुझे
रहेंगे जिंदा कभी मौत के बुलाने तक
जला के जिस्म मेरा मुस्करा रहा है कोई
रुका हुआ है मेरी रूह को मिटाने तक
चमक है चेहरे पे जल्लाद के गुरूर भरी
सुनहले वर्क में तारिख को बनाने तक
लगा है ज़ख्म मसीहा को आज सूली पर
सदी भी कम है किसी घाव को भुलाने तक
(तकरार = लड़ाई, मज़हब = धर्म, मकतल = वधस्थल, कफस = पिंजरा, सैय्याद = पंछी पकड़ने वाले, रूह = आत्मा, वर्क = पृष्ठ, तारीख = इतिहास)
पुनश्च - तीसरा व चौथा शेर गुजरात हत्याओं की शिकार दो विशेष अभागी महिलाओं पर हैं. यह मैं पाठक पर छोड़ देता हूँ की उनके नाम का अनुमान लगाएं)
-प्रेमचंद सहजवाला
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
प्रेमचन्द जी अपने गुस्से में मेरे गुस्से को भी शामिल करें.
प्रेमचंद जी,
आपकी कलम से एक और बेहतरीन ग़ज़ल है ये . बहुत खूब लिखा है -
गिरा हुआ है बहुत खून अब भी मकतल पर
खुली है आंख ये मेरे गवाह आने तक
कफस में कैद है बुलबुल बहुत से हैं सैय्याद
कोई न आएगा अब छटपटाते जाने तक
आक्रोश और लाचारी का जज्बा एक साथ मालूम होता है . लिखते रहें .
^^पूजा अनिल
प्रेमचँद जी
मैने आपकी पहले भी युग्म पर गजले पढी है
आप बहुत ही अच्छा लिखते है और आपकी गजले मानस पटल पर प्रभाव छोड जाती है
सुमित भारद्वाज।
जला के जिस्म मेरा मुस्करा रहा है कोई
रुका हुआ है मेरी रूह को मिटाने तक
बहुत बढ़िया प्रेमचन्द जी!
जला के जिस्म मेरा मुस्करा रहा है कोई
रुका हुआ है मेरी रूह को मिटाने तक
जख्म हरे कर दिए आपके शेरों ने
प्रेमचन्द जी,
एक दर्द भरी और सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए शर्मनाक घटना को भी इतनी सहजता से प्रस्तुत करने के लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं.
बहुत ही दर्द झलकता है आपकी इस ग़ज़ल में
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