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Sunday, June 15, 2008

बाबूजी


जब मैं पैदा हुआ था

बाबूजी फ़ूल हुआ करते थे

पतझड़ में भी

भीनी भीनी खुशबू बिखेरते थे

और वह खुशबू ऐसे सिखाती थी मुझे

उंगलियाँ पकड़ कर चलना

कि पता ही न चलता

मौसम का ॠतुओं में बँटा होना-

मैं जब चाहता

उनको सूँघता , खुश होता

पँखुड़ियाँ नोंच कर फ़ेंक देता;

मसल देता-

वो और महक उठते थे ।

मैने जब फ़ूलों से खेलना बन्द किया

तो वे नारियल हो गये

और अन्तर का जल

छलककर उफ़नने की कोशिश करता

लेकिन भूरे रेशों की जड़ों तक आते आते

अपनी सामर्थ्य खो बैठता ।

और मैं चला जाता

भीतर , रगों तक

उस मीठे पानी की तलाश में -

तब मैं बाढ़ का पानी हुआ करता था

जिधर ढलान मिली,

सिर तक चढ़ आता था-

और जब मैं फ़तह करता

कोई रेत का किला

तो उनका कद आसमान जितना हो जाता था

उस दिन खूब बरसात होती थी

मैं हवाओं के साथ

तीर सा भागता रहा,

नयी, बर्फ़ीली चोटियों की तरफ़

और पता ही न चला

कि कब

बाबूजी मन्दिर के भगवान हो गये

जिनके पुतले से मिलने

मैं जूते उतार कर

सीढ़ियों तक

मन्दिर जाता , और

घंटियाँ बजाकर परिक्रमा कर के

वरदान माँगता

और वापस आ जाता

उस दिन पानी में मिलकर

खूब बरसते थे

बादलों के भी आँसू ।


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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

sanjay patel का कहना है कि -

पिता के अस्तित्व को रेखांकित करती आपकी ये बात मन को छू गई....आँखों की कोर के आँसू क़ुबूल कीजिये.

Anonymous का कहना है कि -

और जब मैं फ़तह करता

कोई रेत का किला

तो उनका कद आसमान जितना हो जाता था

उस दिन खूब बरसात होती थी

मैं हवाओं के साथ

तीर सा भागता रहा,

नयी, बर्फ़ीली चोटियों की तरफ़

और पता ही न चला

कि कब

बाबूजी मन्दिर के भगवान हो गये

pita par itani bhavuk kavita,bahut hi sundar ehsaas,ek pita bhi apne bachhe ke liye na jane kya kya karta hai,sehta hai.nsuon ki barsaat kara di aapne,bahut badhai.

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

आलोक शंकर जी-
शानदार कविता। फूल-----नारियल-----मंदिर के भगवान-----जैसे सांकेतिक शब्दों का सफल प्रयोग।
बधाई स्वीकारें------------।-देवेन्द्र पाण्डेय।

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

बहुत अच्छा है

अवनीश

Pooja Anil का कहना है कि -

आलोक जी,
बेहद सुंदर प्रतीकों का प्रयोग किया है , पिता पुत्र संबंधों के लिए .


मैं हवाओं के साथ

तीर सा भागता रहा,

नयी, बर्फ़ीली चोटियों की तरफ़

और पता ही न चला

कि कब

बाबूजी मन्दिर के भगवान हो गये


बहुत अच्छा लिखा है . बधाई स्वीकारें .

^^पूजा अनिल

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

पितामय पुत्र और पुत्रमय पिता
इंगित करती भावमय कविता

खुश होता पँखुड़ियाँ नोंच कर फ़ेंक देता;
मसल देता- वो और महक उठते थे ।
मैने जब फ़ूलों से खेलना बन्द किया
तो वे नारियल हो गये और अन्तर का जल छलककर उफ़नने की कोशिश करता
लेकिन भूरे रेशों की जड़ों तक आते आते
अपनी सामर्थ्य खो बैठता ।
और मैं चला जाता भीतर ,
रगों तक उस मीठे पानी की तलाश में -
तब मैं बाढ़ का पानी हुआ करता था
जिधर ढलान मिली,
सिर तक चढ़ आता था-
और जब मैं फ़तह करता कोई रेत का किला तो उनका कद आसमान जितना हो जाता था

बहुत बढिया

Sajeev का कहना है कि -

वाह बहुत खूब...

सीमा सचदेव का कहना है कि -

फूल नारियल और मन्दिर का भगवान् पिता के लिए यह कविता पढ़कर मन भावुक हो गया |अति सुंदर रचना के लिए बधाई ....सीमा सचदेव

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