महानगरो में
किराये पर रहने वालों के लिए
मकान बदलना
बड़ी फजीहत का काम है
इसलिए भी
चला आया
उपनगरीय इलाके में
मेरे आने तक
इस मकान में
लटका हुआ था
एक बोर्ड –
टू-लेट का...
जिसे शायद हटा दिया गया
बालकनी के सामने
एक लैम्प-पोस्ट में
रहने वाले पड़ोसी ने
बहुत सुकूं दिया....
पर उन्होंने अपने पड़ोसी को
पसंद किया या नहीं...
खैर...
सुबह-शाम क्या
कई बार देर रात तक
उनकी चहचहाहट सुनाई देती
शायद बच्चे छोटे थे
लेकिन गिनकर
सातवें दिन
उन्होंने खाली कर दिया
अपना घर
जहां अब सिर्फ मुझे दिखता है
एक बोर्ड – टू लेट का।
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
लगता है महानगर आपको बहुत कुछ सिखा रहा है ... लगे रहिये
यह कविता क्या सिर्फ़ लिख देने के लिए लिख दी गयी या असल औचित्य मैं नहीं समझ पा रहा हूँ ?
अभिषेक जी बिल्कुल सही बात कही है आपने
This poem conveys the importance of neighbours in our life. Insaan ka kisi bhi roop mein akelapan usse bahut pareshaan karta hai.Kisi ke hone ki sunhare yaadein bas yaadein reh jaate hain. Achche neighbours milne ke baad unse bichodna ka gam dikhate yeh kavita achche lage.
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